※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

भक्तराज प्रह्लाद और ध्रुव


 
 
विश्व के भक्तों में भक्तप्रवर श्रीप्रह्लाद और ध्रुव की भक्ति अत्यंत ही आलौकिक थी दोनों प्रातः-स्मरणीय भक्त श्रीभगवान के विलक्षण प्रेमी थे प्रह्लाद जी के निष्काम भाव की महिमा कही नहीं जा सकती आरम्भ से ही इनमें पूर्ण निष्काम भाव था जब भगवान् नृसिंहदेव में इनसे वर माँगने को कहा तब उन्होंने जवाब दिया कि `नाथ ! मैं क्या लेनदेन करनेवाला व्यापारी हूँ ? मैं तो आपका सेवक हूँ, सेवक का काम माँगना नहीं है और स्वामी का काम कुछ दे दिलाकर सेवक को टाल देना नहीं है परन्तु जब भगवान् ने फिर आग्रह किया तो प्रह्लाद ने एक वरदान तो यह माँगा कि ` मेरे पिता ने आपसे द्वेष करके आपकी भक्ति में बाधा पहुँचाने के लिये मुझ पर जो अत्याचार किये, हे प्रभु ! आपकी कृपा से मेरे पिता उस दुष्कर्म द्वारा उत्पन्न हुए पाप से कभी छुट जायें ` `त्वत्प्रसादात्प्रभो सध्यस्तेन मुच्येत मे पिता ` (विष्णु०१२०२४) कितनी महानता है दूसरा वरदान यह माँगा कि `प्रभु ! यदि आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं तो यह दीजिये कि मेरे मन में कभी कुछ माँगने की अभिलाषा ही ना हो `

   कितनी अद्भुत निष्कामता और दृढ़ता है पिता ने कितना कष्ट दिया, परन्तु प्रह्लाद जी सब कष्ट सुखपूर्वक सहते रहे, पिता से कभी द्वेष नहीं किया और अन्त में महान निष्कामी होने पर भी पिता का अपराध क्षमा करने के लिये भगवान् से प्रार्थना की

  भक्त वर ध्रुवजी ने एक बात की और विशेषता है उन्होंने अपनी सौतेली माता सुरुचि जी के लिये भगवान् से यह कहा कि नाथ ! मेरी माता ने यदि मेरा तिरस्कार न किया होता तो आज आपके दुर्लभ दर्शन का अलभ्य लाभ मुझे कैसे मिलता ? माता ने बड़ा ही उपकार किया है इस तरह दोष मे उल्टा गुण का आरोप कर उन्होंने भगवान् से सौतेली माँ के लिये मुक्ति का वरदान माँगा कितने महत्व कि बात है

  पर इससे यह नहीं समझना चाहिये कि भक्तवर प्रह्लाद जी ने पिता मे दोषारोपण कर भगवान् के सामने उसे अपराधी बतलाया,इससे उनका भाव निचा है ध्रुवजी की सौतेली माता ने ध्रुव से द्वेष किया था, उनके इष्ट देव भगवान् से नहीं, परन्तु प्रह्लादजी के पिता हिरण्यकश्यपु ने तो प्रह्लाद के इष्ट देव भगवान् से द्वेष किया था अपने प्रति किया हुआ द्वेष तो भक्त मानते ही नहीं, फिर माता-पिता द्वारा किया हुआ तिरस्कार तो उत्तम फल का कारण होता है इसलिये ध्रुव जी का माता में गुण का आरोप करना उचित ही था परन्तु  प्रह्लाद जी के तो इष्ट देव का तिरस्कार था प्रह्लाद जी ने अपने को कष्ट देनेवाला जानकर पिताको दोषी नहीं बतलाया,उन्होंने भगवान् से उनका अपराध करने के कारण क्षमा माँगकर पिता का उद्धार चाहा

वास्तव में दोनों ही विलक्षण भक्त थे भगवान् का दर्शन करने के लिये दोनों की ही प्रतिज्ञा अटल थी, दोनों ने उसको बड़ी ही दृढ़ता और तत्परता से पूर्ण किया प्रह्लाद जी ने घर में पिता के द्वारा दिए हुए कष्ट प्रसन्न मन से सहे, तो ध्रुव जी ने वन में अनेक कष्टों को सानन्द सहन किया नियमों मे कोई किसी प्रकार भी नहीं हटे,अपने सिद्धांत पर दृढ़ता से डटें रहे, कोई भी भय या प्रलोभन उन्हें तनिक सा भी नहीं झुका सका

   बहुत सी बातों में एक से होने पर भी प्रह्लाद जी में निष्काम भाव की विशेषता थी और ध्रुव जी में सौतेली माता के प्रति गुणारोपकर उसके लिये मुक्ति माँगने की

 वास्तव में दोनों ही परम आदर्श और वंदनीय है,हमे दोनों ही के जीवन से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये  
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि
! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड ६८३,गीता प्रेस गोरखपुर ]