※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

आनन्द के स्वरुप का वर्णन





  
निराकार ध्यान मे वैराग्य और उपरामता की बड़ी आवश्यकता है । इन दोनों के प्राप्त होने पर समाधि आदि अपने-आप ही लग जाती है । वैराग्य स्वत: हो जाय तो ध्यानके लिये चेष्टा नहीं करनी पड़ेगी । हमारे तो थोड़ी-सी ही उपरामता हो जाती है तो स्वत: ही ध्यान हो जाता है । जब उपरामता और वैराग्य नहीं है तो बहुत प्रयत्न करने पर भी मन स्थिर नहीं होता । वैराग्य होता है तो संसार के पदार्थों के चित्र स्वत: ही शान्त हो जाते हैं । मेरे तो किसी समय इस तरह की झलक रास्ते चलते-चलते आ जाती तो मन करता कि यहीं बैठ जायं, लोक-लाज से नहीं बैठते फिर दूसरी जगह जाकर बैठकर ध्यान करते । ध्यान के समान साधन नहीं है ।यहाँ वैराग्य हो जाता है । यह स्थान भोगी के लिये अनुकूल नहीं है । जितने भोग-पदार्थ हैं, साधक के लिये बाधक हैं, भोगी के लिये आराम देने वाले होते हैं । मेरी स्वाभाविक वृत्ति रहती है कि कहीं तीर्थ पर जाता हूँ तो देखता हूँ कि ध्यान के लिये यह स्थान कैसा है । इस बार ७००० मील घुमे, इस तरह का स्थान कम ही मिला । यह भूमि उत्तराखण्डकी तपोभूमि बड़ी पवित्र और एकान्त है । तीनो कि आवश्यकता है । सम्भव है, यहाँ पुर्वसमयमें ऋषियों ने तपस्या कि होगी । न जाने इस भूमि में क्या है ? न जाने गंगाजी कि जो हवा है उसमें करामात है । सम्भव है, महापुरुषों ने तपस्या कि होगी । यह आश्रम ही ऋषियों जैसा है । बहुत वर्षों से देखता हूँ, यह मालूम देता है कि यह जगह ऋषिसेवित है । जैसे कोई हिंसक जगह होती है तो वहाँ बैठने से हिंसा के परमाणु आ जाया करते हैं । हमलोग ध्यान करने के लिये हैं । हमारे सिवाय यहाँ कौन आता है । नजर उठाकर देखा जाय तो चारों तरफ वन-ही-वन दिखाई देता है । वटवृक्ष का दृश्य भी बड़ा उत्तम है, गंगाकी ध्वनि मानों ब्रह्म्चारी वेद का पाठ करते हों । रेणुका आसन भी उत्तम है ।

यहाँ सात्विकता भरी है । वायु भी सहायक हो जाती है । इसमें दो बातें मिलती है आरोग्यता और वैराग्य । भोग और आराम कि दृष्टि से विचार किया जाय तो थोड़ी तकलीफ हो सकती है ।असली चीज वैराग्य ही है । विषय भोग तो कुत्ते कि योनियों मे भी है । मखमल के गद्दे पर सोने पर हमें जो आनन्द मिलता है, मैं अनुमान करता हूँ कि गधे को राख पर लेटने से कुछ कम नहीं मिलता । आराम कि दृष्टि से मखमल और राख में क्या अन्तर है, केवल मन कि कल्पना है । प्रत्यक्ष में देखिये, मन के माने की ही तो बात है । सबके बालों का शौक अलग-अलग है । किसी एक प्रकार प्रकार कि हजामत में सुख मिलता तो दुनिया उसी तरह कि हजामत बनवाती । ऐसे ही सारे पदार्थों के बीच में यही बात है । वस्त्रों कि और दृष्टि डालते हैं तो हमारी दूसरी, अमेरिकावालों कि दूसरी, काबुलवालोंकि दूसरी है, कौनसी अच्छी है ? ऋषि लोग वल्कल वस्त्र पहनते थे, उनको उसमे ही आनन्द था । संसार मे सुख तो है ही नहीं वैराग्य में सुख है, राग द्वेष तो त्याग करने कि चीज है ।वैराग्य के सुख का सबको अनुभव नहीं है । महात्मा लोग कहते हैं, रागसे लाखों गुना सुख वैराग्य में है, इससे भी ज्यादा ध्यान मे है, ध्यान से भी ज्यादा सुख परमात्मा कि प्राप्ति में है

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।

स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ।। (गीता ५।२१)

बाहर के विषयों में आसक्तिरहित अन्त:करणवाला साधक आत्मामें स्थित जो ध्यानजनित सात्विक आनन्द है, उसको प्राप्त होता है; तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्माके ध्यानरूप योग में अभिन्नभाव से स्थित पुरुष अक्षय आनन्द का अनुभव करता है ।

इस श्लोक में दो सुख बतलाये गये हैं । एक साधनकालका सुख है, दूसरा साधन का फल है । इस प्रकार हर एक श्लोक में हमे ध्यान देना चाहिये । जैसे----

योऽन्त:सुखोऽन्तरारामस्तथान्तज्योर्तिरेव य: ।

स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ।। (गीता ५।२४)

जो पुरुष अन्तरात्मामें ही सुख वाला है, आत्मा में ही रमण करनेवाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञानवाला है, वह सच्चिदानन्दनघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकाकीभावको प्राप्त सांख्ययोगी शान्त ब्रह्म को प्राप्त होता है ।

भीतर से ही मननवाला है, उससे होने वाले सुख से सुखी है । हमको ध्यान रखना चाहिये कि हम ऐसे स्थान में बैठे हैं, प्रभु की कृपा है ही, अत: ध्यान लगेगा ही । जहाँ प्रभु कि चर्चा होती है, वहाँ आलस्य नहीं आ सकता, यदि आता है तो समझना चाहिये उसमें रूचि नहीं है । फिर ख्याल करने कि यह बात है कि नामजप से विक्षेप का विनाश हो जाता है । जहाँ विवेक होता है वहाँ बुद्धि कि आवश्यकता होती है । जहाँ बुद्धि तीक्ष्ण होती है, वहाँ आलस्य कि सामर्थ्य नहीं कि पास आ सके । जिन्होंने भगवान् कि शरण ले ली है उनके पास माया का कार्य आलस्य नहीं आ सकता । जिसका ध्यान लग जाय वह तो ध्यान मे बैठा ही रहे, ध्यान को ही अपना जीवन बना लेना चाहिये । मेरे तो इस प्रकार का अनुभव है कि मैं विचार कर लूँ कि आज आठ घंटा बैठना है, फिर परमात्मा कि कृपा से ध्यान जाय तो बैठे रहना कोई बड़ी बात नहीं है । ज्यादा आनन्द तो तभी है कि सब आदमी दिनभर ध्यान मे बैठे रहें । मेरी तो धारणा यह है कि महापुरुषों कि कृपा से अटल समाधि लग सकती है, फिर परमात्मा कि कृपा से लग जाय इसमें बात ही क्या है । तीन घंटा तो मामूली बात है, यह तो हमारी खुराक है ।

नारायण । नारायण । नारायण ।

नारायण के नाम का उच्चारण करते ही सब स्वाहा हो जाता है । नारायण शब्द का अर्थ है, `सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म` मनसे उसका मनन करे, बार-बार आनन्द शब्द का उच्चारण किया जाता है । इसके मुख्य सोलह विशेषण है । शेष अगले ब्लॉग में...............

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक सत्संगकी मार्मिक बातें ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १२८३ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]