※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

विश्वजीत यज्ञ



      आपने अपना रुपया मेरे पास जमा करा दिया, अब उन रुपयों का मैं चाहे सो करूँ, आपको दुःख नहीं होता आपका तो जमा हो गया, जब चाहेंगे तब मिल जायेगा, यह विश्वास आपको है, अत: दुःख नहीं होता भगवान् को सब कुछ सौंप दो अपना धन, शरीर, मन, बुद्धि सब कुछ भगवान् को सौंप दो भगवान् को अर्पण करने करनेके बाद तो लोहे का सोना हो जाता है आप अपना सर्वस्व अर्पण कर दें लोहे का सोना हो जानेकी बात होनेपर भी लोग अर्पण क्यों नहीं करते, क्योंकि विश्वास नहीं है
      भगवान् के काम में शरीर, रुपया सब खर्च कर दें शरीर और धन से अपनापन निकाल दें अबतक अपना समझते थे, बीमारी में सुख-दुःख होता था भगवान् को सौंप दिया, अब भी उसी प्रकार ध्यान आदि करते हैं, सुख-दुःख मिट गया
        राजा जनकका याज्ञवल्क्यके अर्पण हो गया फिर राजा उनके सेवक बनकर पूर्ववत कामकाज करने लगे रोटी-कपड़ा खाते पहनते हैं हानि-लाभ से अपना सम्बन्ध नहीं है

       दुःख सुख होते हैं, क्योंकि वास्तव मे भगवान् को अर्पण नहीं किया, केवल कहना मात्र है लपोड़ शंखकी बात है, उससे कोई कहे कि दे हजार तो वह कहता ले लाख अहं लपोड़शंखोऽस्मि ददामि न वदामि च कहना मात्र ही है देना-लेना कुछ नहीं

       सेवक बनकर काम करते हैं, चिन्ता हट गयी, काम ज्यादा सावधानी से करते हैं अपने काममें चाहे असावधानी भी हो जाती, पर मालिक के काम मे असावधानी नहीं होती हानि-लाभ में चिन्ता-फिकर नहीं होती, क्योंकि मालिक का ही तो हानि-लाभ है यदि हर्ष-शोक होता है तो हर्ष-शोक के पेट मे राग-द्वेष मिलेगा जितना उपाय है है सब राग द्वेष के नाश के लिये ही है

         अपना तन, मन, धन सब भगवान् के अर्पण कर दे संसार के हितके काम में खर्च कर दे यह विश्वजीत यज्ञ है मैंने मेरा सारा धन विश्व के अर्पण कर दिया तो विश्व को जीत लिया मैं मेरा सारा धन आपको अर्पण कर दूँ तो आपको जीत लूँ परमात्माके अर्पण कर दूँ तो परमात्मा को जीत लूँ उस चीज कि रक्षा तो करनी चाहिये कोई दुरूपयोग करता हो तो वापस ले लो

         अपना तन, मन, धन, सब अर्पण कर दो बाहरसे-भीतरसे वास्तव में त्याग करे, यह विश्वजीत यज्ञ है इसका फल परमात्मा कि प्राप्ति है परमात्मा कि प्राप्ति अमूल्य है मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा मिलती है, उस समय तो आनन्द आता है, परन्तु यह बहुत बुरी चीज है विषका लड्डू खाते समय मीठा लगता है, किन्तु परिणाम मृत्यु है   यह बात युक्तियों से समझ में आकर भी क्रियारूप में नहीं आ पाती जैसे कुपथ्य करनेवाला रोगी समझ-बुझकर भी कुपथ्य कर लेता है यह बात बराबर सुनता रहे कभी न कभी लगेगी ही  
          पहले तो मान, बडाई, प्रतिष्ठा अमृत के समान लगती है, बादमें अमृतके सामान लगनेपर भी परिणाम में बुरी मालूम होने लगती है रोगी समझदार हो तो जलेबी-रसगुल्ला नहीं खाता, परिणाम को देखता है  और आगे बढ़ने पर रस भी नहीं प्रतीत होता, अपितु मृत्यु के समान लगने लगता है, विष का लड्डू दिखने लगता है लोग जबरदस्ती उसको मान-बडाई देते हैं वह हृदय से नहीं चाहता, अपितु कलंक समझता है यह समझमें आनी चाहीये यह समझमें आते ही बेड़ापर है कोई दे तो स्वीकार न करे
        दुसरे के सुख के लिये स्वीकार करनी पड़े तो खूब सावधान रहे, कहीं अपनेको सुख न हो जाय बड़ा जोखिम का काम है त्याग में तो लाभ ही लाभ है मान-बडाई पर विजय हो गयी तो संसार को जीत लिया इससे कड़ी कोई घाटी नहीं है, आप भगवान् के निकट पहुँच गये संसार में बड़े-बड़े नेता, महात्मा हुए हैं, अगर आपने मान, बडाई का त्याग कर दिया तो आप उनसे भू ऊँचे चले गये, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा मिले तो हृदय से रोओ इतना न हो तो अपने को उससे बचाओ, वहाँ से भागो इसे प्लेग की बिमारी से भी ज्यादा ख़राब समझो भाग न सको तो लज्जित होओ सभा में कोई जबरदस्ती धोती खोल दे तो कितनी लज्जा आये कम-से-कम यह दशा तो होनी ही चाहिये, फिर वहाँ कोई जायेगा क्या ? यहाँ तो लोगोंकी धोती खोलते हैं पुष्प-माला गलेमें डाले तो समझो विष्ठा डाल रहे हैं इत्र-फुलेल लगावे तो मानो पेशाब डाल रहे हैं यह समझमें आ जाय तो फिर उन्नति होनेमें देर नहीं है

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक दुःखोंका नाश कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]