※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

भगवन्नाम के प्रभाव पर एक दृष्टान्त


एक बहुत उच्च कोटि के भगवद्भक्त नाम निष्ठां महात्मा थे । उनके समीप उनका एक शिष्य रहता था । एक समय कि बात है कि वे महात्मा कहीं बाहर गये हुए थे, उसी समय उनकी कुटिया पर एक व्यक्ति आया और उसने पूछा- महात्मा जी कहाँ है ? शिष्यों ने कहा – स्वामीजी महाराज तो किसी विशेष कार्यवश बाहर पधारें हैं । आपको कोई काम हो तो कहिये । आगन्तुक ने कहा –मेरा लड़का अत्यधिक बीमार है, उसें कैसे आरोग्य लाभ हो ? महात्माजी कि अनुपस्थिति में आप ही कोई उपाय बताने कि कृपा करें ।
 शिष्य ने उत्तर दिया- एक बहुत सरल उपाय है- राम नाम को तीन बार लिख लें और उसे धोकर पिला दें, बस, इसी से आराम हो जाएगा ।
  आगंतुक अपने घर चला गया । दुसरे दिन वह व्यक्ति बड़ी प्रसन्न मुद्रा से महात्माजी कि कुटिया पर आये । उस समय महात्माजी वहाँ उपस्थित थे । उनके चरणों में साष्टांग प्रणिपात करके उसने विनम्र शब्दों मे हाथ जोड़कर निवेदन किया- स्वामीजी महाराज ! आपके शिष्य तो सिद्धि पुरुष हैं । कल कि बात है, मैं यहाँ आया था, उस समय आप कहीं बाहर पधारे हुए थे, केवल यह आपके शिष्य थे । आपकी अनुपस्थिति में इन्हीं से मैंने अपने प्रिय पुत्र कि रोग निवृत्ति के लिये उपाय पूछा । तब इन्होनें बतलाया कि तीन बार राम नाम लिख लो और उसें धोकर पिला दो । मैंने घर जाकर ठीक उसी प्रकार किया और महान आश्चर्य एवं हर्ष कि बात है कि इस प्रयोग के करते ही लड़का तुरन्त उठ बैठा, मानो उसे कोई रोग था ही नहीं ।  
  यह सुनकर महात्मा अपने शिष्य पर बड़े रुष्ट हुए और उसके हित के लिये क्रोध का नाटक करते हुए बोले- अरे मुर्ख ! इस साधारण सी बिमारी के लिये तुमने राम नाम का तीन बार प्रयोग करवाया । तू नाम कि महिमा तनिक भी नहीं जानता । अरे, एक बार ही नाम का उच्चारण करने सें अनन्त कोटि पापों का और भवरोग का नाश हो जाता है और मनुष्य अनामय परमपद को प्राप्त हो जाता है । तू इस आश्रम में रहने योग्य नहीं । अत: जहाँ तेरी इच्छा हो, चला जा । इस पर शिष्य की आँखों में आंसू आ गये और उसने अपने गुरु सें बहुत अनुनय-विनय की । संत तो नवनीत ह्रदय होते ही हैं, ऊपर सें भी पिघल गये और उसके अपराध को क्षमा कर दिया ।
 इसके पश्चात महात्माजी ने चम्-चम् करता हुआ एक सुन्दर चमकीला पत्थर कहीं से निकाला उसें शिष्य के हाथ में देकर कहा- तू शहर में जाकर इसकी कीमत करा ला । सावधान ! इसे किसी कीमत पर भी बेचना नहीं है, केवल कीमत भर अंकवानी है । कौन क्या कीमत आंकता है, इसे लिख कर लौट आना ।
    शिष्य उसे लेकर बाजार चल दिया सबसें पहले एक साग बेचनेवाली मालिन मिली । उसने उसें पत्थर निकाल कर दिखलाया और पूछा-तू इसकी अधिक से अधिक क्या किम्मत दे सकती है ? साग बेचनेवाली ने पत्थर की चमक और सुन्दरता देखकर सोचा यह बड़ा अच्छा पत्थर है । बच्चों के खेलने के लिये बड़ी सुन्दर वस्तु है । वह बोली- इसकी कीमत मैं सेर डेढ़ सेर मुली,आलू या जो साग तुम्हे पसंद हो, ले सकते हो । बेचना नहीं है कहकर शिष्य आगे बढ़ा तो उसें एक बनिए सें भेंट हुयी । उसने पूछा- सेठजी ! इस पत्थर का मूल्य आप क्या दे सकते हैं ? बनिए ने विचार किया, पत्थर तो बड़ा सुन्दर है तथा चमकीला है और खूब वजनदार भी है । अत: सोना चाँदी तौलने में इसका अच्छा उपयोग हो सकता है । उसने कहा-एक रुपया दे सकता हूँ । उसें इनकार करके शिष्य आगे चला तो एक सुनार की दूकान पर पहुंचा । सुनार ने देखकर विचार किया कि यह तो बड़े काम की चीज है । इसे तोड़कर बहुत से पुखराज बनाये जा सकते हैं । अत: उसने कहा- अधिक से अधिक एक हजार रूपये तक मैं दे सकता हूँ ।
   बेचना नहीं है कहकर शिष्य बड़े उत्साह से अग्रसर हुआ और एक जौहरी कि दूकान पर  पहुंचा । पहले गुरुदेव के पास से चला था, तब तो उसें किसी जौहरी के पास जाने का साहस ही नहीं था, पर ज्यों ज्यों उस पत्थर के मूल्य में वृद्धि होती गयी, त्यों ही त्यों उसका साहस भी बढ़ता गया । अब उसकी दृष्टि भी बदल गयी । उसकी मान्यता जो एक साधारण चमकीले पत्थर की थी, नष्ट हो गयी । जौहरी को दिखलाकर उसकी किम्मत पूछी । जौहरी ने विचार किया तो उसने उसें हीरा समझा और वह उसके मूल्य में एक लाख रूपये देने को तैयार हो गया । परन्तु बेचना तो था ही नहीं । अत; शिष्य उसे भी वही उत्तर देकर उच्च कोटि के जौहरीयों के पास पहुंचा । सबने मिलकर उसकी जांच कि और पांच करोड़ रूपये उसकी किम्मत आँकी । तत्पश्चात वह शिष्य राजा के पास गया । राजा साहेब ने शिष्य को बड़े आदर सें बैठाया और मुख्य-मुख्य सभी बड़े जौहरियों को बुलाकर उस रत्न का मूल्य आंकने के लिये कहा । सबने विचार विमर्श के अनन्तर आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा-महाराज ! हमने तो ऐसा रत्न देखा ही नहीं । इसलिये इसकी कीमत आँकना हम लोगों कि बुद्धि से परे कि बात है । हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि यदि आप अपना सम्पूर्ण राज्य भी दे दें तो वह भी इसके मूल्य में प्रयाप्त नहीं ।
  महाराज ने शिष्य से पूछा-ऐसा अनुपम रत्न तुम्हे कैसें मिला ? शिष्य ने उत्तर देते हुए कहा- इसे मेरे गुरुदेव ने मुझे देकर केवल मूल्य अंकवाने के लिये ही भेजा है, पर बेचने कि आज्ञा नहीं दी है । राजा साहेब ने बड़े विनम्र शब्दों में कहा-इसका मूल्य मेरे राज्य सें भी अधिक है । यदि तुम्हारे गुरूजी इसे बेचना चाहे तो इसके बदले मैं अपना सारा राज्य सहर्ष दे सकता हूँ । तुम पूज्य स्वामीजी से पूछ लेना । स्वामीजी उच्च कोटि के महात्मा है, इस बात को सभी जानते थे । अत: सबने बड़े आदर सत्कार के साथ उस शिष्य को वहाँ से विदा किया ।
 शिष्य ने महात्माजी के पास लौटकर सारी कहानी उन्हें सुना दी और अन्त में कहा गुरुदेव ! मेरी तुच्छ सम्मति तो यह है कि जब राजा साहेब इसके मूल्य में अपना सारा राज्य दे ही रहे हैं, तब तो इसे बेच ही डालना चाहीये । महात्मा जी बोले-इसके मूल्य में राज्य भी कोई वस्तु नहीं । अभी तक इसके अनुरूप इसकी कीमत नहीं आँकी गई । शिष्य ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा-राज्य से बढ़कर और कीमत हो ही क्या सकती है ? महात्माजी ने कहा-यहाँ कोई लोहे कि बनी वस्तु मिल सकेगी क्या ? शिष्य ने उत्तर दिया-जी हाँ, आश्रम में कुछ यात्री आये हुए हैं, उनके पास तवा,चिमटा,संड़सी आदि लोहे के पर्याप्त बर्तन है । आज्ञा हो तो उनमें से कुछ ले आऊं ? महात्माजी ने कहा- हाँ ले आओ ।
 शिष्य कई लौह-निर्मित वस्तुए ले आया । महात्माजी ने ज्यों ही उनसे पत्थर का सपर्श करवाया, त्यों ही वे सारे लौह पात्र देखते ही देखते शुद्ध सोने के बन गए । यह देखकर शिष्य को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने चकित होकर पूछा- यह तो बड़ी विलक्षण वस्तु है,यह क्या है, गुरदेव ? महात्माजी ने उत्तर दिया- यह एक स्पर्शमणि (पारसपत्थर) है, जिसके स्पर्श मात्र से ही लौहा सोना बन जाया करता है । भला, अब तू ही बता कि इसकी किम्मत कितनी होनी चाहिये । शिष्य बोला- संसार में अधिक से अधिक कीमत सोने कि ठहराई जाती है और वह कीमत इससे उत्पन्न होती है फिर इसका मूल्य कैसे आँका जाय ।
 महात्माजी- भगवन्नाम का मूल्य तो इससे भी बढ़कर है । क्योंकि यह पारस तो जड़ पदार्थ है, इससे केवल जड़ पदार्थों की ही प्राप्ति हो सकती है, सच्चिदानन्द परमात्मा की नहीं । अत: किसी भी सांसारिक पदार्थ के साथ भगवान् के नाम कि तुलना करना सर्वथा अनुचित है इनकी तुलना करने वाला पारस तो सेर डेढ़ सेर मुली.आलू,के शाक में बेचने की मुर्खता करने वाले से कम मुर्ख नहीं है । जिस प्रकार पारस को न पहचानने वाला व्यक्ति उससे तुच्छ पदार्थ लेकर सदा कंगाल बना रहता है, उसी प्रकार राम नाम के महत्व को न जानने वाला भी प्रेम और भक्ति कि दृष्टि से सदैव दरिद्र ही रहता है । तू भगवान् नाम के प्रभाव और तत्व रहस्य को नहीं जानत, इसीलिए एक साधारण से रोग के लिये तुने राम नाम का तीन बार प्रयोग कराया । जिस नाम के प्रभाव से भयंकर भव रोग मिट जाता है, उसे मामूली रोग नाश के लिए उपयोग में लाना सर्वथा अज्ञता है । तेरी इस अज्ञता को मिटाने के लिए ही तुझे पारस देकर भेजा था । यह सुनकर शिष्य भगवन्नाम का प्रभाव समझ गया और अपनी भूल के लिए बार-बार क्षमा याचना करने लगा ।
   इस कहानी से हम लोगों को यह शिक्षा मिलाती है कि पारस के प्रभाव से अनभिज्ञ व्यक्ति को यदि पारस मिल जाय तो वह उसे अज्ञतावश दो-चार रूपये में ही बेच सकता है । यदि वे महात्मा शिष्य को ठीक मूल्य पर पारस बेचने को कह देते तो वह अधिक से अधिक पाँच-सात सेर आलू या एक दो रूपये में अवश्य बेच आता और इसे ही वह अधिक मूल्य समझता । इसी प्रकार जो मनुष्य भगवान् नाम के प्रभाव को नहीं जानते, वह उसे स्त्री,पुत्र,धन आदि के बदले में बेच डालते हैं ।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि । श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड
 ६८३,गीता प्रेस गोरखपुर ]