भगवान् का नामोच्चारण करते ही सारे पाप नष्ट हो जाते हैं । प्रातःकाल का समय ध्यानके लिये अच्छा है । नाम.रूप,गुण,लीला,प्रभाव.श्रद्धा, प्रेमसहित चिन्तन किया जाय तो महीने का भी काम नहीं है । हमलोगों को समय क्यों लगता है ? हम श्रद्धा-प्रेमपूर्वक ध्यान नहीं करते । जितनी होती उतना प्रेम तो हो ही जाता । भगवान् के प्रभाव-गुण जानने से श्रद्धा होती है । ध्यान के लिये सुगम आसन से बैठ जाना चाहिये । ध्यानके पूर्व वैराग्य की आवश्यकता है । यह बड़ा पवित्र स्थान है । भगवान् का नाम लेने से जो आनन्द हो वह साक्षात् भगवान् ही है । भक्त का भाव जैसा होता है वैसे ही रूप से भगवान् प्रकट होते हैं । पहले इन्द्रियोंकी विषयोंसे वृत्तियाँ हटानी चाहिये । हे मन तू परमात्मा को छोड़कर दूसरी तरफ जाता है, तेरी कितनी नीचता है घृणित पदार्थों में जाता है, पारस से बढ़कर परमात्मा के नाम को , ध्यान को छोड़कर मैले की तरफ जाता है ।
भगवान् कहते हैं जो मेरे सिवाय और किसीमें प्रेम नहीं करता, उसके लिये मैं आता हूँ या सम्भव से सबमें प्रेम हो, तब भगवान् आते हैं । केवल शुद्ध प्रेम होता है स्वार्थ को लेकर नहीं । सारी दुनियामें समान भाव से प्रेम भगवान् में ही है । ऐसे समझकर भगवान् से जो प्रेम करता है वही भक्त है । ह्रदय में पाप भरा पड़ा है, जब तक हृदय में नाम रहे तब तक पाप जलता ही रहता है । भगवान् का नामोच्चारण करते ही सारे पाप नष्ट हो जाते हैं । इसमें हमारा हमारा विश्वास नहीं है । विश्वास हो जाय तो सारे पाप आज ही नष्ट हो जायँ ।भगवान् का नामोच्चारण से भगवान् अधीन हो जाते हैं । जहाँ प्रेम होता है वहाँ छोटा-बड़ा नहीं रहता । भगवान् अर्जुनके अधीन अर्जुन भगवान् के अधीन । अर्जुन थोडा भक्त सखा था । पापनाश के लिये नाम-जप करना युक्तिसंगत नहीं है । पापनाश तो स्वत: ही हो जाता है । उसके लिये प्रार्थना करने की क्या आवश्यकता है । नाम में मुग्ध हो जाते हैं तो उनके दर्शनों से ही पाप नष्ट हो जाते हैं । उसके लिये प्रार्थना करनेकी क्या आवश्यकता है । नाममें मुग्ध हो जाते हैं तो उनके दर्शनों से ही पाप नष्ट हो जाते हैं । भगवान् में प्रेम होनेके प्रेम करना चाहिये । प्रेमका हेतु तो प्रेम ही है । जिसके हृदय में भगवान् का प्रेम हो जायेगा उसके दर्शनों से लाखोंका उद्धार हो जाता है । भगवानके भक्त जहाँ जाते हैं वहाँ तीर्थ का भी तीर्थ बन जाता है । पापियों के स्नान करने से जो मलिनता तीर्थों में आ जाती है वह मिट जाती है । हमें ऊँचा ध्येय रखना चाहिये, ऊँचा उद्देश्य रखना चाहिये । प्रेम हो अनन्य प्रेम हो । प्रेम का लोभ होना चाहिये । यह लोभ भी काम दे देता है । अपना मन, इन्द्रियाँ संसार कि तरफ, भोगों की तरफ जाते हैं, इनपर क्रोध करो । भजन साधन है, प्रेम साध्य है, प्रेम फल है । भजन-ध्यान से प्रेम मिलता है । यदि प्रेम अनन्य हो जायगा तो हम भगवान् को क्यों चाहें, भगवान् ही हमें चाहेंगे । एकान्त में बैठकर ध्यान कि खूब चेष्टा करनी चाहिये ।
प्रशान्तात्मा विगतभिर्ब्रह्म्चारिव्रते स्थित: । मन: संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः । (गीता ६ । १४ )
ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित, भयरहित तथा भलीभांति शान्त अन्त:करणवाला सावधान योगी मनको रोककर मुझमें चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित होवे । प्रभुमें प्रेम नहीं होता तभीतक परिश्रम मालूम होता है । अशान्ति तो नाम-निशान नहीं है । आनन्द सारे संसार में, रोम-रोम में परिपूर्ण है, वह परमात्मा का निराकार स्वरुप है ।
[ पुस्तक दुःखोंका नाश कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]