भगवान् के सिवाय कहीं शान्ति नहीं है । आनन्द के समुद्र में डूब जाय । प्रणव का जप करें, प्रणव ही आनन्द है । आकाश बाहर-भीतर सभी जगह है, ऐसे ही आनन्द सब जगह है । यह निश्चय रखें, जप भी करें, इस प्रकार यह अर्थ सहित जप हो गया । विक्षेप-चंचलता से रहित चित्त में जो प्रसन्नता है वह शान्ति है । माथे की गर्मी ठंडी करने के लिये सबसें उत्तम उपाय शान्ति है । भगवान् के सिवाय कहीं शान्ति नहीं है । इसलिये शान्ति भगवान् का स्वरुप है ।
सहायता तो कोई चाहे जितनी ले लो । सत्संग की बात हो उसमें चाहे जितनी ले लो । गंगा पर जल लाने जायँ तो कोई यह थोड़ी ही कहता है कि मत लो । भगवान् की चर्चा रात दिन हो यही गंगा का प्रवाह है । साकार नहीं हो सके तो निराकार का ध्यान करो । आँख मूंदकर प्रकाश ही प्रकाश देखें । आनन्द का ध्यान करें, प्रसन्नता होती है वह आनन्द ही है । ध्यान यदि रहे तो जप भले ही न हो, जप तो सहायक है । यदि जप नहीं हो पाये तो ध्यान करें, ध्यान नहीं हो तो जप करें । ध्यान आनन्द-ज्ञान स्वरुप का करें । भगवान् बुरा नहीं चाहते । कोई राजा कानून से विरुद्ध चलना नहीं चाहता । भगवान् की सामर्थ्य तो बहुत है । वह असंभव को सम्भव कर सकतें है । हम लोग बुराई करते हैं । भगवान् मनुष्य को रोकते नहीं, उन्होंने मनुष्य को स्वतन्त्रता दी है तो रोके कैसे । बुराई करेगा तो दण्ड मिलेगा । जो भगवान् की आज्ञा के विरुद्ध चलते हैं वे नास्तिक है । जीवोंको थोड़ी स्वतन्त्रता कल्याण के लिये मिली, पर वे इसका दुरूपयोग करते हैं । इसमें भगवान् का नुक्सान नहीं है । भगवान् ने तो जीव का बंधन इसलिये खोला कि अपना सब बंधन काट ले । पर यह काटता नहीं । जो ईश्वर में विश्वास-श्रद्धा नहीं करता उसको दण्ड मिलेगा । जिसे विश्वास होगा वह बुराई नहीं कर सकेगा । परमात्मा नहीं है ऐसा मानने वाला नास्तिक है । जैसे कोई बुराई करता है तो उसका पिता पहले ही रोक देता है, पर भगवान् का यह कानून नहीं है । भगवान् ने ऐसा नियम क्यों रखा ? ऐसा प्रश्न हम भगवान् से नहीं कर सकते हैं । हाँ आप एकान्त में रोकर भगवान् से पूछ सकते हैं । संसार में कोई दुखी कोई सुखी देखने में आता है इससें यह बात सिद्ध होती है । कोई चाहता है कि हमारी बुराई दूर हो जाय तो प्रभु उसकी सहायता करते हैं, पर ऐसा कानून नहीं है कि संसार में कोई बुराई करने ही न पाये । फिर तो सबका कल्याण ही हो जाय । भगवान् इच्छा रहित हैं, उनमें इच्छा नहीं हो सकती हम इच्छा करते हैं कि सब जीवों का कल्याण हो जाय । जीवों को फँसाने के लिये माया नहीं रची गयी । माया तो अनादि है । हम लोग ही स्वप्न की तरह माया रचाते हैं । परमात्मा ने किसी को नहीं रचा । अविद्या, माया, प्रकृति यह अनादि है नहीं तो ईश्वर पर दोष आता है । तीनों चीजें अनादि है । परमात्मा उनमें व्यापक है । परमात्मा नित्य है, अनादि है । जीव, माया और माया का कार्य भी प्रवाह-रूप से अनादि है । गंगा का प्रवाह सदा बह रहा है । आज सूर्य चन्द्र है वह पहले नहीं थे, उनसे पहले ऐसे ही थे, अब फिर वैसे बनाये गए, कार्य कारण से उत्पन्न होता है और कारण में ही विलीन होता है । जीव, परमेश्वर, माया-यह तीन चीजें और इनका आपस में सम्बन्ध अनादि है । देह में जैसे आत्मा व्यापक है वैसे ही परमात्मा ब्रह्माण्ड में व्यापक है । वेदान्त के सिद्धांत से जल बर्फ की तरह मान सकते हैं । भक्ति के सिद्धांत सें शरीर में आत्मा की तरह व्यापक है । परमात्मा की स्वयं अपनी तरफ सें तो इच्छा है नहीं, होती नहीं । वह तो हमारी इच्छा से ही प्रकट होते हैं । हम प्रार्थना करें तो शायद स्वीकार हो जाय । पर स्वत: भगवान् में ऐसी इच्छा नहीं होती । हमें सारे संसार के लिये प्रार्थना करनी चाहिये । स्वीकार न हो तो कोई बात नहीं ।
भगवान् का यह आग्रह नहीं है कि तुम मानों या न मानों । मानोगे तो पुरस्कार मुक्ति या स्वर्ग मिलेगा न मानोगे तो दण्ड योनी रूप नरक या स्थान विशेष नरक मिलेगा । मानने में स्वतन्त्रता है, भगवान् रोकते नहीं, परतन्त्रता इतनी है कि पाप करने सें दण्ड मिलता है ।
बुरी बुद्धि को सुधारने के लिये यानी शुद्ध बनाने के लिये भगवान् ने हमें स्वतन्त्रता दी है । अपने स्वभाव-सुधार की जो चेष्टा करता है उसका सुधार होता है । अन्त:करण के दोषों को हटाने के लिये आत्मा स्वतन्त्र है, यही तो उपदेश शास्त्र है ।
भगवान् सबकी आत्मा है, सबकी सेवा भगवान् की सेवा है, परमात्मा समझकर सबका आदर करना परमात्मा की सेवा है । नाम का जप भी भजन है, ध्यान भी भजन है, मनन भी भजन के अंतर्गत है । भक्ति सें, प्रेम सें जो क्रिया होती है वह भजन है । भगवान् कहते हैं तू प्रेम सें मेरा सेवन कर । वही भगवान् का भक्त है जो भगवान् जो कुछ कर देते हैं उसीमें संतुष्ट रहता है । आनन्द ही आनन्द, आनन्द ही आनन्द ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]