घरमें कोई अधिक बीमार हो तो सेवा करनी चाहिये । चिन्ता करने से मनको क्लेश होता है । बीमार होने पर उस समय आराम के लिये बहुत चेष्टा करते हैं । भगवान् ने कहा है------
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता: ।।
हे अर्जुन ! तू न शोक करनेयोग्य मनुष्यों के लिये शोक करता है और पण्डितों-से वचन कहता है; परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते ।
भगवान् राम ने भी सीताजीको यही उपदेश दिया है । प्यारे से प्यारा भी हो तो भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । व्यवस्था तो खूब करे, किन्तु चिन्ता नहीं करे ।
अपने घर में जितने लोग भोजन करें, नौकर आदि सबके साथ सामान व्यवहार करे तो ठीक है । विषमता करे तो दण्ड मिलता है ।
समता में कितना उत्तम भाव है । सम व्यवहार करनेसे सबको प्रसन्नता होती है । बालक भी इससे प्रसन्न होते हैं । नहीं तो उन पर भी बुरा असर पड़ता है । पशु भी इस बात को समझ जाता है कि उसके साथ कैसा व्यवहार किया गया । उत्तम व्यवहार जिसके साथ होता है वह भी प्रसन्न होता है । करनेवाला भी प्रसन्न होता है, सुननेवाला भी प्रसन्न होता है । विषमता का व्यवहार जिसके साथ किया जाय उसके ऊपर भी बुरा असर पड़ता है । भगवान् भी नाराज होते हैं । हम भी छिपाने कि चेष्टा करेंगे ।छिपाने से मलिनता होगी । इससे प्रत्यक्ष हानि है । यह सौगन्ध ले ले कि हमें भेदभाव का व्यवहार करना ही नहीं है । भेदभाव करे तो ऐसा करे कि परिश्रम का काम आप ले और भोगने कि अच्छी-अच्छी चीजें दुसरोंको दो । घटिया स्वयं ले । दूसरों को अधिक, अच्छी एवं पहले दे । यह व्यवहार नहीं हो सके तो समता का व्यवहार कर । समता से उलटी विषमता विशेष है । यज्ञं से बचा अन्न खाने से परमात्मा कि प्राप्ति हो जाती है । दुसरे का उपकार ही यज्ञ है । यज्ञ से बचा जो अमृत है, उससे मन पवित्र हो जाता है । सबको भोजन कराकर भूखा रह जाय तो और भी उत्तम है । एक ब्राह्मण इसी प्रकार भोजन सबको भोजन कराकर भोजन करता था । एक दिन यमराज ही अतिथिरूप में परीक्षा करने आ गये और सात दिन का भूखा होने पर भी उसने यमराज को सारा भोजन दे दिया ।
पहले लोग अच्छे आदमीके हाथ से दान-पुण्य करवाया करते थे, जिससे वह पात्र के पास जाय । सभीको अपने घरके मालिक के हाथसे पुण्य करवाना चाहिये । घर में कोई विपत्ति, भरी संकट आ जाय तो अपने ऊपर लेवे । जैसे बकासुरकी बात है----पति कहते मैं राक्षस कि भेंट जाऊँगा, स्त्री कहती है मैं जाऊँगी । इसी प्रकार स्वयं तैयार रहे । यदि इनमेंसे कोई नहीं जाता, वह कहता तू जा, वह कहती तू जा तो राक्षस सभी को खा जाता । मैं जाऊँ, मैं जाऊँ यह होने लगा तो सब बच गये । यह उत्तम व्यवहार है । शास्त्रकी कथाओं में बहुत रहस्य भरा हुआ है । न्याय-अन्याय को और अन्याय करनेवालेको मार डालता है । क्षमा करनेवालेको तो क्षमा ही करना चाहिये ।
पाँच पाण्डव बड़े ही धर्मात्मा थे । किसी प्राणी का भी बुरा करने से भगवान् नहीं मिलते । किसीने एक व्यक्ति का अपमान कर दिया । जिसका अपमान हुआ उसने उसपर मुक़दमा कर दिया । राजा धर्मात्मा था एवं न्यायकर्ता भी था । वह अपमान करने वाले को बोला छ: महिना जेल भोगनी पड़ेगी । वह बोला कि रुपया कितना ही लगे जेल नहीं होने चाहिये । राजा ने कहा दण्ड में तो जेल मिलेगी । एक उपाय है यदि वह मुक़दमा करनेवाला अपराध क्षमा कर दे तो क्षमा हो सकता है । यह अपराध क्षमा करने परमेश्वर के वश कि बात नहीं है । हाँ जिसके प्रति अपराध हुआ है उसे प्रसन्न कर ले तो भगवान् क्षमा कर देते हैं । कथा इन बातों को समझने के लिये है । दुर्वासा राजा अम्बरीषके यहाँ आये कहा रसोई तैयार करो, मैं स्नान करके आता हूँ । दोपहर हो गयी पर दुर्वासा नहीं आये तो ब्राह्मणों ने निश्चय किया कि राजा तुलसीदल ले लें और सब प्रजा भोजन कर ले । दुर्वासा आये, कहा तुमने मुझे निमन्त्रण दिय और भोजन कर लिया । पहले तुलसीदल भी क्यों लिया । कृत्या उत्पन्न की । सुदर्शना चक्र यह नहीं सह सका । दुर्वासा आगे दौड़े, चक्र पीछे दौड़ा । दुर्वासा सबके पास गये पर कोई नहीं छुड़ा सका, भगवान् विष्णु भी बोले मैं क्षमा नहीं कर सकता अम्बरीष ही क्षमा कर सकता है ।
अहं भक्त पराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज ।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय: ।।
दुर्वासाजी ! मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ । मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है । मेरे सीधे-सादे सरल भक्तों ने मेरे हृदय को अपने हाथमें रखा है । भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे प्यार करता हूँ ।
राजा के पास आने से ही ऋषि का छुटकारा हुआ । मनुष्य को किसी का अपराध नहीं करना चाहिये ।
एकादशीके व्रत से भी बढ़कर यह है कि अतिथिको भोजन कराकर यदि भोजन न बचे तो स्वयं भूखा रह जाय । यह बारह महीने कि एकादशी से भी बढ़कर है । कठिन-से-कठिन काम आये तो अपने लिये ले । खाने कि बढ़िया-से-बढ़िया चीजें दुसरोंको दे, बची हुई स्वयं ले । कोई कैसा ही व्यवहार करे, हमें कुन्तीकी तरह सबसे अच्छा व्यवहार करना चाहिये । अपने द्वारा किया हुआ उत्तम व्यवहार कभी याद नहीं रखे ।
नारायण दो बातको दीजे सदा बिसार ।
करी बुराई औरने आप कियो उपकार ।।
चित्त में यह धारण कर ले कि किसीसे वैर करना ही नहीं है । कोई क्रोध करे तो स्वयं क्रोध न करे । क्रोध, लोभ, स्वार्थका त्याग कर दे । मनमे किसी प्रकार कि कामना नहीं करे । नरकका द्वार बंद कर दे और मुक्ति का द्वार खोल दे । सबकी सेवा करे । हरेक काम-धन्धे में सेवा-उपकार को असली धन समझना चाहिये । घर जाकर इन बातों का ख्याल करना चाहिये । अतिथि वह है जिसकी तिथि नहीं है ।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक दू:खोंका नाश कैसे हो ? ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १५६१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]