यतो यतो निश्र्चरति मनश्र्चंच्लमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।। (गीता ६।२६)
यह स्थिर न रहने वाला और चन्चल मन जिस-जिस शब्दादि विषयके निमित्तसे संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे ।
जहाँ-जहाँ मन जाय वहाँ-वहाँ से लाकर भगवान् में लगाये,यह बहुत उत्तम युक्ति है । इसके लिये एक-आध घंटा विशेष समय निकालना चाहिये । एकान्तमें जब जप-ध्यान करने बैठते हैं तो मन संसार में स्वाभाविक हो जाता है । जिन पदार्थों में आसक्ति है उनमें जाता है.व्यर्थ कामोंमें जाता है, मन का जाने का स्वभाव पड़ गया है । उस समय एकान्त में साक्षी होकर रहे । मनको बार-बार समझाना चाहिये, समझाकर अपने लिये जो अनुकूल पड़े उस युक्ति के अनुसार निर्भय होकर अपने मार्ग में चले । इस प्रकार करनेसे मन का दोष नष्ट होगा ।
खाना-पीना चलना ये तो शरीर के काम है, अपना काम नहीं है । ध्यान करना जिससे आत्माका कल्याण हो वही काम अपना है । आपका नहीं है ऐसा समझकर जहाँ शरीर का स्वार्थ हो वहाँ लिप्सा न करे । भोग-विलास में न फँस जाय । इसकी निगाह रखनी चाहिये । मन, बुद्धि, शरीर के पालन-पोषण में ही समय न लगा दे । शरीर तो कोई काम नहीं आएगा, इसके लिये समय लगाना व्यर्थ है । मनको बालक की भाँती समझाना चाहिये । माँ जैसे बालक का ध्यान रखती है, रसोई बनाते समय भी ध्यान रखती है, वैसे ही परमात्मा की तरफ हमारा ध्यान रहना चाहिये । मुख्य वृत्ति परमात्मा में, गौणी वृत्ति अन्य कार्यों में रखनी चाहिये । जिसमें आसक्ति हो, परिणाम ख़राब होगा । मनको यह समझाकर शनैः-शनैः उधर से उपराम करे । इस प्रकार वशमें करके मन को परमात्मा में लगाये ।मनको संसार के विषयोंसे हटाकर परमात्मामें लगाना चाहिये । जब मनको आनन्द आयेगा तब वह छोड़ना नहीं चाहेगा । फिर सच्चा आनन्द आनेपर यह वियोग नहीं सह सकेगा, यह तो मन के ध्यानकाल की बात हुई, पर व्यवहारकाल में क्या करे ? हर समय मन, बुद्धिको भी भगवान् के अर्पण कर दे, और काम भी होता रहे । भगवान् ने कहा है-----
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च । मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ।।
इसलिये हे अर्जुन ! तू सब समयमें निरन्तर मेरा स्मरण और युद्ध भी कर । इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन बुद्धि से युक्त होकर तू निःसंदेह मुझको ही प्राप्त होगा । हर समय स्मरण करता युद्ध कर । सब कुछ करते हुए भी उस ईश्र्वर का ध्यान रखना चाहिये । मालिक के साथ ही हम खेल रहे हैं । इस प्रकार समझकर संकोच नहीं करना चाहिये ।खेलते समय जब वह मालिक के साथ लड़ाई करता है तो समझता है कि नाटक है, नाटकमें वह मालिक और भी प्रसन्न होता है । अत: भगवान् की आज्ञा समझकर हमे सब काम करने चाहिये । जैसे बलदेवजी सब गोप-ग्वालों के साथ एक-सा व्यवहार करते हैं, पर भीतर से सबको कृष्ण देखते हैं । भगवान् ने ही रूप धारण किया है, इस प्रकार हमें भी सबको नारायण समझकर यथायोग्य व्यवहार करना चाहिये । सारे ब्रह्माण्ड में भगवान् को देखते हुए व्यवहार में यथा योग्य भेद रख सकते हैं, इसमे कोई आपत्ति नहीं आती । हर समय परमात्म बुद्धि रखनी चाहिये । उदाहरण—भीष्मजी कृष्ण को साक्षात् भगवान् समझते हैं, पर जब कृष्ण सामने आते हैं तो बाण मारकर खून निकाल देते हैं । साक्षात् परमात्मा भी समझते हैं और बाण भी मारते हैं । भगवान् चक्र लेकर मारने आते हैं तो कहते हैं---आइये, आइये डरते भी नहीं । `आइये ! आइये ! आइये ! कमलनयन ! देवदेव ! आपको नमस्कार है । `सात्वशिरोमणे ! इस महासमर में आज मुझे मार गिराइये । देव ! निष्पाप श्रीकृष्ण ! आपके द्वारा संग्राम में मारे जाने पर भी संसार में सब ओर मेरा कल्याण ही होगा ।` भगवान् की आज्ञा समझकर, क्षत्रिय का कर्तव्य है युद्ध में शत्रुओं को मारना । अत: युद्ध में भगवान् भी सामने आ जायँ तब भी क्षत्रिय को अपना कर्तव्य-पालन करना चाहिये । अन्तमें भीष्मजी भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए प्राण छोड़ते हैं । उस समय भगवान् सामने खड़े हैं । इतना प्रेम कि भगवान् बिना बुलाये आ जाते हैं । उधर वे श्रीकृष्ण का ध्यान करते हैं, कृष्णभगवान् उन भीष्म का ध्यान करते हैं । इतना प्रेम है कि बारम्बार भीष्मजी भगवान् को प्रणाम करते हैं और मुग्ध होते हैं ।
ऐसे भीष्मजी ने बाणों से भगवान् के हाथों को घायल कर दिया, लगाम छुट गयी । भगवान् दौड़े; पर अर्जुन ने पैर पकड़ लिये और कहा कि प्रभो आप क्या करते हैं ? इस प्रकार स्वामी से भी युद्ध हो सकता है । ऐसे ही इस संसारके साथ व्यवहार होना चाहिये, श्रद्धा भी हो और मार-पिट भी । इसके लिये यह उदाहरण है । भगवान् का चित्र रखकर ध्यान करना चाहिये और उन्हें सर्वव्यापी भी समझना चाहिये । साकार भगवान् के स्वरूपको देखते हुए भी हम सब काम कर सकते है । जैसे मुरली मनोहर को सामने रखकर गोपियाँ काम करती थी । यदि संसार का काम बिगड़े तो बिगड़े, वास्तव में तो बिगड़ता नहीं । हम तो भगवान् की आज्ञानुसार चलते हैं । भगवान् में इतना प्रेम हो कि उस स्थिति में काम बिगड़ भी जाय तो पता न लगे,परवाह न हो, पर जानके बिगाड़े तो दम्भ है ।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक दू:खोंका नाश कैसे हो ? ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १५६१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]
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