※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

आनन्द के स्वरुप का वर्णन





  
निराकार ध्यान मे वैराग्य और उपरामता की बड़ी आवश्यकता है । इन दोनों के प्राप्त होने पर समाधि आदि अपने-आप ही लग जाती है । वैराग्य स्वत: हो जाय तो ध्यानके लिये चेष्टा नहीं करनी पड़ेगी । हमारे तो थोड़ी-सी ही उपरामता हो जाती है तो स्वत: ही ध्यान हो जाता है । जब उपरामता और वैराग्य नहीं है तो बहुत प्रयत्न करने पर भी मन स्थिर नहीं होता । वैराग्य होता है तो संसार के पदार्थों के चित्र स्वत: ही शान्त हो जाते हैं । मेरे तो किसी समय इस तरह की झलक रास्ते चलते-चलते आ जाती तो मन करता कि यहीं बैठ जायं, लोक-लाज से नहीं बैठते फिर दूसरी जगह जाकर बैठकर ध्यान करते । ध्यान के समान साधन नहीं है ।यहाँ वैराग्य हो जाता है । यह स्थान भोगी के लिये अनुकूल नहीं है । जितने भोग-पदार्थ हैं, साधक के लिये बाधक हैं, भोगी के लिये आराम देने वाले होते हैं । मेरी स्वाभाविक वृत्ति रहती है कि कहीं तीर्थ पर जाता हूँ तो देखता हूँ कि ध्यान के लिये यह स्थान कैसा है । इस बार ७००० मील घुमे, इस तरह का स्थान कम ही मिला । यह भूमि उत्तराखण्डकी तपोभूमि बड़ी पवित्र और एकान्त है । तीनो कि आवश्यकता है । सम्भव है, यहाँ पुर्वसमयमें ऋषियों ने तपस्या कि होगी । न जाने इस भूमि में क्या है ? न जाने गंगाजी कि जो हवा है उसमें करामात है । सम्भव है, महापुरुषों ने तपस्या कि होगी । यह आश्रम ही ऋषियों जैसा है । बहुत वर्षों से देखता हूँ, यह मालूम देता है कि यह जगह ऋषिसेवित है । जैसे कोई हिंसक जगह होती है तो वहाँ बैठने से हिंसा के परमाणु आ जाया करते हैं । हमलोग ध्यान करने के लिये हैं । हमारे सिवाय यहाँ कौन आता है । नजर उठाकर देखा जाय तो चारों तरफ वन-ही-वन दिखाई देता है । वटवृक्ष का दृश्य भी बड़ा उत्तम है, गंगाकी ध्वनि मानों ब्रह्म्चारी वेद का पाठ करते हों । रेणुका आसन भी उत्तम है ।

यहाँ सात्विकता भरी है । वायु भी सहायक हो जाती है । इसमें दो बातें मिलती है आरोग्यता और वैराग्य । भोग और आराम कि दृष्टि से विचार किया जाय तो थोड़ी तकलीफ हो सकती है ।असली चीज वैराग्य ही है । विषय भोग तो कुत्ते कि योनियों मे भी है । मखमल के गद्दे पर सोने पर हमें जो आनन्द मिलता है, मैं अनुमान करता हूँ कि गधे को राख पर लेटने से कुछ कम नहीं मिलता । आराम कि दृष्टि से मखमल और राख में क्या अन्तर है, केवल मन कि कल्पना है । प्रत्यक्ष में देखिये, मन के माने की ही तो बात है । सबके बालों का शौक अलग-अलग है । किसी एक प्रकार प्रकार कि हजामत में सुख मिलता तो दुनिया उसी तरह कि हजामत बनवाती । ऐसे ही सारे पदार्थों के बीच में यही बात है । वस्त्रों कि और दृष्टि डालते हैं तो हमारी दूसरी, अमेरिकावालों कि दूसरी, काबुलवालोंकि दूसरी है, कौनसी अच्छी है ? ऋषि लोग वल्कल वस्त्र पहनते थे, उनको उसमे ही आनन्द था । संसार मे सुख तो है ही नहीं वैराग्य में सुख है, राग द्वेष तो त्याग करने कि चीज है ।वैराग्य के सुख का सबको अनुभव नहीं है । महात्मा लोग कहते हैं, रागसे लाखों गुना सुख वैराग्य में है, इससे भी ज्यादा ध्यान मे है, ध्यान से भी ज्यादा सुख परमात्मा कि प्राप्ति में है

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।

स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ।। (गीता ५।२१)

बाहर के विषयों में आसक्तिरहित अन्त:करणवाला साधक आत्मामें स्थित जो ध्यानजनित सात्विक आनन्द है, उसको प्राप्त होता है; तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्माके ध्यानरूप योग में अभिन्नभाव से स्थित पुरुष अक्षय आनन्द का अनुभव करता है ।

इस श्लोक में दो सुख बतलाये गये हैं । एक साधनकालका सुख है, दूसरा साधन का फल है । इस प्रकार हर एक श्लोक में हमे ध्यान देना चाहिये । जैसे----

योऽन्त:सुखोऽन्तरारामस्तथान्तज्योर्तिरेव य: ।

स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ।। (गीता ५।२४)

जो पुरुष अन्तरात्मामें ही सुख वाला है, आत्मा में ही रमण करनेवाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञानवाला है, वह सच्चिदानन्दनघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकाकीभावको प्राप्त सांख्ययोगी शान्त ब्रह्म को प्राप्त होता है ।

भीतर से ही मननवाला है, उससे होने वाले सुख से सुखी है । हमको ध्यान रखना चाहिये कि हम ऐसे स्थान में बैठे हैं, प्रभु की कृपा है ही, अत: ध्यान लगेगा ही । जहाँ प्रभु कि चर्चा होती है, वहाँ आलस्य नहीं आ सकता, यदि आता है तो समझना चाहिये उसमें रूचि नहीं है । फिर ख्याल करने कि यह बात है कि नामजप से विक्षेप का विनाश हो जाता है । जहाँ विवेक होता है वहाँ बुद्धि कि आवश्यकता होती है । जहाँ बुद्धि तीक्ष्ण होती है, वहाँ आलस्य कि सामर्थ्य नहीं कि पास आ सके । जिन्होंने भगवान् कि शरण ले ली है उनके पास माया का कार्य आलस्य नहीं आ सकता । जिसका ध्यान लग जाय वह तो ध्यान मे बैठा ही रहे, ध्यान को ही अपना जीवन बना लेना चाहिये । मेरे तो इस प्रकार का अनुभव है कि मैं विचार कर लूँ कि आज आठ घंटा बैठना है, फिर परमात्मा कि कृपा से ध्यान जाय तो बैठे रहना कोई बड़ी बात नहीं है । ज्यादा आनन्द तो तभी है कि सब आदमी दिनभर ध्यान मे बैठे रहें । मेरी तो धारणा यह है कि महापुरुषों कि कृपा से अटल समाधि लग सकती है, फिर परमात्मा कि कृपा से लग जाय इसमें बात ही क्या है । तीन घंटा तो मामूली बात है, यह तो हमारी खुराक है ।

नारायण । नारायण । नारायण ।

नारायण के नाम का उच्चारण करते ही सब स्वाहा हो जाता है । नारायण शब्द का अर्थ है, `सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म` मनसे उसका मनन करे, बार-बार आनन्द शब्द का उच्चारण किया जाता है । इसके मुख्य सोलह विशेषण है । शेष अगले ब्लॉग में...............

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक सत्संगकी मार्मिक बातें ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १२८३ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]

 



गुरुवार, 30 अगस्त 2012

मार्कन्डेयपुराण पर एक विहंगम-दृष्टि (चार ज्ञानी पक्षियों की कथा )


चार ज्ञानी पक्षियों की कथा 

  
इसके पूर्व इस पुराण में व्यासजी के शिष्य प्रसिद्ध मीमांसाकार महातेजस्वी जैमिनी का चार पक्षियों के साथ महाभारत के कुछ प्रधान विषयों पर प्रश्नोत्तर है । यह चारों पक्षी तत्वज्ञानी ही नहीं,शास्त्रों के भी मर्मज्ञ थे ब्रह्मानिष्ठ होने के साथ-साथ शब्द्ब्रह्मा में भी निष्णात थे । यह पूर्व जन्म के ऋषि थे और श्राप के कारण पक्षी योनी को प्राप्त हुए थे । इनका जन्म भी विचित्र परिस्थिति में हुआ था । महाभारत युद्ध का समय था । इन पक्षियों की माता दैववश युद्ध क्षेत्र में जा पहुंची । उस समय अर्जुन और भगदत्त में युद्ध छिड़ा हुआ था । संयोगवश अर्जुन का एक बाण उस पक्षिणी को लगा, जिससे उस का पेट फट गया और उसमें सें चार अण्डे पृथ्वी पर गिरे । उनकी आयु शेष थी, अत: वे फूटे नहीं । बल्कि पृथ्वी पर ऐसे गिरे, मानों रुई के ढेर पर पड़े हो । उन अण्डों के गिरते ही भगदत्त के हाथी की पीठ से एक बहुत बड़ा घंटा भी टूट कार गिरा, जिसका बंधन बाणों के आघात से कट गया था । यद्यपि वह अण्डों के साथ ही गिरा था, तथापि उन्हें चारों और से ढकता हुआ गिरा और धरती में थोडा-थोडा धंस भी गया । इस प्रकार उन अण्डों की बड़े विचित्र ढंग से रक्षा हो गयी । शास्त्रों में ठीक ही कहा है - 'अरक्षितं तिष्ठति देवरक्षितं सुरक्षितं दैवहंत विनाश्यती ।' दैव- भगवान् की आलौकिक शक्ति जिसकी रक्षा में नियुक्त है, उसका भला क्या बिगड़ सकता है । और जिसकी आयु शेष हो चुकी है, उसकी कितनी ही रक्षा की जाय-वह बच नहीं सकता । अस्तु;

युद्ध समाप्त हो गया । अण्डे घंटे के भीतर ही पृथ्वी का और सूर्य का ताप पाकर पाक गये और उनमें से पक्षी शावक निकल आये । इधर दैव की प्रेरणा से एक ऋषि उधर जा निकले । उन्होंने घंटे में से बच्चों कि आवाज सुनकर कौतुहल वश घंटे को उखाड़ लिया और उन बच्चों को अपने आश्रम में लाकर एक सुरक्षित स्थान में रखवा दिया । उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि 'यह कोई सामान्य पक्षी नहीं है । संसार में देवों का अनुकूल होना महान सौभाग्य का सूचक होता है ।' उन्होंने यह भी कहा कि यद्यपि किसी की रक्षा के लिए अधिक प्रयत्न की आश्यकता नहीं है- क्योंकि सभी जीव अपने कर्मों से ही मारे जाते हैं और कर्मों से ही उनकी रक्षा होती है फिर भी मनुष्य को शुभ कार्य के लिए यत्न अवश्य करना चाहिये, क्योंकि पुरषार्थ करने वाला ( असफल होने पर भी ) निन्दा का पात्र नहीं होता । इस प्रकार उन पक्षियों के जन्मवृतान्त से बड़ी सुन्दर शिक्षा मिलाती है ।

 

पक्षियोंके पूर्वजन्म का वृतान्त तथा शरणागतवत्सलता का अपूर्व उदाहरण

पक्षी जब कुछ बड़े हुए, तब वे सहसा मनुष्य कि भाँती बोलने लगे । उन्होंने अपने पालक ऋषि को अपने पूर्वजन्म का वृतान्त सुनाया और अपने पक्षी योनी में आने का कारण भी बताया । उन्हें अपने पूर्वजन्म की बातें भली भांति याद थी । उन्होंने कहा कि वे पूर्व जन्म में ऋषि कुमार थे । उनके पिता बड़े भारी तपस्वी, उदारचेता और इन्द्रियजयी थे । एक दिन की बात है-देवराज इन्द्र उनके परीक्षा के लिए एक विशालकाय वृद्ध पक्षी का रूप धारण कर उनके पास आये और बोले-मुझे बड़ी भूख लगी है । शरणागतवत्सल मुनि के पूछने पर कि उसके लिए कैसे आहार की व्यवस्था की जाय, पक्षी ने बताया कि मुझे मनुष्य का मांस विशेष प्रिय है । ऋषि वचन बद्ध थे, इसलिए उन्होंने अपने वचन का पालन करने के लिए उसी समय अपने चारों पुत्रों को बुलाया और उन्हें आज्ञा दी कि वे अपने शरीर के मांस से पक्षी की क्षुधा को शांत करें । ऋषिकुमार पिता की इस कठोर आज्ञा का पालन करने के लिये तैयार नहीं हुए । इस पर पिता ने उन्हें पक्षी होने का श्राप दिया और स्वयं अपनी अंत्येष्टि क्रिया करके उस पक्षी का आहार बनने के लिये तैयार हो गये । उन्होंने उस समय पक्षी से जो वचन कहे, वह सबके लिये हृदय में धारण करने योग्य है । उन्होंने कहा-ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व इसी में है कि वह अपने वचन का पूर्ण रूप से पालन करे । दक्षिणा युक्त यज्ञों तथा अन्य कर्मों के अनुष्ठान से भी ब्राह्मणों को वह पुन्य नहीं प्राप्त होता,जो सत्य की रक्षा से होता है । तब इन्द्र अपने रूप में प्रकट होकर बोले कि मैंने आपकी परीक्षा के लिये पक्षी का रूप धारण किया था, इसके लिये मुझे क्षमा करें । अतिथिवत्सलता और सत्य की रक्षा के सामान और कोई महान तप नहीं है । सत्य की रक्षा के लिये ऋषि ने अपने प्राणोंपम पुत्रों की भी परवाह नहीं की और अपना शरीर भी अतिथि के अर्पण कर दिया । धन्य त्याग ! आज यह है त्याग कि भावना हमारे देश से उठती जा रही है, इसलिए हमारी यह दुर्दशा हो रही है । जब से हमें धर्म की अपेक्षा प्राण अधिक प्यारे लगने लगे, तभी से हमारा पतन प्रारम्भ हो गया । अस्तु, इस प्रकार यद्यपि पिता के श्राप से वह ऋषिकुमार पक्षी हो गये,फिर भी पिता की कृपा से उन्हें ज्ञान बना रहा और अन्त में उस ज्ञान के बल से उन्होंने परमसिद्ध प्राप्त की ।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक तत्त्वचिन्तामणि ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड ६८३ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]
           



 

बुधवार, 29 अगस्त 2012

ब्रह्मपुराणपर एक विहंगम-दृष्टि (चक्षुस्तिर्थके माहात्म्य प्रसंग )


धर्मनिष्ठा का अपूर्व उदाहरण
                                                                                                                                       चक्षुस्तीर्थ के महात्म्य के प्रसंग में मणिकुण्डल नामक वैश्य का चरित्र बड़ा ही उदात्त है । गौतमी के दक्षिण तट पर भौवन नाम का एक विख्यात नगर था । उसमें गौतम नामका एक ब्राह्मण रहता था । गौतम की एक वैश्य के साथ मित्रता हो गयी । वैश्य का नाम मणिकुण्डल था । इनमें गौतम दरिद्र था, मणिकुण्डल धनि । एक बार गौतम की प्रेरणा से दोनों मित्रों ने धन कमाने के उद्देश्य से विदेश जाने का निश्चय किया । मणिकुण्डल ने अपने घर से बहुत से रत्न लाकर गौतम को दे दिए और कहा-मित्र ! इस धन सें हम लोग सुखपूर्वक देश देशान्तरों में भ्रमण करेंगे और धन कमाकर फिर घर लौट आयेंगे । इस प्रकार आपस में सलाह करके माता-पिता को सुचना दिए बिना ही दोनों घर सें निकल पड़े । किन्तु मणिकुण्डल के रत्नों को देखकर गौतम के मन में पाप समा गया । वह जिस किसी प्रकार उन रत्नों को हड़प जाना चाहता था । एक बार बातों ही बातों में दोनों में परस्पर विवाद छिड़ गया । गौतम कहता था- पाप सें ही जीवों की उन्नति होती है और वे मनोवांछित सुख प्राप्त करते हैं । संस्सर में धर्मात्मा लोग प्राय: दू:खी ही देखे जाते हैं । अत; एक मात्र दुखों को पैदा करनेवाले धर्म सें क्या लाभ । इसके विपरीत वैश्य कहता था- नहीं-नहीं ऐसी बात कदापि नहीं है । वस्तुत: धर्म में ही सुख है । पाप में तो केवल दुःख भय, शोक, दर्द्र्ता और क्लेश ही रहते हैं जहाँ धर्म है, वहीँ मुक्ति है । इस प्रकार विवाद करते हुए दोनों में यह शर्त लगी कि जिसका पक्ष श्रेष्ठ सिद्ध हो, वह दुसरे का धन ले ले । इस प्रकार कि शर्त करके दोनों जो भी मिलता था उससें यही पूछते थे-पृथ्वी पर धर्म बलवान है या अधर्म ? इस पर किसी ने उनसे यह कह दिया-जो धर्मके अनुसार चलते हैं उन्हें दुःख भोगना पड़ता है और इसके विपरीत बड़े-बड़े पापी मनुष्य सुखी देखे जाते हैं । यह निर्णय सुनकर वैश्य ने अपना सारा धन ब्रह्मण को दे दिया, किन्तु मणिकुण्डल कि धर्म में दृढ निष्ठा थी, बाजी हार जाने पर भी वह बराबर धर्म कि ही प्रशंसा करता रहा । तब ब्राहमण ने कहा- अच्छा तो अब दोनों हाथों कि बाजी लगायी जाय । जो जीत जाय, वह दुसरे के हाथ काट ले वैश्य ने यह शर्त भी मंजूर कर ली । फिर दोनों ने जाकर पहले के ही भाँती लौकिक मनुष्य से इसका निर्णय कराया । निर्णय ज्यों का त्यों रहा । तब गौतम ने मणिकुण्डल के दोनों हाथ काट लिए और उससें पूछा- मित्र ! अब क्या कहते हो ? मणिकुण्डल अपने निश्चय पर अटल था उसने कहा-भाई ! मेरे प्राण कन्ठ तक आ जाये, तब भी मैं धर्म को ही श्रेष्ठ मानता रहूँगा । धर्म ही देह धारियों कि माता,पिता,सुहृदय और बंधू है , इस प्रकार दोनों में विवाद चलता रहा । ब्राहमण धनवान हो गया और वैश्य धन के साथ-साथ अपने दोनों हाथ भी खो बैठा । धर्म पर दृढ रहनेवालों को प्रारंभ में इसी प्रकार कष्ट उठाने पड़ते हैं । इस तरह भ्रमण करते हुए दोनों गौतमी गँगा के तट पर भगवान् योगेश्वर के स्थान में आ पहुँचे । वहाँ पहुँचाने पर फिर दोनों में विवाद आरम्भ हो गया । वैश्य वहाँ भी धर्म कि प्रशंसा करता रहा । इससें ब्राहमण को बड़ा क्रोध हुआ । वह वैश्य पर आक्षेप करते हुए बोला-`धन चला गया । दोनों हाथ कट गए । अब केवल तुम्हारे प्राण बाकी है । यदि फिर मेरे मत के विपरीत कोई बात मुंह से निकाली तो मैं तलवार से तुम्हारा सिर उतार लूँगा ।` वैश्य हँसने लगा । उसने पुनः गौतम को चुनौती देते हुए कहा-`मैं तो धर्म को ही बड़ा मानता हूँ, तुम्हारी जो इच्छा हो कर लो । जो ब्राह्मण,गुरु,देवता,वेद,धर्म और भगवान् विष्णु कि निन्दा करता है वह पापचारी मनुष्य पापरूप है वह स्पर्श करने योग्य नहीं है । धर्म को दूषित करनेवाले उस पापात्मा मनुष्य का परित्याग कर देना चाहिये ।तब ब्राह्मण ने कुपित होकर कहा यदि तुम धर्म प्रशंसा करते हो तो हम दोनों के प्राणों की बाजी लग जाय । वैश्य ने कहा ठीक है । फिर दोनों ने साधारण लोगों से प्रश्र्न किया, परन्तु लोगों ने पहले जैसा ही उत्तर दिया ।तब ब्राह्मण ने वहीँ गौतमी के तट पर भगवान् योगेश्वर के सामने वैश्य को गिरा दिया और उसकी आँखे निकाल ली । फिर कहा-वैश्य ! प्रतिदिन धर्म कि प्रशंसा करने सें ही तुम इस दशा को पहुँचे हो ज तुम्हारा धन गया,दोनों हाथ गए, और आँखे भी जाती रही । मित्र ! अब तुमसे विदा लेता हूँ । फिर कभी भूलकर भी धर्म कि प्रशंसा न करना । यों कहकर क्रूर गौतम चला गया ।
धर्मनिष्ठा का अमृतमय फल
गौतम के चले जाने पर वैश्य प्रवर मणिकुण्डल धन,बहु और नेत्रों से रहित होकर शोकग्रस्त हो गया,तथापि वह निरन्तर धर्म का ही स्मरण करता रहा । अनेक प्रकार कि चिंता करते हुए वह भूतल पर निश्चेष्ट होकर पड़ा था उसके ह्रदय में उत्साह नहीं रह गया था । वह शोक सागर में डूबा हुआ था दिन बिता रजनी का आगमन हुआ, और चंद्रमंडल का उदय हो गया । उस दिन शुक्ल पक्ष की एकादशी थी । एकादशी वहाँ लंका से विभीषण आया करते था । उस दिन भी आये आकर उन्होंने पुत्र और राक्षसों सहित गौतमी गँगा में स्नान किया और योगेश्वर भगवान् विष्णु कि विधिपूर्वक पूजा की । विभीषण का पुत्र भी विभीषण के ही सामान धर्मात्मा था । उसे लोग वैभिषणि कहते थे । उसकी दृष्टि वैश्य पर पड़ी । वैश्य का सारा वृतांत जानकार उसने अपने पिता विभीषण से कहा । लंकापति ने कहा-पुत्र! इसी जगह विशल्यकरणी नाम कि औषधि है । उसे ले आकर तुम भगवान् का स्मरण करते हुए इसके ह्रदय पर रख दो । उसका स्पर्श होते ही विअश्य कि आँखे और हाथ फिर ज्यों के त्यों हो जायेंगे । वैभिषणि अपने पिता से औषधि का परिचय प्राप्त कर उसकी एक शाखा ले आये और विभीषण के कथानुसार उसे वैश्य के ह्रदय पर रख दिया । वैश्य तत्काल पुन: हाथ और नेत्रों से युक्त हो गया । मणि, मन्त्र और औषधियों के प्रभाव को कोई नहीं जानता । वैश्य ने धर्म का चिन्तन करते हुए गौतमी गँगा में स्नान किया और योगेश्वर भगवान् विष्णु को नमस्कार करके पुन: आगे बढ़ा । उसने अपने साथ औषधि की टूटी हुयी शाखा भी ले ली थी ।
`यतो धर्मस्ततो जय:`
देश-देशान्तरों में भ्रमण करता हुआ मणिकुण्डल एक राजधानी में पहुँचा,जो महापुर के नाम से विख्यात थी । वहाँ के राजा महराजा के नाम से प्रसिद्धि थे । राजा के कोई पुत्र नहीं था, एक पुत्री थी, उसकी भी आँखे नष्ट हो चुकी थी । राजा ने यह निश्चय कर लिया था कि देवता,दानव,ब्राहमण,क्षत्रिय,वैश्य,शुद्र,निर्गुण या गुणवान-कोई भी क्यूँ ना हो-मैं उसी को यह कन्या दूँगा, जो इसकी आँखे अच्छी कर देगा । कन्या ही नहीं, यह राज्य भी उसीका होगा । महाराज ने यह घोषणा सब और कर दी थी । वैश्य ने यह घोषणा सुनकर कहा- मैं निश्चय ही राजकुमारी कि खोई हुई आँखे पुनः ला दूँगा । राजकर्मचारी शीघ्र ही वैश्य को महाराज के पास ले गया और उसने उस काष्ठ का स्पर्श कराके राजकुमारी के नेत्र ठीक कर दिये । राजा को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने मणिकुण्डल का परिचय पूछा । तब मणिकुण्डल ने अपना सारा वृतान्त राजा से कह सुनाया । राजा ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार कन्या के साथ ही अपना राज्य भी मणिकुण्डल को दे दिया । इस प्रकार मणिकुण्डल को प्रारम्भ में कष्ट होने पर भी अन्त में उसकी धर्मनिष्ठा ने उसे न केवल उसकी आँखे और हाथ ही वापिस दिलाये, अपितु उसें राज्य भी दिलाया । इसलिये शास्त्रों ने कहा है-`यतो धर्मस्ततो जय:` । जहाँ धर्म है,वहाँ विजय होकर रहती है ।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक तत्त्वचिन्तामणि ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका
,कोड ६८३ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]




मंगलवार, 28 अगस्त 2012

भगवन्नाम के प्रभाव पर एक दृष्टान्त


एक बहुत उच्च कोटि के भगवद्भक्त नाम निष्ठां महात्मा थे । उनके समीप उनका एक शिष्य रहता था । एक समय कि बात है कि वे महात्मा कहीं बाहर गये हुए थे, उसी समय उनकी कुटिया पर एक व्यक्ति आया और उसने पूछा- महात्मा जी कहाँ है ? शिष्यों ने कहा – स्वामीजी महाराज तो किसी विशेष कार्यवश बाहर पधारें हैं । आपको कोई काम हो तो कहिये । आगन्तुक ने कहा –मेरा लड़का अत्यधिक बीमार है, उसें कैसे आरोग्य लाभ हो ? महात्माजी कि अनुपस्थिति में आप ही कोई उपाय बताने कि कृपा करें ।
 शिष्य ने उत्तर दिया- एक बहुत सरल उपाय है- राम नाम को तीन बार लिख लें और उसे धोकर पिला दें, बस, इसी से आराम हो जाएगा ।
  आगंतुक अपने घर चला गया । दुसरे दिन वह व्यक्ति बड़ी प्रसन्न मुद्रा से महात्माजी कि कुटिया पर आये । उस समय महात्माजी वहाँ उपस्थित थे । उनके चरणों में साष्टांग प्रणिपात करके उसने विनम्र शब्दों मे हाथ जोड़कर निवेदन किया- स्वामीजी महाराज ! आपके शिष्य तो सिद्धि पुरुष हैं । कल कि बात है, मैं यहाँ आया था, उस समय आप कहीं बाहर पधारे हुए थे, केवल यह आपके शिष्य थे । आपकी अनुपस्थिति में इन्हीं से मैंने अपने प्रिय पुत्र कि रोग निवृत्ति के लिये उपाय पूछा । तब इन्होनें बतलाया कि तीन बार राम नाम लिख लो और उसें धोकर पिला दो । मैंने घर जाकर ठीक उसी प्रकार किया और महान आश्चर्य एवं हर्ष कि बात है कि इस प्रयोग के करते ही लड़का तुरन्त उठ बैठा, मानो उसे कोई रोग था ही नहीं ।  
  यह सुनकर महात्मा अपने शिष्य पर बड़े रुष्ट हुए और उसके हित के लिये क्रोध का नाटक करते हुए बोले- अरे मुर्ख ! इस साधारण सी बिमारी के लिये तुमने राम नाम का तीन बार प्रयोग करवाया । तू नाम कि महिमा तनिक भी नहीं जानता । अरे, एक बार ही नाम का उच्चारण करने सें अनन्त कोटि पापों का और भवरोग का नाश हो जाता है और मनुष्य अनामय परमपद को प्राप्त हो जाता है । तू इस आश्रम में रहने योग्य नहीं । अत: जहाँ तेरी इच्छा हो, चला जा । इस पर शिष्य की आँखों में आंसू आ गये और उसने अपने गुरु सें बहुत अनुनय-विनय की । संत तो नवनीत ह्रदय होते ही हैं, ऊपर सें भी पिघल गये और उसके अपराध को क्षमा कर दिया ।
 इसके पश्चात महात्माजी ने चम्-चम् करता हुआ एक सुन्दर चमकीला पत्थर कहीं से निकाला उसें शिष्य के हाथ में देकर कहा- तू शहर में जाकर इसकी कीमत करा ला । सावधान ! इसे किसी कीमत पर भी बेचना नहीं है, केवल कीमत भर अंकवानी है । कौन क्या कीमत आंकता है, इसे लिख कर लौट आना ।
    शिष्य उसे लेकर बाजार चल दिया सबसें पहले एक साग बेचनेवाली मालिन मिली । उसने उसें पत्थर निकाल कर दिखलाया और पूछा-तू इसकी अधिक से अधिक क्या किम्मत दे सकती है ? साग बेचनेवाली ने पत्थर की चमक और सुन्दरता देखकर सोचा यह बड़ा अच्छा पत्थर है । बच्चों के खेलने के लिये बड़ी सुन्दर वस्तु है । वह बोली- इसकी कीमत मैं सेर डेढ़ सेर मुली,आलू या जो साग तुम्हे पसंद हो, ले सकते हो । बेचना नहीं है कहकर शिष्य आगे बढ़ा तो उसें एक बनिए सें भेंट हुयी । उसने पूछा- सेठजी ! इस पत्थर का मूल्य आप क्या दे सकते हैं ? बनिए ने विचार किया, पत्थर तो बड़ा सुन्दर है तथा चमकीला है और खूब वजनदार भी है । अत: सोना चाँदी तौलने में इसका अच्छा उपयोग हो सकता है । उसने कहा-एक रुपया दे सकता हूँ । उसें इनकार करके शिष्य आगे चला तो एक सुनार की दूकान पर पहुंचा । सुनार ने देखकर विचार किया कि यह तो बड़े काम की चीज है । इसे तोड़कर बहुत से पुखराज बनाये जा सकते हैं । अत: उसने कहा- अधिक से अधिक एक हजार रूपये तक मैं दे सकता हूँ ।
   बेचना नहीं है कहकर शिष्य बड़े उत्साह से अग्रसर हुआ और एक जौहरी कि दूकान पर  पहुंचा । पहले गुरुदेव के पास से चला था, तब तो उसें किसी जौहरी के पास जाने का साहस ही नहीं था, पर ज्यों ज्यों उस पत्थर के मूल्य में वृद्धि होती गयी, त्यों ही त्यों उसका साहस भी बढ़ता गया । अब उसकी दृष्टि भी बदल गयी । उसकी मान्यता जो एक साधारण चमकीले पत्थर की थी, नष्ट हो गयी । जौहरी को दिखलाकर उसकी किम्मत पूछी । जौहरी ने विचार किया तो उसने उसें हीरा समझा और वह उसके मूल्य में एक लाख रूपये देने को तैयार हो गया । परन्तु बेचना तो था ही नहीं । अत; शिष्य उसे भी वही उत्तर देकर उच्च कोटि के जौहरीयों के पास पहुंचा । सबने मिलकर उसकी जांच कि और पांच करोड़ रूपये उसकी किम्मत आँकी । तत्पश्चात वह शिष्य राजा के पास गया । राजा साहेब ने शिष्य को बड़े आदर सें बैठाया और मुख्य-मुख्य सभी बड़े जौहरियों को बुलाकर उस रत्न का मूल्य आंकने के लिये कहा । सबने विचार विमर्श के अनन्तर आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा-महाराज ! हमने तो ऐसा रत्न देखा ही नहीं । इसलिये इसकी कीमत आँकना हम लोगों कि बुद्धि से परे कि बात है । हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि यदि आप अपना सम्पूर्ण राज्य भी दे दें तो वह भी इसके मूल्य में प्रयाप्त नहीं ।
  महाराज ने शिष्य से पूछा-ऐसा अनुपम रत्न तुम्हे कैसें मिला ? शिष्य ने उत्तर देते हुए कहा- इसे मेरे गुरुदेव ने मुझे देकर केवल मूल्य अंकवाने के लिये ही भेजा है, पर बेचने कि आज्ञा नहीं दी है । राजा साहेब ने बड़े विनम्र शब्दों में कहा-इसका मूल्य मेरे राज्य सें भी अधिक है । यदि तुम्हारे गुरूजी इसे बेचना चाहे तो इसके बदले मैं अपना सारा राज्य सहर्ष दे सकता हूँ । तुम पूज्य स्वामीजी से पूछ लेना । स्वामीजी उच्च कोटि के महात्मा है, इस बात को सभी जानते थे । अत: सबने बड़े आदर सत्कार के साथ उस शिष्य को वहाँ से विदा किया ।
 शिष्य ने महात्माजी के पास लौटकर सारी कहानी उन्हें सुना दी और अन्त में कहा गुरुदेव ! मेरी तुच्छ सम्मति तो यह है कि जब राजा साहेब इसके मूल्य में अपना सारा राज्य दे ही रहे हैं, तब तो इसे बेच ही डालना चाहीये । महात्मा जी बोले-इसके मूल्य में राज्य भी कोई वस्तु नहीं । अभी तक इसके अनुरूप इसकी कीमत नहीं आँकी गई । शिष्य ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा-राज्य से बढ़कर और कीमत हो ही क्या सकती है ? महात्माजी ने कहा-यहाँ कोई लोहे कि बनी वस्तु मिल सकेगी क्या ? शिष्य ने उत्तर दिया-जी हाँ, आश्रम में कुछ यात्री आये हुए हैं, उनके पास तवा,चिमटा,संड़सी आदि लोहे के पर्याप्त बर्तन है । आज्ञा हो तो उनमें से कुछ ले आऊं ? महात्माजी ने कहा- हाँ ले आओ ।
 शिष्य कई लौह-निर्मित वस्तुए ले आया । महात्माजी ने ज्यों ही उनसे पत्थर का सपर्श करवाया, त्यों ही वे सारे लौह पात्र देखते ही देखते शुद्ध सोने के बन गए । यह देखकर शिष्य को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने चकित होकर पूछा- यह तो बड़ी विलक्षण वस्तु है,यह क्या है, गुरदेव ? महात्माजी ने उत्तर दिया- यह एक स्पर्शमणि (पारसपत्थर) है, जिसके स्पर्श मात्र से ही लौहा सोना बन जाया करता है । भला, अब तू ही बता कि इसकी किम्मत कितनी होनी चाहिये । शिष्य बोला- संसार में अधिक से अधिक कीमत सोने कि ठहराई जाती है और वह कीमत इससे उत्पन्न होती है फिर इसका मूल्य कैसे आँका जाय ।
 महात्माजी- भगवन्नाम का मूल्य तो इससे भी बढ़कर है । क्योंकि यह पारस तो जड़ पदार्थ है, इससे केवल जड़ पदार्थों की ही प्राप्ति हो सकती है, सच्चिदानन्द परमात्मा की नहीं । अत: किसी भी सांसारिक पदार्थ के साथ भगवान् के नाम कि तुलना करना सर्वथा अनुचित है इनकी तुलना करने वाला पारस तो सेर डेढ़ सेर मुली.आलू,के शाक में बेचने की मुर्खता करने वाले से कम मुर्ख नहीं है । जिस प्रकार पारस को न पहचानने वाला व्यक्ति उससे तुच्छ पदार्थ लेकर सदा कंगाल बना रहता है, उसी प्रकार राम नाम के महत्व को न जानने वाला भी प्रेम और भक्ति कि दृष्टि से सदैव दरिद्र ही रहता है । तू भगवान् नाम के प्रभाव और तत्व रहस्य को नहीं जानत, इसीलिए एक साधारण से रोग के लिये तुने राम नाम का तीन बार प्रयोग कराया । जिस नाम के प्रभाव से भयंकर भव रोग मिट जाता है, उसे मामूली रोग नाश के लिए उपयोग में लाना सर्वथा अज्ञता है । तेरी इस अज्ञता को मिटाने के लिए ही तुझे पारस देकर भेजा था । यह सुनकर शिष्य भगवन्नाम का प्रभाव समझ गया और अपनी भूल के लिए बार-बार क्षमा याचना करने लगा ।
   इस कहानी से हम लोगों को यह शिक्षा मिलाती है कि पारस के प्रभाव से अनभिज्ञ व्यक्ति को यदि पारस मिल जाय तो वह उसे अज्ञतावश दो-चार रूपये में ही बेच सकता है । यदि वे महात्मा शिष्य को ठीक मूल्य पर पारस बेचने को कह देते तो वह अधिक से अधिक पाँच-सात सेर आलू या एक दो रूपये में अवश्य बेच आता और इसे ही वह अधिक मूल्य समझता । इसी प्रकार जो मनुष्य भगवान् नाम के प्रभाव को नहीं जानते, वह उसे स्त्री,पुत्र,धन आदि के बदले में बेच डालते हैं ।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि । श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड
 ६८३,गीता प्रेस गोरखपुर ]
 

सोमवार, 27 अगस्त 2012

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम






प्रजारन्जकता
      श्रीरामचन्द्रजी मे प्रजा को हर तरह से प्रसन्न रखने का गुण भी बड़ा ही आदर्श था वे अपनी प्रजाका पुत्रसे भी बढ़कर वात्सल्यप्रेम से पालन करते थे सदा-सर्वदा उनके हितमें रत रहते थे यही कारण था कि अयोध्यावासियों का उनपर अद्भुत प्रेम था
   श्रीराम के वनगमन का, चित्रकूट मे भरत के साथ प्रजा से मिलाने का और परमधाम में पधारने के समयका वर्णन पढ़ने से पता चलता है कि आरम्भ से लेकर अन्त तक प्रजा के छोटे-बड़े सभी पुरुषों का श्रीराम में बड़ा ही अद्भुत प्रेम था वे हर हालत में श्रीराम के लिये प्राण न्योछावर करने को तैयार रहते थे उन्हें भगवान् राम का वियोग असह्य हो गया था
         जब श्रीरामचन्द्रजी वनमें जाने लगे, तब प्रजा के अधिकांश लोग प्रेममें पागल होकर उनके साथ हो लिये भगवान् श्रीरामने बहुत-कुछ अनुनय-विनय कि; किन्तु चेष्टा करनेपर भी प्रजा को लौटा नहीं सके आखिर उन्हें सोते हुए छोड़कर ही श्रीराम को वनमें जाना पड़ा उस समय के वर्णन में यह भी कहा गया है कि पशु-पक्षी भी उनके प्रेम  में मुग्ध थे उनके लिये श्रीराम का वियोग असह्य था परमधाम मे पधारते समय का वर्णन भी ऐसा ही अद्भुत है
     इसके सिवा जिस सीताके वियोग में श्रीराम ने एक साधारण विरह-व्याकुल कामी मनुष्य कि भाँती पागल होकर विलाप किया था, उसी सीताको-यध्यपि वह निर्दोष और पति-परायणा थीं तो भी, प्रजा कि प्रसन्नता के लिये त्याग दिया इससे भी उनकी प्रजारन्जकता का आदर्श भाव व्यक्त होता है

     श्रीराम का महत्व

 श्रीरामचन्द्रजी साक्षात् पूर्णब्रह्म परमात्मा भगवान् विष्णुके अवतार थे, यह बात वाल्मीकीय रामायण मे जगह-जगह कही गयी है जब सब्सर मे रावण का उपद्रव बहुत बढ़ गया, देवता और ऋषिगण बहुत दू:खी हो गये, तन उन्होंने जाकर ब्रह्मा से प्रार्थना कि पितामह ब्रह्मा देवताओं को धीरज बंधा रहे थे, उसी समय भगवान् विष्णुके प्रकट होने का वर्णन इस प्रकार आता है—
एतस्मिन्नन्तरे       विष्णुरूप्यातो     महाध्युति:
शंखचक्रगदापाणी:      पीतवासा       जगत्पतिः ।।
वैनतेयं   समारुह्य     भास्करस्तोयदं       यथा
तप्तहाटककेयू    वंध्यमान:           सुरोत्तमै: ।।
(वा०रा० १।१५।१६-१७ )
       इतने मे ही महान तेजस्वी उत्तम देवताओं द्वारा वन्दनीय जगत्पति भगवान् विष्णु मेघ पर चढ़े हुए सूर्य के समान गरुडपर सवार हो वहाँ आ पहुँचे । उनके शरीर पर पीताम्बर तथा हाथों में शँख, चक्र, और गदा आदि आयुध एवं चमकीले स्वर्ण के बाजूबंद शोभा पा रहे थे ।
    इसके बाद देवताओं की प्रार्थना सुनकर भगवान् ने राजा दशरथ के घर मनुष्यरूप में अवतार लेना स्वीकार किया । फिर वहीँ अन्तर्धान हो गये ।
   श्रीरामचन्द्रजीका विवाह होने के बाद जब वे अयोध्या को लौट रहे थे, उस समय रास्ते में परशुरामजी मिले । श्रीराम विष्णु के अवतार है या नहीं—इसकी परीक्षा करने के लिये उन्होंने श्रीराम से भगवान् विष्णु के धनुष पर बाण चढाने के लिये कहा, तब श्रीरामचन्द्रजी ने तुरन्त ही उनके हाथ से दिव्य धनुष लेकर उस पर बाण चढ़ा दिया और कहा--`यह दिव्य वैष्णव बाण है । इसे कहाँ छोड़ा जाय ?` यह देख-सुनकर परशुरामजी चकित हो गये । उनका तेज श्रीराम मे जा मिला । उस समय श्रीरामकी स्तुति करते हुए परशुरामजी कहते हैं-
अक्षय्यं   मधुहन्तारं  जानामि त्वां सुरेश्र्वरम ।
धनुषोऽस्य  परामर्शात स्वस्ति तेऽस्तू परंतप ।।
 `शत्रुतापन राम !  आपका कल्याण हो । इस धनुष के चढाने सें मैं जान गया कि आप मधु-दैत्य को मारनेवाले, देवताओं के स्वामी, साक्षात् अविनाशी विष्णु है । इस प्रकार श्रीराम के प्रभाव का वर्णन करके और उनकी प्रदक्षिणा करके परशुरामजी चले गये ।
  रावण का वध हो जाने के बाद जब ब्रह्मा सहित देवता लोग श्रीरामचन्द्रजी के पास आये और उनसें बातचीत करते हुए श्रीरामने यह कहा कि मैं तो अपने को दशरथजी के पुत्र राम नाम का मनुष्य ही समझता हूँ । मैं जो हूँ, जहाँसे आया हूँ ---यह आप लोग ही बताएं । इस पर ब्रह्माजी ने सबके सामने सम्पूर्ण रहस्य खोल दिया । वहाँ राम के महत्व का वर्णन करते हुए ब्रह्माजी कहते हैं--
भवान्नारायणो    देव:   श्रीमांश्र्चक्रायुध:   प्रभु: ।
एक्श्रिंगे        वराह्स्त्वं    भूतभव्यपत्नजित ।।
अक्षरं  ब्रह्म  सत्यं   मध्ये चान्ते   राघव ।
लोकानां  त्वं  परो   धर्मो  विष्वक्सेनश्र्चतुर्भुज: ।।
शार्न्गधन्वा    हृषीकेशः     पुरुषः  पुरुषोत्तमः ।
अजित:  खड्गधृग्   विष्णुः कृष्णश्र्चैव वृहदबल:।।
(वा०रा० ६।११७।१३-१५। )
  `आप साक्षात् चक्रपाणि लक्ष्मीपति प्रभु श्रीनारायण देव हैं । आप ही भुत-भविष्य के शत्रुओं को जिताने  वाले और एक श्रन्ग्धारी वराह भगवान् है राघव ! आप आदि, मध्य और अन्त में सत्यस्वरूप अविनाशी ब्रह्मा हैं । आप सम्पूर्ण लोकों के परमधर्म चतुर्भुज विष्णु हैं । आप ही अजित, पुरुष, पुरुषोत्तम, हृषिकेश शार्न्ग धनुष वाले खडगधारी विष्णु है और आप ही महाबलवान कृष्ण हैं ।
 इसी तरह और भी बहुत कुछ कहा है । वही राजा दशरथ भी लक्ष्मण के साथ बातचीत कृते समय श्रीराम कि सेवा का महत्व बतलाकर कहते हैं----`सौम्य ! यह परन्तम राम साक्षात् वेदवर्णित अविनाशी अव्युक्त ब्रह्मा है । यह देवों के हृदय और परम रहस्यमय है । जनक नन्न्दिनी   सीता के सहित इनकी सावधानी पूर्वक सेवा करके तुमने पवित्र धर्म का आचरण और बड़े भारी यश का लाभ किया है ।`
 इसके सिवा और भी अनेक बार ब्रह्माजी,देवता और महाऋषियों ने श्रीराम के अमित प्रभाव का यथा साध्य वर्णन किया है । मनुष्य-लीला समाप्त करके परमधाम में पधारने के प्रसंग में भी यह बात सपष्ट कर दि गयी है कि श्रीराम साक्षात् पूर्ण ब्रह्मा परमेश्वर थे । अत: वाल्मीकीय रामायण को प्रमाणिक ग्रन्थ मानने वाला कोई भी मनुष्य श्रीराम के ईश्वर होने में शँका कर सके, ऐसी गुंजाइश नहीं है ।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक तत्व-चिन्तामणि ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड ६८३ ,गीता प्रेस गोरखपुर ] शेष अगले ब्लॉग में....