※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

निरन्तर चिन्तन करें


अब आगे........

संसार का काम भी होता रहे और ईश्र्वर का स्मरण भी होता रहे ? 
मच्चिता  मद्भतप्राणा  बोधयन्त:  परस्परम्
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।। (गीता १०।९ )
               निरन्तर मुझमें मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पण करनेवाले भक्तजन मेरी भक्ति कि चर्चा के द्वारा आपसमें मेरे प्रभाव को जनाते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरन्तर रमण करते हैं
             जिनका जीवन ईश्वर के लिये है, खाना-पीना सब ईश्वर के लिये है तो समझना चाहिये इनका जीवन पवित्र है अपना जीवन प्रभुके लिये ही होना चाहिये ध्येय यही होना चाहिये कि हर समय भगवान् मे ही संतुष्ट रहें । जब तक हम लोग संसारके भोगों में ही रमते हैं तबतक ईश्वर कि प्राप्ति बहुत दूर है प्रभु ऐसे हैं कि एक बार उनकी प्राप्ति हो जाती है तो सारे भोग विष्ठा-तुल्य भासने लगते हैं उनका ऐसा माधुर्यस्वरुप है कि एक बार मन उसमें रम लेता है तो सारी दुनिया से ऐसी घृणा हो जाती है जैसे कसाई का कर्म देखकर फिर लोग संसार में क्यों रमते हैं ? मुर्ख हैं उनका महत्त्व नहीं जानते प्रभु बाजीगर हैं, यह संसार उनकी नाट्यशाला है, बगीचा है मन बुद्धि कि जहाँ गम नहीं हैं, उसे कौन बता सकता है ? प्राप्तिवाला भी नहीं बता सकता बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् यह उनके निकट का भाव है जिस देशमें सूर्य है ही नहीं, उसमें जाकर जिसने सूर्य देखा है वह भी नहीं समझ सकता, फिर सूक्ष्म, अनिवर्चनीय को कौन समझा सकता है यह तो परमात्मा स्वयं ही समझाते हैं ईश्वर ने हमको मनुष्य-देह दिया है, उन्होंने तो हमपर पूर्ण दया कर दी, इससे बढ़कर वह क्या दया करेंगे फिर भी हम अपना कल्याण नहीं करे तो यह परोसी हुई थाली को ठोकर मारना है प्राप्त हुई मुक्ति को ठुकरा रहे हैं संसारी ध्येय रखने की, संसार का मुख्य लक्ष्य रखने कि आवश्यकता नहीं है सारे काम स्वत: होंगे उसके लिये कोई चिन्ता कि बात नहीं है भगवान् पुकारते हैं---उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्नीबोधत
                     सारा समय प्रमाद में, भोगमें जाता है, यह मृत्यु ही है भोग कैसे ? स्वाद, आराम, शौकिनिमें समय बितातें हैं व्यर्थ बकवाद वाणी का प्रमाद है चौपड़, तास, हाथों के द्वारा व्यर्थ कार्य शरीर का प्रमाद है, जिसका परिणाम यहाँ भी तथा आगे भी बुरा है न स्वार्थ है न परमार्थ है संसार का व्यर्थ चिन्तन करते रहना मन का प्रमाद है कोई आवश्यकता नहीं है, फिर भी भटकते रहना भोग प्रमाद साक्षात् मृत्यु है उनका समय बिलकुल व्यर्थ गया, उनसे तो कुत्ते, गधे भी अच्छे हैं मनुष्य शरीर पाकर भी भोगमें फँसे रहे तो पशुओं से क्या कम रहे, अपितु अधिक ही रहे उनमें बुद्धि नहीं है, हममें बुद्धि है जो संसारी रुपयोंका, विषयों का संग्रह करता है वह पापी पाप ही कमाता है आलस्य ही मृत्यु है महाभारत में धृतराष्ट्र से कहा गया है--- हे राजन प्रमाद ही मृत्यु है, क्योंकि उतना काल मृत्यु के मुख में गया पाप कि जड़ में भोग या प्रमाद ही है या तो मुर्खता या आसक्ति है प्रमाद का भोग से भी निचा दर्जा है मनुष्य का समय अधिकतर भोग और प्रमाद में ही जाता है कैसे समझाए कि इनसे तुम हटो जैसे पतिंगे अग्नि  में जाकर मरते हैं दयालु पुरुष देखते रहते हैं, सोचते रहते हैं कि इन्हें कैसे बचाएं पर लाचार हो जाते हैं उन्हें समझाने का तो कोई साधन नहीं, परन्तु मनुष्य तो समझ सकते हैं आत्मा का कल्याण भी कैसा ? सारे जीवों के साथ कल्याण हो, गायत्री मन्त्र में जो प्रचोदयात पद आया है उसका तात्पर्य यह है कि हम सब लोगों कि बुद्धि को प्रेरणा करे, यह नहीं कि मेरी बुद्धि को प्रेरणा करें सारे संसार का कल्याण जब तक नहीं हो जाता तब तक हमारे लिये कर्तव्य शेष ही रहता है महापुरुष सर्वभूतहिते रता: ही होते हैं अच्छे पुरुषों मे कहीं ममता नहीं होती, इसीसे समता रहती है जिसकी बुद्धि परमात्मा से कभी हटती ही नहीं, वही निश्चयात्मिका बुद्धि है मन बुद्धि वशमें हुए बिना ईश्वर में स्थिर नहीं हो सकती पवित्र हुए बिना वशमें नहीं हो सकती अभ्यास तथा वैराग्य से बुद्धि पवित्र होती है अभ्यास प्रयत्न का नाम है, उनका पुनः-पुनः चिन्तन करना चाहिये संसारी भोगों से वैराग्य करना चाहिये भोगों में दुःख समझने से तथा महापुरुषों का संग करने से वैराग्य होता है जो जीवों कि भांति जीते और मर जाते हैं जो इस  कर्तव्य से च्युत हैं  वे मनुष्य होते हुए भी कुत्तेसे भी, पशुसे भी बढ़कर है   

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक दुःखोंका नाश कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]