※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 3 सितंबर 2012

हिन्दू – धर्म की महत्ता


शरणागत पापी है अथवा उसकी रक्षा करने हमारी लौकिक हानि होगी-यह विचार कर उसकी रक्षा से मुँह मोड़ने वाला स्वयं पापी ही नहीं, मनुष्य के वेश में राक्षस है जिस धर्म में अतिथि सेवा और शरणागत की रक्षा पर इतना जोर दिया गया हो, उस धर्म की तुलना में कौन धर्म ठहर सकता है अथिति सेवा ही नहीं,  जीव मात्र की सेवा को हमारे यहाँ महायज्ञ - भगवान् की बहुत बड़ी पूजा माना गया है और उसे अवश्य करता बताया गया है पञ्च महायज्ञ और क्या है ? उसमे देवताओं से लेकर छोटे से छोटे जीवतककी सेवा का ही तो विधान है प्राणियों की ही नहीं, पेड़ पौधों तक की सेवा एवं रक्षा तथा भूमि एवं पर्वतों तथा चन्द्र और सूर्य आदि ग्रहों तक की पूजा का हिन्दू धर्म में विधान है, जिन्हें आज का जगत जड़ मानता है अवहेलना करता है आज लोग यह कहकर हमारी खिल्ली उड़ाते हैं कि हिन्दू पत्थर पूजते हैं, परन्तु इस रहस्य को कोई नहीं जानता कि हिन्दू चेतन जीव मात्र को ही नहीं, कंकड़ और पत्थर तथा अग्नि और जल-जैसी जड़ वस्तुओं में भी भगवान् को ही देखते हैं, उनके रूप में भी भगवान् को ही पूजते हैं हमारे भगवान् किसी देश विशेस अथवा वस्तु विशेस में सीमित नहीं, वह तो अणु-अणु में व्याप्त है भगवान् और सीमित, यह तो वदतोव्याघात है भगवान् ऐसे नहीं, वैसे हैं, वे निराकार है, साकार नहीं हो सकते, वह मनुष्य अथवा पशु पक्षी के रूप में अवतरित नहीं हो सकते---यह कहना तो भगवान् पर शासन करना हुआ जो लोग भगवान् को इतना सीमित मानते है, वह तो दया के पात्र है भगवान् क्या है, इसे तो भगवान् ही जान सकते हैं, दुसरे किस की सामर्थ्य है हम तो इतना ही कह सकतें हैं—वे सब कुछ है, सबसे परे हैं और सब में भरे हैं जिसे हम असत् कहते हैं, वह भी वे ही हैं वे-ही-वे हैं उनके सिवा कुछ नहीं यही हिन्दू धर्म है   


नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि
! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड ६८३,गीता प्रेस गोरखपुर ]