※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 10 सितंबर 2012

भावना के अनुसार फल


 
सब जग ईश्वर रूप है,  भलो बुरो नहीं कोय
जैसी  जाकी   भावना   तैसो ही  फल होय ।।
  सारा संसार ईश्वर रूप है, जिसकी जैसी भवन होती है उसको उसी के अनुरूप फल भी प्राप्त होता है मनुष्य जब बीमार होता है तब वह बहुत ही व्याकुल होता है उसकी व्याकुलता का प्रधान हेतु यही है कि वह उस रोग में दुःख की भावना करता है वेदना का अनुभव होना दूसरी बात है और उससें दुखी होना और बात है यदि रोग में दुःख कि जगह तप कि भावना कर ली जाय तो मनुष्य रोगजन्य दुःख सें अनायास ही बच सकता है वह केवल दुःख से ही नहीं बच जाता, ताप कि भावना से उसके लिये वह रोग ही तप तुल्य फल देने वाला भी हो जाता है इस रहस्य के समझ लेने पर ज्वरादि व्याधियों में मनुष्य को किन्चिन्न्मात्र भी शोक नहीं होता जैसे तपस्वी पुरुषको तप करने में महान परिश्रम और अत्यन्त शारीरिक कष्ट उठाना पड़ता है, परन्तु वह कष्ट उसके लिये शोक प्रद न होकर  शोकनाशक और शान्तिप्रद होता है, वैसे ही रोग में तप की भावना करने वाले रोगी को भी उसकी दृढ सद्भावना के प्रभाव से वह रोग शोक प्रद ना होकर हर्ष और शान्ति प्रद हो जाता है भावना के अनुसार ही फल होता है, इसलिये रोग पीड़ित मनुष्य को उचित है कि वह रोग में तप की ही नहीं, बल्कि यह भावना करे, यह रोग दया में भगवान् का दिया हुवा पुरस्कार रूप प्रसाद है अत: एव `परम तप ` है यदि रोग आदि में इस प्रकार परम तप की भावना सुदृढ़ हो जाय तो अवश्य ही वे रोगादि परम तप के फल देनेवाले बन जाते हैं परम तप इहलौकिक कष्टों से छुड़ाकर जीवको स्वर्गादि से लेकर ब्रह्मलोक तक पहुँचा सकता है और यदि फलासक्ति को त्याग कर कर्तव्य बुद्धि से ऐसे परम तप का साधन किया जाय तो वह इस लोक और परलोक में मुक्तिरूप परमा शान्तिकी प्राप्ति करनेवाला बन जाता है तप से जैसे पूर्वकृत पापों का क्षय हो जाता है, वैसे ही रोग-पीड़ा आदि में परम तप कि दृढ भावना से जीवके समस्त पापों का क्षय हो जाता है और उसे परम पद कि प्राप्ति हो जाती है जब तक मनुष्य रोग को कष्टदायक समझता है, तभी तक वह उससे द्वेष करता है, परन्तु वही रोग जब तपके रूपमें- उपासना के स्वरुप में परिणित हो जाता है तब वह उससे तपशील  तपस्वी कि भांति न तो द्वेष करता है, न उसमें कष्ट मानता है और न उसकी निन्दा करता है वह तो तपस्वी कि तरह उसकी प्रशंसा करता हुआ, किसी भी कष्टकी किन्चित भी परवाह न करके परम प्रसन्न रहता है इसी अवस्था में उसके रोग को `परम तप ` समझा जा सकता है । शेष आगे......
 
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]