※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

मार्कन्डेयपुराण पर एक विहंगम-दृष्टि (चार ज्ञानी पक्षियों की कथा )


चार ज्ञानी पक्षियों की कथा 

  
इसके पूर्व इस पुराण में व्यासजी के शिष्य प्रसिद्ध मीमांसाकार महातेजस्वी जैमिनी का चार पक्षियों के साथ महाभारत के कुछ प्रधान विषयों पर प्रश्नोत्तर है । यह चारों पक्षी तत्वज्ञानी ही नहीं,शास्त्रों के भी मर्मज्ञ थे ब्रह्मानिष्ठ होने के साथ-साथ शब्द्ब्रह्मा में भी निष्णात थे । यह पूर्व जन्म के ऋषि थे और श्राप के कारण पक्षी योनी को प्राप्त हुए थे । इनका जन्म भी विचित्र परिस्थिति में हुआ था । महाभारत युद्ध का समय था । इन पक्षियों की माता दैववश युद्ध क्षेत्र में जा पहुंची । उस समय अर्जुन और भगदत्त में युद्ध छिड़ा हुआ था । संयोगवश अर्जुन का एक बाण उस पक्षिणी को लगा, जिससे उस का पेट फट गया और उसमें सें चार अण्डे पृथ्वी पर गिरे । उनकी आयु शेष थी, अत: वे फूटे नहीं । बल्कि पृथ्वी पर ऐसे गिरे, मानों रुई के ढेर पर पड़े हो । उन अण्डों के गिरते ही भगदत्त के हाथी की पीठ से एक बहुत बड़ा घंटा भी टूट कार गिरा, जिसका बंधन बाणों के आघात से कट गया था । यद्यपि वह अण्डों के साथ ही गिरा था, तथापि उन्हें चारों और से ढकता हुआ गिरा और धरती में थोडा-थोडा धंस भी गया । इस प्रकार उन अण्डों की बड़े विचित्र ढंग से रक्षा हो गयी । शास्त्रों में ठीक ही कहा है - 'अरक्षितं तिष्ठति देवरक्षितं सुरक्षितं दैवहंत विनाश्यती ।' दैव- भगवान् की आलौकिक शक्ति जिसकी रक्षा में नियुक्त है, उसका भला क्या बिगड़ सकता है । और जिसकी आयु शेष हो चुकी है, उसकी कितनी ही रक्षा की जाय-वह बच नहीं सकता । अस्तु;

युद्ध समाप्त हो गया । अण्डे घंटे के भीतर ही पृथ्वी का और सूर्य का ताप पाकर पाक गये और उनमें से पक्षी शावक निकल आये । इधर दैव की प्रेरणा से एक ऋषि उधर जा निकले । उन्होंने घंटे में से बच्चों कि आवाज सुनकर कौतुहल वश घंटे को उखाड़ लिया और उन बच्चों को अपने आश्रम में लाकर एक सुरक्षित स्थान में रखवा दिया । उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि 'यह कोई सामान्य पक्षी नहीं है । संसार में देवों का अनुकूल होना महान सौभाग्य का सूचक होता है ।' उन्होंने यह भी कहा कि यद्यपि किसी की रक्षा के लिए अधिक प्रयत्न की आश्यकता नहीं है- क्योंकि सभी जीव अपने कर्मों से ही मारे जाते हैं और कर्मों से ही उनकी रक्षा होती है फिर भी मनुष्य को शुभ कार्य के लिए यत्न अवश्य करना चाहिये, क्योंकि पुरषार्थ करने वाला ( असफल होने पर भी ) निन्दा का पात्र नहीं होता । इस प्रकार उन पक्षियों के जन्मवृतान्त से बड़ी सुन्दर शिक्षा मिलाती है ।

 

पक्षियोंके पूर्वजन्म का वृतान्त तथा शरणागतवत्सलता का अपूर्व उदाहरण

पक्षी जब कुछ बड़े हुए, तब वे सहसा मनुष्य कि भाँती बोलने लगे । उन्होंने अपने पालक ऋषि को अपने पूर्वजन्म का वृतान्त सुनाया और अपने पक्षी योनी में आने का कारण भी बताया । उन्हें अपने पूर्वजन्म की बातें भली भांति याद थी । उन्होंने कहा कि वे पूर्व जन्म में ऋषि कुमार थे । उनके पिता बड़े भारी तपस्वी, उदारचेता और इन्द्रियजयी थे । एक दिन की बात है-देवराज इन्द्र उनके परीक्षा के लिए एक विशालकाय वृद्ध पक्षी का रूप धारण कर उनके पास आये और बोले-मुझे बड़ी भूख लगी है । शरणागतवत्सल मुनि के पूछने पर कि उसके लिए कैसे आहार की व्यवस्था की जाय, पक्षी ने बताया कि मुझे मनुष्य का मांस विशेष प्रिय है । ऋषि वचन बद्ध थे, इसलिए उन्होंने अपने वचन का पालन करने के लिए उसी समय अपने चारों पुत्रों को बुलाया और उन्हें आज्ञा दी कि वे अपने शरीर के मांस से पक्षी की क्षुधा को शांत करें । ऋषिकुमार पिता की इस कठोर आज्ञा का पालन करने के लिये तैयार नहीं हुए । इस पर पिता ने उन्हें पक्षी होने का श्राप दिया और स्वयं अपनी अंत्येष्टि क्रिया करके उस पक्षी का आहार बनने के लिये तैयार हो गये । उन्होंने उस समय पक्षी से जो वचन कहे, वह सबके लिये हृदय में धारण करने योग्य है । उन्होंने कहा-ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व इसी में है कि वह अपने वचन का पूर्ण रूप से पालन करे । दक्षिणा युक्त यज्ञों तथा अन्य कर्मों के अनुष्ठान से भी ब्राह्मणों को वह पुन्य नहीं प्राप्त होता,जो सत्य की रक्षा से होता है । तब इन्द्र अपने रूप में प्रकट होकर बोले कि मैंने आपकी परीक्षा के लिये पक्षी का रूप धारण किया था, इसके लिये मुझे क्षमा करें । अतिथिवत्सलता और सत्य की रक्षा के सामान और कोई महान तप नहीं है । सत्य की रक्षा के लिये ऋषि ने अपने प्राणोंपम पुत्रों की भी परवाह नहीं की और अपना शरीर भी अतिथि के अर्पण कर दिया । धन्य त्याग ! आज यह है त्याग कि भावना हमारे देश से उठती जा रही है, इसलिए हमारी यह दुर्दशा हो रही है । जब से हमें धर्म की अपेक्षा प्राण अधिक प्यारे लगने लगे, तभी से हमारा पतन प्रारम्भ हो गया । अस्तु, इस प्रकार यद्यपि पिता के श्राप से वह ऋषिकुमार पक्षी हो गये,फिर भी पिता की कृपा से उन्हें ज्ञान बना रहा और अन्त में उस ज्ञान के बल से उन्होंने परमसिद्ध प्राप्त की ।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक तत्त्वचिन्तामणि ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड ६८३ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]