आपने अपना रुपया मेरे पास जमा करा दिया, अब उन रुपयों का मैं चाहे सो करूँ, आपको दुःख नहीं होता । आपका तो जमा हो गया, जब चाहेंगे तब मिल जायेगा, यह विश्वास आपको है, अत: दुःख नहीं होता । भगवान् को सब कुछ सौंप दो । अपना धन, शरीर, मन, बुद्धि सब कुछ भगवान् को सौंप दो । भगवान् को अर्पण करने करनेके बाद तो लोहे का सोना हो जाता है । आप अपना सर्वस्व अर्पण कर दें । लोहे का सोना हो जानेकी बात होनेपर भी लोग अर्पण क्यों नहीं करते, क्योंकि विश्वास नहीं है ।
भगवान् के काम में शरीर, रुपया सब खर्च कर दें । शरीर और धन से अपनापन निकाल दें । अबतक अपना समझते थे, बीमारी में सुख-दुःख होता था । भगवान् को सौंप दिया, अब भी उसी प्रकार ध्यान आदि करते हैं, सुख-दुःख मिट गया ।
राजा जनकका याज्ञवल्क्यके अर्पण हो गया । फिर राजा उनके सेवक बनकर पूर्ववत कामकाज करने लगे । रोटी-कपड़ा खाते पहनते हैं । हानि-लाभ से अपना सम्बन्ध नहीं है ।
दुःख सुख होते हैं, क्योंकि वास्तव मे भगवान् को अर्पण नहीं किया, केवल कहना मात्र है । लपोड़ शंखकी बात है, उससे कोई कहे कि दे हजार तो वह कहता ले लाख । अहं लपोड़शंखोऽस्मि ददामि न वदामि च । कहना मात्र ही है देना-लेना कुछ नहीं ।
सेवक बनकर काम करते हैं, चिन्ता हट गयी, काम ज्यादा सावधानी से करते हैं । अपने काममें चाहे असावधानी भी हो जाती, पर मालिक के काम मे असावधानी नहीं होती । हानि-लाभ में चिन्ता-फिकर नहीं होती, क्योंकि मालिक का ही तो हानि-लाभ है । यदि हर्ष-शोक होता है तो हर्ष-शोक के पेट मे राग-द्वेष मिलेगा । जितना उपाय है है सब राग द्वेष के नाश के लिये ही है ।
अपना तन, मन, धन सब भगवान् के अर्पण कर दे । संसार के हितके काम में खर्च कर दे । यह विश्वजीत यज्ञ है । मैंने मेरा सारा धन विश्व के अर्पण कर दिया तो विश्व को जीत लिया । मैं मेरा सारा धन आपको अर्पण कर दूँ तो आपको जीत लूँ । परमात्माके अर्पण कर दूँ तो परमात्मा को जीत लूँ । उस चीज कि रक्षा तो करनी चाहिये । कोई दुरूपयोग करता हो तो वापस ले लो ।
अपना तन, मन, धन, सब अर्पण कर दो । बाहरसे-भीतरसे वास्तव में त्याग करे, यह विश्वजीत यज्ञ है । इसका फल परमात्मा कि प्राप्ति है । परमात्मा कि प्राप्ति अमूल्य है । मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा मिलती है, उस समय तो आनन्द आता है, परन्तु यह बहुत बुरी चीज है । विषका लड्डू खाते समय मीठा लगता है, किन्तु परिणाम मृत्यु है । यह बात युक्तियों से समझ में आकर भी क्रियारूप में नहीं आ पाती । जैसे कुपथ्य करनेवाला रोगी समझ-बुझकर भी कुपथ्य कर लेता है । यह बात बराबर सुनता रहे । कभी न कभी लगेगी ही ।
पहले तो मान, बडाई, प्रतिष्ठा अमृत के समान लगती है, बादमें अमृतके सामान लगनेपर भी परिणाम में बुरी मालूम होने लगती है । रोगी समझदार हो तो जलेबी-रसगुल्ला नहीं खाता, परिणाम को देखता है । और आगे बढ़ने पर रस भी नहीं प्रतीत होता, अपितु मृत्यु के समान लगने लगता है, विष का लड्डू दिखने लगता है । लोग जबरदस्ती उसको मान-बडाई देते हैं । वह हृदय से नहीं चाहता, अपितु कलंक समझता है । यह समझमें आनी चाहीये । यह समझमें आते ही बेड़ापर है । कोई दे तो स्वीकार न करे ।
दुसरे के सुख के लिये स्वीकार करनी पड़े तो खूब सावधान रहे, कहीं अपनेको सुख न हो जाय । बड़ा जोखिम का काम है । त्याग में तो लाभ ही लाभ है । मान-बडाई पर विजय हो गयी तो संसार को जीत लिया । इससे कड़ी कोई घाटी नहीं है, आप भगवान् के निकट पहुँच गये । संसार में बड़े-बड़े नेता, महात्मा हुए हैं, अगर आपने मान, बडाई का त्याग कर दिया तो आप उनसे भू ऊँचे चले गये, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा मिले तो हृदय से रोओ । इतना न हो तो अपने को उससे बचाओ, वहाँ से भागो । इसे प्लेग की बिमारी से भी ज्यादा ख़राब समझो । भाग न सको तो लज्जित होओ । सभा में कोई जबरदस्ती धोती खोल दे तो कितनी लज्जा आये । कम-से-कम यह दशा तो होनी ही चाहिये, फिर वहाँ कोई जायेगा क्या ? यहाँ तो लोगोंकी धोती खोलते हैं । पुष्प-माला गलेमें डाले तो समझो विष्ठा डाल रहे हैं । इत्र-फुलेल लगावे तो मानो पेशाब डाल रहे हैं । यह समझमें आ जाय तो फिर उन्नति होनेमें देर नहीं है ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक दुःखोंका नाश कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]