※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 29 अगस्त 2012

ब्रह्मपुराणपर एक विहंगम-दृष्टि (चक्षुस्तिर्थके माहात्म्य प्रसंग )


धर्मनिष्ठा का अपूर्व उदाहरण
                                                                                                                                       चक्षुस्तीर्थ के महात्म्य के प्रसंग में मणिकुण्डल नामक वैश्य का चरित्र बड़ा ही उदात्त है । गौतमी के दक्षिण तट पर भौवन नाम का एक विख्यात नगर था । उसमें गौतम नामका एक ब्राह्मण रहता था । गौतम की एक वैश्य के साथ मित्रता हो गयी । वैश्य का नाम मणिकुण्डल था । इनमें गौतम दरिद्र था, मणिकुण्डल धनि । एक बार गौतम की प्रेरणा से दोनों मित्रों ने धन कमाने के उद्देश्य से विदेश जाने का निश्चय किया । मणिकुण्डल ने अपने घर से बहुत से रत्न लाकर गौतम को दे दिए और कहा-मित्र ! इस धन सें हम लोग सुखपूर्वक देश देशान्तरों में भ्रमण करेंगे और धन कमाकर फिर घर लौट आयेंगे । इस प्रकार आपस में सलाह करके माता-पिता को सुचना दिए बिना ही दोनों घर सें निकल पड़े । किन्तु मणिकुण्डल के रत्नों को देखकर गौतम के मन में पाप समा गया । वह जिस किसी प्रकार उन रत्नों को हड़प जाना चाहता था । एक बार बातों ही बातों में दोनों में परस्पर विवाद छिड़ गया । गौतम कहता था- पाप सें ही जीवों की उन्नति होती है और वे मनोवांछित सुख प्राप्त करते हैं । संस्सर में धर्मात्मा लोग प्राय: दू:खी ही देखे जाते हैं । अत; एक मात्र दुखों को पैदा करनेवाले धर्म सें क्या लाभ । इसके विपरीत वैश्य कहता था- नहीं-नहीं ऐसी बात कदापि नहीं है । वस्तुत: धर्म में ही सुख है । पाप में तो केवल दुःख भय, शोक, दर्द्र्ता और क्लेश ही रहते हैं जहाँ धर्म है, वहीँ मुक्ति है । इस प्रकार विवाद करते हुए दोनों में यह शर्त लगी कि जिसका पक्ष श्रेष्ठ सिद्ध हो, वह दुसरे का धन ले ले । इस प्रकार कि शर्त करके दोनों जो भी मिलता था उससें यही पूछते थे-पृथ्वी पर धर्म बलवान है या अधर्म ? इस पर किसी ने उनसे यह कह दिया-जो धर्मके अनुसार चलते हैं उन्हें दुःख भोगना पड़ता है और इसके विपरीत बड़े-बड़े पापी मनुष्य सुखी देखे जाते हैं । यह निर्णय सुनकर वैश्य ने अपना सारा धन ब्रह्मण को दे दिया, किन्तु मणिकुण्डल कि धर्म में दृढ निष्ठा थी, बाजी हार जाने पर भी वह बराबर धर्म कि ही प्रशंसा करता रहा । तब ब्राहमण ने कहा- अच्छा तो अब दोनों हाथों कि बाजी लगायी जाय । जो जीत जाय, वह दुसरे के हाथ काट ले वैश्य ने यह शर्त भी मंजूर कर ली । फिर दोनों ने जाकर पहले के ही भाँती लौकिक मनुष्य से इसका निर्णय कराया । निर्णय ज्यों का त्यों रहा । तब गौतम ने मणिकुण्डल के दोनों हाथ काट लिए और उससें पूछा- मित्र ! अब क्या कहते हो ? मणिकुण्डल अपने निश्चय पर अटल था उसने कहा-भाई ! मेरे प्राण कन्ठ तक आ जाये, तब भी मैं धर्म को ही श्रेष्ठ मानता रहूँगा । धर्म ही देह धारियों कि माता,पिता,सुहृदय और बंधू है , इस प्रकार दोनों में विवाद चलता रहा । ब्राहमण धनवान हो गया और वैश्य धन के साथ-साथ अपने दोनों हाथ भी खो बैठा । धर्म पर दृढ रहनेवालों को प्रारंभ में इसी प्रकार कष्ट उठाने पड़ते हैं । इस तरह भ्रमण करते हुए दोनों गौतमी गँगा के तट पर भगवान् योगेश्वर के स्थान में आ पहुँचे । वहाँ पहुँचाने पर फिर दोनों में विवाद आरम्भ हो गया । वैश्य वहाँ भी धर्म कि प्रशंसा करता रहा । इससें ब्राहमण को बड़ा क्रोध हुआ । वह वैश्य पर आक्षेप करते हुए बोला-`धन चला गया । दोनों हाथ कट गए । अब केवल तुम्हारे प्राण बाकी है । यदि फिर मेरे मत के विपरीत कोई बात मुंह से निकाली तो मैं तलवार से तुम्हारा सिर उतार लूँगा ।` वैश्य हँसने लगा । उसने पुनः गौतम को चुनौती देते हुए कहा-`मैं तो धर्म को ही बड़ा मानता हूँ, तुम्हारी जो इच्छा हो कर लो । जो ब्राह्मण,गुरु,देवता,वेद,धर्म और भगवान् विष्णु कि निन्दा करता है वह पापचारी मनुष्य पापरूप है वह स्पर्श करने योग्य नहीं है । धर्म को दूषित करनेवाले उस पापात्मा मनुष्य का परित्याग कर देना चाहिये ।तब ब्राह्मण ने कुपित होकर कहा यदि तुम धर्म प्रशंसा करते हो तो हम दोनों के प्राणों की बाजी लग जाय । वैश्य ने कहा ठीक है । फिर दोनों ने साधारण लोगों से प्रश्र्न किया, परन्तु लोगों ने पहले जैसा ही उत्तर दिया ।तब ब्राह्मण ने वहीँ गौतमी के तट पर भगवान् योगेश्वर के सामने वैश्य को गिरा दिया और उसकी आँखे निकाल ली । फिर कहा-वैश्य ! प्रतिदिन धर्म कि प्रशंसा करने सें ही तुम इस दशा को पहुँचे हो ज तुम्हारा धन गया,दोनों हाथ गए, और आँखे भी जाती रही । मित्र ! अब तुमसे विदा लेता हूँ । फिर कभी भूलकर भी धर्म कि प्रशंसा न करना । यों कहकर क्रूर गौतम चला गया ।
धर्मनिष्ठा का अमृतमय फल
गौतम के चले जाने पर वैश्य प्रवर मणिकुण्डल धन,बहु और नेत्रों से रहित होकर शोकग्रस्त हो गया,तथापि वह निरन्तर धर्म का ही स्मरण करता रहा । अनेक प्रकार कि चिंता करते हुए वह भूतल पर निश्चेष्ट होकर पड़ा था उसके ह्रदय में उत्साह नहीं रह गया था । वह शोक सागर में डूबा हुआ था दिन बिता रजनी का आगमन हुआ, और चंद्रमंडल का उदय हो गया । उस दिन शुक्ल पक्ष की एकादशी थी । एकादशी वहाँ लंका से विभीषण आया करते था । उस दिन भी आये आकर उन्होंने पुत्र और राक्षसों सहित गौतमी गँगा में स्नान किया और योगेश्वर भगवान् विष्णु कि विधिपूर्वक पूजा की । विभीषण का पुत्र भी विभीषण के ही सामान धर्मात्मा था । उसे लोग वैभिषणि कहते थे । उसकी दृष्टि वैश्य पर पड़ी । वैश्य का सारा वृतांत जानकार उसने अपने पिता विभीषण से कहा । लंकापति ने कहा-पुत्र! इसी जगह विशल्यकरणी नाम कि औषधि है । उसे ले आकर तुम भगवान् का स्मरण करते हुए इसके ह्रदय पर रख दो । उसका स्पर्श होते ही विअश्य कि आँखे और हाथ फिर ज्यों के त्यों हो जायेंगे । वैभिषणि अपने पिता से औषधि का परिचय प्राप्त कर उसकी एक शाखा ले आये और विभीषण के कथानुसार उसे वैश्य के ह्रदय पर रख दिया । वैश्य तत्काल पुन: हाथ और नेत्रों से युक्त हो गया । मणि, मन्त्र और औषधियों के प्रभाव को कोई नहीं जानता । वैश्य ने धर्म का चिन्तन करते हुए गौतमी गँगा में स्नान किया और योगेश्वर भगवान् विष्णु को नमस्कार करके पुन: आगे बढ़ा । उसने अपने साथ औषधि की टूटी हुयी शाखा भी ले ली थी ।
`यतो धर्मस्ततो जय:`
देश-देशान्तरों में भ्रमण करता हुआ मणिकुण्डल एक राजधानी में पहुँचा,जो महापुर के नाम से विख्यात थी । वहाँ के राजा महराजा के नाम से प्रसिद्धि थे । राजा के कोई पुत्र नहीं था, एक पुत्री थी, उसकी भी आँखे नष्ट हो चुकी थी । राजा ने यह निश्चय कर लिया था कि देवता,दानव,ब्राहमण,क्षत्रिय,वैश्य,शुद्र,निर्गुण या गुणवान-कोई भी क्यूँ ना हो-मैं उसी को यह कन्या दूँगा, जो इसकी आँखे अच्छी कर देगा । कन्या ही नहीं, यह राज्य भी उसीका होगा । महाराज ने यह घोषणा सब और कर दी थी । वैश्य ने यह घोषणा सुनकर कहा- मैं निश्चय ही राजकुमारी कि खोई हुई आँखे पुनः ला दूँगा । राजकर्मचारी शीघ्र ही वैश्य को महाराज के पास ले गया और उसने उस काष्ठ का स्पर्श कराके राजकुमारी के नेत्र ठीक कर दिये । राजा को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने मणिकुण्डल का परिचय पूछा । तब मणिकुण्डल ने अपना सारा वृतान्त राजा से कह सुनाया । राजा ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार कन्या के साथ ही अपना राज्य भी मणिकुण्डल को दे दिया । इस प्रकार मणिकुण्डल को प्रारम्भ में कष्ट होने पर भी अन्त में उसकी धर्मनिष्ठा ने उसे न केवल उसकी आँखे और हाथ ही वापिस दिलाये, अपितु उसें राज्य भी दिलाया । इसलिये शास्त्रों ने कहा है-`यतो धर्मस्ततो जय:` । जहाँ धर्म है,वहाँ विजय होकर रहती है ।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक तत्त्वचिन्तामणि ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका
,कोड ६८३ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]