※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 2 सितंबर 2012

प्रभु का आश्रय लेकर कर्तव्यकर्म करे


यतो यतो  निश्र्चरति  मनश्र्चंच्लमस्थिरम्
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव  वशं  नयेत् ।।                                  (गीता ६।२६) 
   यह स्थिर न रहने वाला और चन्चल मन जिस-जिस शब्दादि विषयके निमित्तसे संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे
 जहाँ-जहाँ मन जाय वहाँ-वहाँ से लाकर भगवान् में लगाये,यह बहुत उत्तम युक्ति है । इसके लिये एक-आध घंटा विशेष समय निकालना चाहिये । एकान्तमें जब जप-ध्यान करने बैठते हैं तो मन संसार में स्वाभाविक हो जाता है । जिन पदार्थों में आसक्ति है उनमें जाता है.व्यर्थ कामोंमें जाता है, मन का जाने का स्वभाव पड़ गया है उस समय एकान्त में साक्षी होकर रहे मनको बार-बार समझाना चाहिये, समझाकर अपने लिये जो अनुकूल पड़े उस युक्ति के अनुसार निर्भय होकर अपने मार्ग में चले इस प्रकार करनेसे मन का दोष नष्ट होगा
  खाना-पीना चलना ये तो शरीर के काम है, अपना काम नहीं है ध्यान करना जिससे आत्माका कल्याण हो वही काम अपना है आपका नहीं है ऐसा समझकर जहाँ शरीर का स्वार्थ हो वहाँ लिप्सा न करे भोग-विलास में न फँस जाय इसकी निगाह रखनी चाहिये मन, बुद्धि, शरीर के पालन-पोषण में ही समय न लगा दे शरीर तो कोई काम नहीं आएगा, इसके लिये समय लगाना व्यर्थ है मनको बालक की भाँती समझाना चाहिये  माँ जैसे बालक का ध्यान रखती है, रसोई बनाते समय भी ध्यान रखती है, वैसे ही परमात्मा की तरफ हमारा ध्यान रहना चाहिये मुख्य वृत्ति परमात्मा में, गौणी वृत्ति अन्य कार्यों में रखनी चाहिये जिसमें आसक्ति हो, परिणाम ख़राब होगा मनको यह समझाकर शनैः-शनैः उधर से उपराम करे इस प्रकार वशमें करके मन को परमात्मा में लगाये मनको संसार के विषयोंसे हटाकर परमात्मामें लगाना चाहिये जब मनको आनन्द आयेगा तब वह छोड़ना नहीं चाहेगा फिर सच्चा आनन्द आनेपर यह वियोग नहीं सह सकेगा, यह तो मन के ध्यानकाल की बात हुई, पर व्यवहारकाल में क्या करे ? हर समय मन, बुद्धिको भी भगवान् के अर्पण कर दे, और काम भी होता रहे भगवान् ने कहा है-----
तस्मात्सर्वेषु  कालेषु मामनुस्मर युध्य च मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्    ।।
इसलिये हे अर्जुन ! तू सब समयमें निरन्तर मेरा स्मरण और युद्ध भी कर इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन बुद्धि से युक्त होकर तू निःसंदेह मुझको ही प्राप्त होगा हर समय स्मरण करता युद्ध कर सब कुछ करते हुए भी उस ईश्र्वर का ध्यान रखना चाहिये  मालिक के साथ ही हम खेल रहे हैं इस प्रकार समझकर संकोच नहीं करना चाहिये खेलते समय जब वह मालिक के साथ लड़ाई करता है तो समझता है कि नाटक है, नाटकमें वह मालिक और भी प्रसन्न होता है अत: भगवान् की आज्ञा समझकर हमे सब काम करने चाहिये जैसे बलदेवजी सब गोप-ग्वालों के साथ एक-सा व्यवहार करते हैं, पर भीतर से सबको कृष्ण देखते हैं भगवान् ने ही रूप धारण किया है, इस प्रकार हमें भी सबको नारायण समझकर यथायोग्य व्यवहार करना चाहिये  सारे ब्रह्माण्ड में भगवान् को देखते हुए व्यवहार में यथा योग्य भेद रख सकते हैं, इसमे कोई आपत्ति नहीं आती हर समय परमात्म बुद्धि रखनी चाहिये उदाहरण—भीष्मजी कृष्ण को साक्षात् भगवान् समझते हैं, पर जब कृष्ण सामने आते हैं तो बाण मारकर खून निकाल देते हैं साक्षात् परमात्मा भी समझते हैं और बाण भी मारते हैं भगवान् चक्र लेकर मारने आते हैं तो कहते हैं---आइये, आइये डरते भी नहीं `आइये ! आइये ! आइये ! कमलनयन ! देवदेव ! आपको नमस्कार है `सात्वशिरोमणे ! इस महासमर में आज मुझे मार गिराइये देव ! निष्पाप श्रीकृष्ण ! आपके द्वारा संग्राम में मारे जाने पर भी संसार में सब ओर मेरा कल्याण ही होगा `
  भगवान् की आज्ञा समझकर, क्षत्रिय का कर्तव्य है युद्ध में शत्रुओं को मारना अत: युद्ध में भगवान् भी सामने आ जायँ तब भी क्षत्रिय को अपना कर्तव्य-पालन करना चाहिये अन्तमें भीष्मजी भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए प्राण छोड़ते हैं उस समय भगवान् सामने खड़े हैं इतना प्रेम कि भगवान् बिना बुलाये आ जाते हैं उधर वे श्रीकृष्ण का ध्यान करते हैं, कृष्णभगवान् उन भीष्म का ध्यान करते हैं इतना प्रेम है कि बारम्बार भीष्मजी भगवान् को प्रणाम करते हैं और मुग्ध होते हैं
   ऐसे भीष्मजी ने बाणों से भगवान् के हाथों को घायल कर दिया, लगाम छुट गयी भगवान् दौड़े; पर अर्जुन ने पैर पकड़ लिये और कहा कि प्रभो आप क्या करते हैं ? इस प्रकार स्वामी से भी युद्ध हो सकता है ऐसे ही इस संसारके साथ व्यवहार होना चाहिये, श्रद्धा भी हो और मार-पिट भी इसके लिये यह उदाहरण है भगवान् का चित्र रखकर ध्यान करना चाहिये और उन्हें सर्वव्यापी भी समझना चाहिये साकार भगवान् के स्वरूपको देखते हुए भी हम सब काम कर सकते है जैसे मुरली मनोहर को सामने रखकर गोपियाँ काम करती थी यदि संसार का काम बिगड़े तो बिगड़े, वास्तव में तो बिगड़ता नहीं हम तो भगवान् की आज्ञानुसार चलते हैं भगवान् में इतना प्रेम हो कि उस स्थिति में काम बिगड़ भी जाय तो पता न लगे,परवाह न हो, पर जानके बिगाड़े तो दम्भ है
   नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक दू:खोंका नाश कैसे हो ? ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १५६१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]