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अत्यन्त व्याधि- पीड़ित होने पर जब मनुष्य के सामने मृत्यु का महान भय उपस्थित होता है, उस समय उस मृत्यु में `परम तप` की भावना करने सें वह भी मुक्ति का कारण बन जाती है, यध्यपि मृत्यु समय में विद्वानों को भी भय लगता है तब व्याधि-विकल विषयी मनुष्योंकी तो बात ही क्या है । तथापि मृत्यु के समीप पहुंचे हुए व्याधि-पीड़ित मनुष्य को मुक्ति के लिये इस प्रकार कि भावना करने का यथा साध्य प्रयत्न तो अवश्य ही करना चाहिये कि `तप की इच्छा से वन में गमन करने वाले तपस्वी को जैसे उसके मित्र-बान्धव वन के लिये विदा कर देते हैं, उसी प्रकार मृत्यु के अनन्तर मुझे भी मेरे मित्र-बान्धव वन में पहुँचा देंगे । वही मेरे लिये परम तप होगा । एवं जैसे तपस्वी वन में जाकर पंचाग्नि आदि सें अपने शरीर को तपाता है, वैसे ही मेरे बन्धु-बान्धव मुझे अग्नि में दग्ध करके तपावेंगे जो मेरे लिये परम तप होगा ।
इस प्रकार मृत्यु रूप महान कष्ट को परम तप समझने वाले को शोक और मृत्यु का भय नहीं होता । उसें मृत्यु में भी परम प्रसन्नता होती है । जैसे तप के लिये वनमें जाने वाले तपस्वी को वन जाने में भय और बन्धु-बान्धव तथा कुटुम्बियों के वियोग का दुःख न होकर प्रसन्नता होती है और जैसे वन में चले जाने के बाद पापों के नाश तथा आत्मा कि पवित्रता के लिये किये जाने वाले पंचाग्नि-ताप में शारीरिक कष्ट शोक प्रद न होकर उत्साह, शान्ति और आनन्द प्रद होता है, वैसे ही अपनी सुदृढ़ भावना से मृत्यु को `परम तप` के रूप में परिणत कर देने वाले पुरुष को भी मृत्यु का भय और शोक नहीं होता । ऐसी अवस्था होने पर ही समझना चाहिये कि उसका मृत्यु को परम तप के रूपमें समझना यथार्थ है । श्रुति कहती है-----
`एतद्वै परमं तपो यद्व्याहितस्तप्यते परम्ँ हैव लोकं जयति य एवं वेदैतद्वै परमं तपो यं प्रेतमरणय्ँ हरन्ति परम्ँ हैव लोकं जयति य एवं वेदैतद्वे परमं तपो यं प्रेत्मग्नावभ्यादधति परम्ँ हैव लोकं जयति य एवं वेद ।`
`ज्वरादि व्याधियों से पीड़ित रोगी जो उस व्याधि से तपायमान होता है, उस कष्ट को ऐसा समझे कि यह `परम तप` है । इस प्रकार उस व्याधि की निन्दा न करके और उससें दुखित न होकर उसें `परम तप` मानने वाले विवेकी पुरुष का वह रोग रूप तप कर्मों का नाश करने वाला होता है और उस विज्ञान से उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं, वह परम लोक जीत लेता है अर्थात मुक्ति को प्राप्त हो जाता है । इसी प्रकार मृत्यु के समीप पहुँचा हुवा मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होने से पूर्व किस तरह चिन्तन करे कि मरने के अनन्तर मुझे अंत्येष्टि के लिये लोग जो ग्राम सें बाहर वन में ले जायेंगे, वह मेरे लिये परम तप होगा (क्योंकि ग्राम से वन में जाना `परम तप ` है, यह लोक में प्रसिद्ध है ) । जो उपासक इस प्रकार समझता है वह परम लोक को जीत लेता है । तथा मेरे शरीर को वन में ले जाकर लोग उसे अग्नि में जलावेंगे, वह भी मेरे लिये परम तप होगा ( क्योंकि अग्नि से शरीर तपाना परम तप है, यह लोक में प्रसिद्ध है )। जो उपासक इस प्रकार समझता है, वह परम लोक को जीत लेता है अर्थात मुक्त हो जाता है ।`
उपर्युक्त श्रुति द्वारा उपदिष्ट विवेचन के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को रोग और मृत्यु में परम तप की भावना करके परम पद की प्राप्ति के लिये पुरा प्रयत्न करना चाहिये ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]