१ भगवान् के विषय का यथार्थ ज्ञान ही तप है । भगवान् कहते हैं इस प्रकार मुझे जानकर बहुत लोग भजन करके तर गये ।
२ भगवान् का यह कानून है कि जो मुझे भजता है उसे मैं भजता हूँ । जिसे मैं भजूँ उसके उद्धार में क्या शंका है ? मेरी तो सामर्थ्य है मैं जिसे चाहूँ वह मेरे पास आ सकता है, फिर उसके उद्धार होने में क्या शंका है ?
३ संसार में लोग जिसे मूल्यवान समझते हैं उसे ही याद करते हैं ।
४ अंगदने हनुमानजी से कहा कि समय-समय पर भगवान् को मेरी याद दिलाते रहना । जिसे भगवान् याद करते हैं उनका बड़ा भारी भाग्य है ।
५ भरद्वाज मुनि ने कहा कि हे भरत ! सारी दुनिया भगवान् को भजती है और तुम्हे भगवान् भजते हैं ।
६ कारक पुरुष का जन्म भी दिव्य है, किन्तु भगवान् से कुछ अन्तर है । भगवान् की तरह पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं है, उनकी पूर्ण शक्ति नहीं है । संसार में उनका जन्म प्रादुर्भाव की तरह भी हो सकता है, जन्म लेकर वे क्लेश नहीं पाते हैं । जैसे भगवान् का आना संसार के हित के लिये होता है उसी प्रकार कारक पुरुषका भगवान् कीआज्ञा से ही आना होता है ।
७ मनुष्य की अपेक्षा ज्ञानीका कर्म दिव्य है, पर जन्म दिव्य नहीं है । उनके कर्म में भी प्राय: सारी बात आ जाती है । सिद्धि आदि ज्ञानी में नहीं होती, यह कोई नियम नहीं है ।
८ अन्तकाल के समय भगवान् के भजन का प्रभाव यह बतलाया गया है कि उससे कल्याण हो जाता है । उसी प्रकार भगवान् के हाथ से मरने से मुक्ति हो जाती है।
९ चाहे भगवान् का भजन करता हुआ जाय, चाहे नाम-जप करता हुआ जात, चाहे सत्संग करता हुआ जाय । इनमें चाहे जैसे ही जाय, उसका कल्याण जो जायगा ।
१० एक महापुरुष का भी अन्तकाल में दर्शन हो जाय तो उन्हें थोडा बहुत जानने से मुक्ति हो सकती है ।
११ आप अपनी शक्ति के अनुसार भगवान् को कहाँ चाहते हैं ? अन्य सब काम छोड़कर भगवान् में मन लगा दें ।
१२ हम अपनी सारी शक्ति का प्रयोग कहाँ करते हैं, सारी शक्ति का प्रयोग करने के बाद फिर विलम्ब का क्या काम है ?
१३ भगवान् से यदि विशेष प्रेम है तो औरों से प्रेम क्यों ? " अव्यभिचारिणी " भक्ति करनी चाहिये ।
१४ आपने यह निश्चय कर लिया कि हमारी सांसारिक वस्तुओं की रक्षा भगवान् कर रहे हैं; किन्तु भगवान् का चिन्तन नहीं छोड़ना चाहिये, शरीर की क्रिया चाहे हो, चाहे मत हो ।
१५ भगवान् कहते हैं तू केवल एक मुझको ही भज ।
१६ मनुष्य भगवान् के मिलने में मनसे जितनी छूट चाहता है उतनी ही देर होती है । धीरे-धीरे पहुँच तो जायगा पर देर लगेगी । हिम्मतवाला तो बहुत ही जल्दी पहुँच जायगा, कम हिम्मतवाला रोता-रोता जायेगा ।
१७ भक्तिसहित निष्काम कर्म के मार्गको जानना कोई कठिन बात नहीं है । जो आदमी यह समझ जाय कि इसमें अपना बहुत ज्यादा लाभ है फिर उस आदमी को भारी थोड़े ही लगेगा । अपना मित्र कहता है कि इसमें इतना लाभ है, मेरे पर विश्वास करके काम कर लो तो क्या विलम्ब है । यदि लाभ नहीं भी दीखे, चाहे जीवन नष्ट हो जाय, उसकी कुछ भी परवाह नहीं करे । केवल विश्वास करके अच्छे पुरुषों के बताये हुए मार्ग के अनुसार ही चलने कि चेष्टा करे, उसमें कुछ भी विचार नहीं करे ।
१८ परमात्मा कि प्राप्ति तो बहुत ही सहज है ।
१९ आपको परोपकार में जो कुछ खर्च करना हो खुले हाथ से खर्च करें, किन्तु आप लोगों से धन खर्च नहीं हो तो यह स्त्रियों की तरहकी मुर्खता है । आपके पास एक चादर है, दूसरा कोई माँगे तो बहुत आदर और प्रसन्नता से दे दें । उसकी चीज उसे प्रसन्नता से सम्हला दें तो अपनी जोखिम मिटी । इसमें गरीब-अमीर की बात नहीं है । आपके पास जो कुछ हो उसमें उदारता का भाव रखें ।राजा रन्तिदेव का उदाहरण देखें । आपके पास कुछ भी नहीं हो तो आये हुए से मीठा बोलें, जल पिला दें । इसमें रुपयों की प्रधानता नहीं है । तन, मन की प्रधानता है । कोई एक आदमी पाँच दिन शरीर से काम करे और एक आदमी पाँच सौ रुपया दे, पाँच दिन के समय के बराबर रुपया नहीं है ।
हमारा लक्ष्य तन, मनसे है, रुपयों से नहीं है, क्योंकि धनवान् तो बहुत थोड़े मिलते हैं ।शेष अगले ब्लॉग में.........
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'दुःखोंका नाश कैसे हो ?' श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड १५६१, गीता प्रेस,गोरखपुर ]