※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 5 सितंबर 2012

निरन्तर चिन्तन करें


 
संसार का काम भी होता रहे और ईश्र्वर का स्मरण भी होता रहे ?

  संसार का कार्य तो अपने-आप में होता रहेगा । यदि नहीं भी हों तो सोचो क्या आपत्ति हुई, मुख्य लक्ष्य प्रभु में लगाना चाहिये । ऐसा जीवन क्या काम का जिसमे ईश्र्वर का चिन्तन न हो । विचारने से प्रतीत होता है कि हमसें कुत्ता भी अच्छा है । मालिक के चरणों मे लोटने लग जाता है । मनुष्य में चार प्रकार के गुण आने चाहिये-----१ पवित्र बनना २ स्वाधीन बनना ३ स्थिर बनना ४ ज्ञानयुक्त बनना । पर यह ख्याल करके देखें हम लोगों में तो एक गुण भी नहीं है । चित्त बिलकुल स्वाधीन नहीं है,पवित्र भी नहीं है । विचार करे जैसी स्थिति अब है, वैसी ही रही तो कल्याण सम्भव नहीं या अत्यन्त कठिन है । हमें क्या आवश्यकता है जो समय व्यर्थ गँवा रहे हैं, अपना असली काम छोड़कर, कल्याण का काम छोड़कर भोगमें समय व्यर्थ करते हैं । जो अत्यन्त तामसी है वे दुसरे जन्म मे वृक्ष होते हैं । ऐसे मनुष्य-देह को प्राप्त करके उपाय नहीं करते, साधन नहीं करते तो मूढ़ नहीं तो और क्या है ? यदि विचार करके गफलत मे समय गँवाया तो परिणाम क्या होगा ? इस नरदेह को प्राप्त करके तुम किसलिये विचार नहीं करते हो । ईश्र्वर ने बुद्धि, ज्ञान दिया है, उससे विचार करना चाहिये । क्या अपना समय ठीक बीत रहा है ? यदि कोई कहेगा मुझे संतोष है, मेरा समय ठीक बीत रहा है तो मैं उसे मुर्ख कहूँगा । जो मुझे अभी कर्तव्य नहीं है—ऐसा मान लेता है, उसकी उन्नति रुक जाती है, पतन होने लगता है । यध्यपि प्रभुने ज्ञानी के लिये कोई कर्तव्य नहीं बताया है, पर उसको ऐसा नहीं समझना चाहिये कि मुझे कोई कर्तव्य नहीं है । श्रुति गीता भी ऐसा समझनेके लिये नहीं कहती । जिसकी समझ में यह भाव है वह गलत है ।परमात्मा कि प्राप्ति होनेके बाद उसके यह भाव नहीं रहता कि मुझे यह कर्तव्य है और यह नहीं है, वह तो अनिवर्चनीय स्थिति है । मुझे प्रभुकी प्राप्ति हो चुकी---जो ऐसा मानता है, वह ऐसा भी समझता होगा कि औरों को नहीं हुई, अत: औरों के लिये चेष्टा करना कर्तव्य शेष रह जाता है । असल में तो प्रभुकी प्राप्ति हो जाय तो मुझे हुई उसको नहीं हुई यह भाव नहीं रहता, वह तो अनिवर्चनीय स्थिति है । प्रभु वर माँगने को कहे तो कहें की सबको मुक्ति दे, यदि प्रभु कहे कि सबको मुक्ति नहीं मिल सकती, केवल तुम्हे मिल सकती है तो यही कहना चाहिये कि मुझे ऐसी मुक्ति नहीं चाहिये । राजा युधिष्ठर ने  कहा—अपना स्वर्ग रखो, यदि कुत्ता जा सकता है तो मैं भी जा सकता हूँ, अन्यथा इसे यहाँ हिमालय में छोड़कर मैं नहीं जा सकता । आखिर धर्मराज प्रकट हो गये । स्वर्ग जाते समय रास्ते में नरक का दृश्य आया, वहाँ आवाज आई मैं अर्जुन बोल रहा हूँ, मैं नकुल, मैं भीम बोल रहा हूँ आपके यहाँ रहने से हमें शान्ति मिलती है, आप यहीं रहें । युधिष्ठिर ने सोचा देवताओं कि बुद्धि ख़राब हो गयी है, हमारे भाई नरक में हैं । उन्होंने कहा—मैं तो यहीं रहूँगा, तुम जाओ, दृश्य बदल गया स्वर्ग दिखने लगा । सब वहीँ दिखाई दिये । जैसे घोर नरक का दुःख देखकर भी युधिष्ठिर विचलित नहीं हुए, कहा हम यहीं रहेंगे वैसे ही हमको भी अकेले मुक्ति कि इच्छा नहीं करनी चाहिये । ज्ञान होनेके बाद सारी दुनिया दिखती ही नहीं है, वासुदेव सर्वमिति हो जाता है । जबतक वैसी स्थिति नहीं होती तबतक कर्तव्य समझना चाहिये । बारम्बार संसारमें जन्मना-मरना तो महामृत्यु है । जितना प्रयत्न करना चाहिये उतना हम नहीं करते, यह बड़ा भारी शोकका, दुःख विषय है । समय कि अमोलकता हम नहीं जानते, जानते तो इस प्रकार समय व्यर्थ नहीं खोते । क्या आप यह बात समझते हैं कि हम सब मनुष्य ही होते रहेंगे, ये असंख्य कोटि जीव ऐसे ही होते रहेंगे ? यदि ऐसा ही हो तो इसमें विषमता का दोष आता है । जिसको मनुष्य शरीर दे दिया उस पर तो ईश्र्वर ने पूरी दया कर दी । तुलसीदासजी ने कहा है---
जो न तरे भवसागर  नर   समाज अस पाइ ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ।।
 एक ही क्षण में ईश्र्वर कि दया से उद्धार हो सकता है । जैसे कितने ही वर्षों का अंधकार है प्रकाश होते ही नष्ट हो जाता है । बुद्धि पवित्र होने की आवश्यकता है, आगे भगवान् बुद्धि देंगे । निष्काम भावसे बुद्धि पवित्र होती है । निष्कामभावसे प्रभुकी उपासना करने से प्रभु वह बुद्धि दे देते हैं, जिससे प्रभुकी प्राप्ति हो जाती है । शेष अगले ब्लॉग में......

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक दुःखोंका नाश कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]