|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल ३, बुधवार, वि०स० २०७१
** गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य **
गत
ब्लॉग से आगे......इसी प्रकार उक्त स्थिति
माधुर्यभाव से भी ऊँची है; क्योंकि स्त्री कान्ता है, स्वामी के प्रतिकूल कार्य न
हो, इसका वह पूरा ध्यान रखती है | उसमें पति की आज्ञा के पालन का भाव है तथा पति
के साथ उसका सत्कार, मान और आदर का व्यवहार होता है; किन्तु जब सब भावों से ऊपर
उठकर परम प्रेम हो जाता है, वहाँ न तो आज्ञापालनका भाव है और न एक-दूसरे के साथ
सत्कार, मान और आदरका भाव रहता है; क्योंकि दोनों का वहाँ समानभाव है | यह
प्रेमावस्था तीनों गुणों से अतीत है | यहाँ सात्विक गुण और प्रभाव को लेकर प्रेम
नहीं है, स्वाभाविक प्रेम है; क्योंकि यह गुण और प्रभाव से ऊपर उठी हुई केवल
चिन्मय स्थिति है |
उक्त स्थिति वात्सल्यभाव से भी ऊँची है
| वात्सल्यभाव में जैसे यशोदा मैया श्रीकृष्ण को लाठी दिखाकर डराती हैं और वे भी
डरते हैं; किन्तु प्रेमकी इस निर्भय अवस्था में उस प्रकार एक-दूसरे से भय का
व्यवहार में भी अत्यन्त अभाव है | जब दोनों एक हो जाते हैं, तब फिर कौन किसका भय
करे ?
सख्यभाव में भी कहीं भय और आदर का भाव
देखा जाता है | भगवान् ने अर्जुन को अपना विराट स्वरुप दिखलाया, वह उस रूप को
देखकर डर गया था और स्तुति-प्रार्थना करने लगा | सख्यभाव में ऐसा बर्ताव देखा जाता
है | इसके लिए भगवान् ने अर्जुन से कहा भी है—
मा ते व्यथा मा च विमूढभावो-
दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।
व्यपेतभी: प्रीतमना: पुनस्त्वं-
तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य॥
(गीता
११ | ४९)
‘मेरे इस प्रकार के इस
विकराल रुपको देखकर तुझकों व्याकुलता नहीं होनी चाहिए और मूढ़भाव भी नहीं होना
चाहिए | तू भयरहित और प्रीतियुक्त मनवाला होकर उसी मेरे इस शंख-चक्र-गदा-पद्मयुक्त
चतुर्भुज रूप को फिर देख |’
इस प्रकार
भगवान् डरे हुए अर्जुन को आश्वासन देते हैं कि ‘अरे ! हम दोनों तो एक ही हैं, फिर
तू डरता क्यों है ?’
किन्तु जो सख्यभाव से ऊपर उठ जाता है और
परम प्रेम को प्राप्त कर लेता है, उसमें आदर, सत्कार, मान, भय, लज्जा आदि कुछ भी
किंचिन्मात्र भी नहीं रहते | वहाँ दोनों प्रेमस्वरूप ही जाते हैं | वहाँ भेदभाव की
कल्पना करना मूर्खता है | वास्तव में भक्त एवं भगवान् दोनों प्रेम के एक ही रूप
हैं | केवल देखने में पृथक की-ज्यों दिखलायी पड़ते हैं |
इस श्रेणी में पहुंचे हुए भक्त के
श्रद्धापूर्वक दर्शन, स्पर्श एवं भाषण से कल्याण हो सकता है | इस श्रेणी में
पहुंचे हुए प्रेमियों में सबसे ऊँचा स्थान श्रीराधिकाजी का है | ये भगवान् की
उच्चकोटि की प्रेमिका हैं | ये भगवान् की आह्लादिनी शक्ति हैं | भगवान् को हरदम
प्रसन्न रखना इनका काम है | रुक्मिणीजी भगवान् की ऐश्वर्यमयी शक्ति हैं | जब भक्त
सुदामा द्वारका में आये, तब भगवान् श्रीकृष्ण अपने पुराने मित्र को ऐसी हालत में
देखकर गद्गद हो गये | सुदामाजी भगवान् को भेंट देने के लिए एक पोटली में चिउरे
बाँधकर लाये थे, किन्तु यहाँ राजसी ठाट-बाट देखकर बेचारे विस्मित हो गये थे |
भगवान् ने देखा कि सुदामा मुझे चिउरे देने में हिचकिचा रहे हैं, तब उन्होंने उनके
संकोच को मिटने के लिए बगल में दबाई हुई पोटली खींच ली और वे चिउरों को बड़े
प्रेमसे खाने लगे | उन्होंने एक मुट्ठी भरकर तो चिउरे खा लिए, जब वे दूसरी मुट्ठी भरकर
खाने लगे, तब उनकी ऐश्वर्यमयी शक्ति रुक्मिणीजी ने उनका हाथ पकड़ लिया और कहा—‘विश्वात्मन
! बस, मनुष्य को इस लोक में और मरने के बाद परलोक में भी समस्त सम्पत्तियों की
समृद्धि प्राप्त करने के लिए यह एक मुट्ठी चिउरा ही बहुत है |’ इस प्रकार
रुक्मिणीजी को अपने ऐश्वर्य का ध्यान आ गया; क्योंकि ये भगवान् की ऐश्वर्यमयी
शक्ति थीं | यदि राधाजी यहाँ होतीं तो वे ऐश्वर्य के लिए भगवान् को नहीं रोकतीं | वे
भगवान् के लिए अपने-आपका बलिदान भी कर सकती हैं | रुक्मिणीजी में भी कोई कमी नहीं
थी; किन्तु दोनों की तुलना में तो राधिकाजी का स्थान ही ऊँचा रहेगा | त्रिलोकी का
समस्त ऐश्वर्य गुणातीत के आगे तुच्छ है | भगवान् एवं राधिकाजी दोनों गुणों से ऊपर
उठे हुए हैं | गुणों के द्वारा राधाजी प्रभावित नहीं हो सकतीं | यह विशुद्ध प्रेम
आनन्दमय सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का साक्षात् स्वरुप है | ऐश्वर्य में प्रतीत
होनेवाला आनन्द तो सच्चिदानन्द भगवान् का प्रतिबिम्ब है, वास्तविक स्वरुप नहीं |
कितने ही लोगों की इस विषय में दूसरी
प्रकार मान्यता है | उनका कहना है कि प्रेम ही दो भावों में विभक्त है—एक शक्तिमान
एवं दूसरा शक्ति | राधिकाजी शक्ति एवं भगवान् शक्तिमान हैं; किन्तु उपर्युक्त परम
प्रेम तो इससे भी ऊँचा है | सब भावों को लाँघकर जो एक परम प्रेम-भाव है, वहाँ
दोनों में अभेद है; क्योंकि वहाँ फिर शक्ति और शक्तिमान का भेद नहीं रहता, एक ही
चीज रहती है | केवल देखने में दो रूपसे प्रतीत होते हैं | वस्तुतः श्रीराधिकाजी
तथा श्रीकृष्ण एक ही हैं | गोपियों का भी भगवान् में इसी प्रकार का प्रेम था | इस
प्रेम में यदि कोई विलासिता की कल्पना करे तो कल्पना करनेवाले की भूल है | इस
प्रेम में लज्जा, संकोच, भय, कामका नाम-निशान भी नहीं है |
इसके सिवा, भगवान् के साथ तो किसी भी
तरह का सम्बन्ध होनेपर उसकी मुक्ति हो सकती है | यदि कंस-मारीच आदि की भांति द्वेष
और भय के सम्बन्ध से भी भगवान् का चिन्तन हो तो उससे भी कल्याण हो सकता है | यदि
कोई भगवान् से व्यभिचार का नाता जोड़कर मुक्त होता हो तो हमारी कोई आपत्ति नहीं,
किन्तु यह भाव आदरणीय कदापि नहीं है; पर ऐसा नाता गोपियों का नहीं था, उनका तो परम
और विशुद्ध प्रेम था | यद्यपि विष पिलानेवाली पूतना की मुक्ति भगवान् की परम दया
से हो गयी, इसमें संदेह नहीं; परन्तु पूतनाका आचरण अनुकरणीय नहीं है | रावण ने
वैरभाव से भगवान् के साथ युद्ध किया और मुक्ती पायी, किन्तु यह भी अनुकरणीय नहीं
है | अतः यदि जारभाव से तथा वैर और द्वेषभाव से मुक्ति मिले तो वह हमलोगों के लिए
त्याज्य है; क्योंकि श्रद्धा, प्रेम और भक्तिसंयुक्त दास्य, सख्य, वात्सल्य, शान्त
और माधुर्य आदि भावों के मौजूद रहते हुए जार, वैर आदि भावों का अनुसरण करना महान
मूर्खता है | भगवान् से तो विशुद्ध प्रेम का नाता ही करना चाहिए, इसी में हमारा
कल्याण शीघ्रातिशीघ्र हो सकता है |
गोपियों का उपर्युक्त परम विशुद्ध
प्रेमभाव था, जिनके प्रेम को देखकर उद्धव भी गोपियों की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते
हैं | यदि उन गोपियों का भगवान् श्रीकृष्ण में विशुद्ध प्रेम न होता तो उद्धव जी
गोपियों की इतनी प्रशंसा नहीं करते; किन्तु गोपियों का पवित्र एवं विशुद्ध भाव था,
जिसको देखकर उद्धवजी भी चकित एवं विस्मित हो गये |
अतएव हमलोगों को भगवान् में उपर्युक्त
विशुद्ध प्रेम करने के लिए प्राणपर्यंत चेष्टा करनी चाहिए |
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७,
गीताप्रेसगोरखपुर
नारायण !
नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!