※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 30 जून 2012

भगवान के चिंतन का महत्त्व - २

प्रवचन नंबर १८


दो बात आपसे बनने में आवे तो बहुत ही उत्तम है, नहीं तो एक ही बात की आप भगवान की स्मृति हर वक्त रखिये | इससे सबकुछ हो सकता है | महर्षि पतंजलि भी कहते हैं – भगवानके नाम का जप और स्वरुप का ध्यान करना चाहिए, इससे सारे विघ्नों का नाश हो जाता है | भगवान गीताजी (९/३०) में भी कहते हैं – मेरी भक्ति का प्रभाव सुनकर, यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त हुआ मेरेको निरंतर भजता है, तो वह साधू ही मानने योग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है अर्थात उसने भली भाँती निश्चय कर लिया है की परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है |

तुलसी दासजी भी कहते हैं –
जबही नाम हिरदे धर्यो, भयो पापको नास |
मानो चिंगी आगकी, परी पुरानी घास ||

निरंतर भगवानके चिंतन से भगवानकी प्राप्ति अवश्य हो जाती है | अन्त्काल्में तो हो ही जाती है | पहले भी हो सकती है | अपने तो पुकार लगानी चाहिए | पुकार हो प्रेम की | केशव केशव कुकिये ना कुकिये असार | यह तो सामान्य बात बताई, अब विशेष बात बताई जाती है –

हमें अपने घर जाकर सब के साथ प्रेमका व्यवहार करना चाहिए | एक ही बात है की स्वार्थ का त्याग करना चाहिए | स्वार्थ त्याग करनेसे प्रेम होता है | स्वार्थ त्याग ऐसी चीज़ है जो दूसरों को आकर्षित करनेवाली है | यह मोहनी मन्त्र है, इससे दूसरों को वश में करने की अलौकिक शक्ति है | स्वार्थ त्याग से आपही प्रेम होता है | यह बात हमें सीखनी चाहिए, इससे अलौकिक लाभ है | जब तक आपकी भोग और आराम में बुद्धि रहेगी तब तक आपका उद्धार नहीं हो सकता | जब तक आप भोग और आराम चाहते रहेंगे तब तक आप इश्वर से दूर रहेंगे | आज तक आपको भगवान की प्राप्ति नहीं हुई इसकी जड़ में प्रधान कारण भोग और आराम है| परमात्मा की प्राप्ति में विघ्न है तो यही है | साधन में रुकावट है तो इसीसे | इसलिए यदि परमात्मा की प्राप्ति आवश्यकता है तो इन्हें छोडना पड़ेगा | मन तो एक है चाहे परमात्मा में लगाओ, चाहे विषयों में |

कबीरा मन तो एक है, भावे जहां लगाय |
भावे हरिकी भक्ति कर, भावे विषय कमाय ||
चाहे जिस प्रकार हो, आपको अपना मन परमात्मा में लगाना चाहिए| मनको परमात्मा में लगाना ही होगा |

मन फुरना से रहित कर जौ ना विधि से होय |
चाहे भक्ति कर चाहे योग कर ||
इस समय योग और ज्ञान मार्ग कठिन है | इसलिए भक्ति करने की बात कही जाती है | इश्वर के प्रेम में पागल हो जाना चाहिए | फिर देखो मजा |

भोग और विषयों में जितना आपको आनन्द प्रतीत होता है उससे लाख गुना ज्यादा आनन्द वैराग्य में है| और जब आगे बढ़ जाता है तो संसार से उपरति हो जाती है, तब और भी आनन्द अधिक हो जाता है | और जब परमात्मा का ध्यान होता है तो उस सुख की तो जाती ही दूसरी है | जब परमात्मा प्राप्त हो जाते हैं तो उस सुख की तो बात ही क्या है ! परमात्मा की प्राप्ति कठिन भी नहीं है | भगवान ने गीताजी (७/१४) में कह दीया है की – क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्भुत त्रिगुणमई मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है, परन्तु जो पुरुष मेरेको ही निरंतर भजते हैं, वे इस मायाको उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात संसार से तर जाते हैं |

इसलिए हमें लाख काम छोडकर वाही काम करना चाहिए, जिसके लिए हमें मनुष्य शरीर मिला है | संसार में ऐसा कोई काम नहीं जो हमने नहीं किया, किन्तु परमात्मा की प्राप्ति अभीतक नहीं की, यह काम तो करना ही है | मनुष्य का शरीर पाकर विषयों में मन देना तो मूर्खता है | 

नर तनु पायी बिषय मन देहि | पलटी सुधा ते सठ बिष लेहीं ||

परमात्मा अमृत, बिषय भोग विष है | विष खानेवाला तो विष खाने से एक ही बार मरता है, विषय भोगरुपी विष को खाने से बार-बार जन्मता-मरता ही रहता है | इसलिए अमृत रुपी परमात्मा का सेवन करना चाहिए | यही प्रधान बात है | और गंगा के किनारेसे जाकर घरपर नित्य-प्रति स्नानादि करके संध्या, गीतापाठ तथा ध्यान करना चाहिए | तथा भगवानकी मानसिक पूजा करनी चाहिए | साकार-या निराकार कोई सा भी ध्यान करना चाहिए | 

प्रात:काल – सांयकाल ध्यान-सहित नामजप करना तथा हर वक्त भगवान को याद रखते हुए ही काम करते रहना चाहिए | भजन-ध्यान की खुराक बना लेनी चाहिए | अपने मनमें निश्चय करलेना चाहिए की हम भगवान का भजन-ध्यान करेंगे, चाहे प्राण भले ही चले जाय| ध्यान के लिए प्रात:काल और सांयकाल का समय बहुत ही उत्तम है | यहाँ गंगाजी के किनारे का चित्र याद करलें तो हमारे चित्त में वैराग्य उत्पन्न हो सकता है | भजन-ध्यान खूब श्रद्धा और प्रेमसे करें | मनुष्य प्रेमसे मग्न होकर थोडा भी भजन करता है तो भगवान प्रसन्न हो जाते हैं | इसी प्रकार संध्या और गायत्री जप प्रेमसे करना चाहिए |    

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण....
[पुस्तक 'भग्वान्नाम महिमा एवं परम सेवा का महत्त्व' श्री जयदयाल जी गोयन्दका ] शेष अगले ब्लॉग में .....

शुक्रवार, 29 जून 2012

भगवान के चिंतन का महत्त्व - १

प्रवचन नंबर १८


भजन-ध्यान-सेवा यह खेती है, इन्हें सींचना चाहिए | इसकी सिंचाई होती है सत्संग-रुपी जल से | सत्संग नहीं मिले तो साधक-पुरुषों का संग करना चाहिए, वह भी नहीं मिले तो गीताजी, रामायाण, आदि शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए, इससे भी खेती हरी-भरी रह सकती है |

स्वामीजी रामसुखदासजी ने कहा आगेके लिए साधन बना रहे, उसके लिए बात बताइये | उसके लिए एक बात है| बात है बहुत दामी, हम समझ लें की मृत्यु का कोई भरोसा नहीं है, ना मालूम कब मृत्यु हो जाए, मृत्यु के समय भगवान की स्मृति नहीं रही तो निश्चय ही दुर्गति है | पता नहीं कब मृत्यु आ जाए, इसलिए हमें हर समय भगवान का चिंतन करते रहना चाहिए| चाहे हमारे प्राण चले जाएँ, हम भगवानको भूलें नहीं | यही गीताजी(८/१४) में भगवान ने भी कहा है | नित्य-निरंतर भगवान का स्मरण है, इससे भगवान सुलभ है|

आप सोचो यदि हमें अंत-समय में पशु की स्मृति हो गई तो पशु ही बन जायेंगे, जैसे जड़-भरत मुनि हरिण बन गए | अंत-समयका पता नहीं, इसलिए दूसरी चीज़ को मौका दें ही नहीं | तुम्हारा तो परमात्मा को छोडकर और कोई नहीं है | स्त्री-पुरुष आदि सब तुम्हें त्यागने वाले हैं | उत्तम बात तो यह है की तुम पहले ही इन्हें त्याग दो | आप लाख उपाय करो, कुछ भी आपके साथ जानेका नहीं है | यह शरीर भी आपके साथ नहीं जाएगा | मरना अवश्य पड़ेगा, लाख उपाय करो तो भी मरना पड़ेगा | इसलिए शरीर से और ऐश्वर्य (प्राप्त वस्तुओं) से खूब काम लेना चाहिए, जब तक आपका अधिकार है तब तक लाभ उठा लेना चाहिए | यही बुद्धिमानी है | आपको पश्चताप नहीं करना पड़े, अंत समयमें रोना नहीं पड़े इसलिए कुछ नहीं बस भगवान का स्मरण करें हर समय | भगवानकी अपनेपर दया-कृपा समझकर भगवानको याद रखें, प्रभुको मत बिसारो, उनको अपने लक्ष्य में रखो, फिर तो बेडा पार है | गीताजी (८/५) को याद रखो |

इसलिए निरंतर भगवान का स्मरण रखो, पता नहीं कब मृत्यु हो जाए| हमलोग खूब राजी-खुशी घूम रहे हैं | यदि हैजा हो जाए तो ६ या १२ घंटे में खत्म | यह तो स्थिति है हमारी | आप रोक नहीं सकते की हमको हैजा नहीं चाहिए | जैसे चूहे घूमते हैं और अचानक बिल्ली पकड़ लेती है, इसी प्रकार काल ताक रहा है | वह अचानक आकार पकड़ेगा | इसलिए हमें हर वक्त मृत्यु को याद रखना चाहिए | इसी बातको बताने के लिए नारायण स्वामी कहते हैं –
दो बातनको भूल मत, जो चाहत कल्याण |
नारायण एक मौत को, दूजे श्री भगवान ||

मृत्यु को याद रखनेसे एक तो नया पाप नहीं होता और दुसरे भगवान याद रहते हैं | आपसे पुण्य कर्म नहीं बने तो ना सही, पाप तो मत करिये | और प्रभुको याद रखिये, फिर आपके कल्याण में संदेह नहीं है|

संत मिलन अरु हरिभक्ति दुर्लभ जग में दोय |
सूत दारा और लक्ष्मी पापिके भी होय ||

स्त्री, पुरुष सब दुनियामें यानी सब योनियों में होते हैं | दो ही बात दुर्लभ है, एक तो सत्संग और दूसरी इश्वर-भक्ति | इश्वर की भक्ति रुपी खेती सूख रही है, वह सत्संग से हरी-भरी रहती है | इसलिए हर वक्त प्रफुल्लित रहने के लिए सत्संग करना चाहिए | 

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण....
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गुरुवार, 28 जून 2012

एक बार भगवान को प्रणाम करना दस अश्वमेघ यज्ञसे बढ़कर है - २


प्रवचन  नंबर २०.ख

एक भगवानके नामका त्रिलोकिके राज्यके लिए भी बदला नहीं करना चाहिए| त्रिलोकी का राज्य भी उसके सामने तुच्छ है| वह भी मूढ़ है जो उसके बदले त्रिलोकी का राज्य लेता है| उसका मूल्य कुछ नहीं जो प्रभु के नाम का है| भगवान गीताजी में कहते हैं की जो मुझको जान लेता है वह फिर सब प्रकार से मुझको ही भजता है| (गीताजी १५/१९)

जो यह कहता है की कितना भजन करनेसे भगवान मिलते हैं तो ऐसा कहने वाला भक्त तो नहीं है| भक्त तो यही कहता है की मैं तो रात दिन भजन ही करता रहूँ| जो भजन से छूटकारा चाहता है उसे भगवान से छुट्टी नहीं मिलती, जो प्रभु को दिलमें बसाना चाहता है उसपर भगवान की कृपा होती है| हे प्रभो ! हमारा आपमें अनन्य प्रेम हो, प्रेम नहीं तो चिंतन ही हो| अत: हमको चलते फिरते प्रभु का चिंतन करना चाहिए | भगवान के स्मरण के लिए नाम सहायक है, अत: कम-से-कम २१६०० श्वास से ही माला के हिसाब से नाम जप करना चाहिए | (मतलब हम दिन भर में २१६०० श्वास लेते हैं) इस हिसाब से १४ माला ही कम से कम (हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे , हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे) फेरे | तो इसके लिए विचार करना चाहिए और आजसे ही माला फेरनी शुरू कर देनी चाहिए|

मनुष्य की योनी और ऐसी भगवद-चर्चा मिलने पर भी जो अपना कल्याण नहीं करेगा तो वह अवश्य ही निंदा का पात्र है, आत्म-हत्यारा है| यह सब ख्याल करके अपने समय को एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गँवाना है| सबसे उत्तम समय वही है जिसमें हर समय भगवान को याद रखा जाए |  

जो ना तरे भव सागर नर समाज अस पाई |
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाई ||
अर्थ – जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से ना तरे, वह कृतघ्न और मंद-बुद्धि है और आत्म-हत्या करनेवाले की गति को प्राप्त होता है |

सो परत्र दुःख पावई सिर धुनी धुनी पछताई |
कालहि कर्मही इस्वरही मिथ्या दोष लगाईं ||
अर्थ – वह परलोकमें दुःख पाता है, सिर पिट-पीटकर पछताता है तथा अपना दोष ना समझकर कालपर, कर्मपर और इश्वर पर मिथ्या (झूठा) दोष लगाता है | जो अपने समय को गवाएगा तो फिर उसे धुन धुन पछताना पड़ेगा |

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण.......  
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बुधवार, 27 जून 2012

एक बार भगवान को प्रणाम करना दस अश्वमेघ यज्ञसे बढ़कर है - १

प्रवचन नंबर २०.क


संसारके ऐश-आराम गिरानेवाले हैं, सबसे बढ़कर उत्तम कार्य करना चाहिए| कलयुग में सबसे उत्तम कार्य भजन माना गया है| यदि वह निष्कामभावसे किया जावे तो बहुत ही उत्तम है|

जबहीं नाम हिरदे धर्यो, भयो पापको नास |
मानो चिनगी आगकी, परी पुरानी घास ||

कलिजुग सम जुग आन नहीं, जो नर कर बिस्वास |
गाई राम गुण गन बिमल भव तर बिनाही प्रयास ||   
अर्थ - यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलयुग के समान दूसरा युग नहीं है| इस युगमें श्रीरामजीके गुण समूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार से तर जाता है| इसलिए हर समय भगवानका भजन ही करना चाहिए| 

कलियुग केवल नाम आधारा | सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा ||
नाम के जाप से नामी याद आता है और नामकी स्मृति से काम बनता है| भगवान ने कहा – अन्तकाले च मामेव एक क्षणमें यानी अन्तमें स्मरण करनेसे  कल्याण हो जाता है| तो फिर एक नामसे कल्याण हो जावे तो बात ही क्या है ! एक पुरुष अपनी पूरी सम्पतिको यज्ञ, दानादि में खर्च करके समाप्त कर चुका है और दूसरे ने अंत-कालमे भगवान का स्मरण किया है तो उससे वह अंतकालमें भगवान का स्मरण करनेवाला बहुत ही उत्तम है| क्योंकि जिसने दानादि किया है वह उनके पुण्य क्षीण होनेपर फिर संसारमें आता है| यह गीताजी(९/२०) में आया है -

जो तीनो वेदों में विधान किये हुए सकाम कर्मों को करनेवाले और सोमरसको पीनेवाले एवं पापोंसे पवित्र हुए पुरुष मेरेको यज्ञके द्वारा पूजकर स्वर्गकी प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्योंके फलरूप इन्द्रलोक्को प्राप्त होकर स्वर्गमें दिव्य देव्तओंके भोगोंको भोगते हैं|

और वे उस विशाल स्वर्गलोक भोगकर, पुण्य क्षीण होनेपर, मृत्युलोकको प्राप्त होते हैं, इस प्रकार स्वर्ग के साधारण रूप तीनों वेदोंमें कहें हुए सकाम कर्मके शरण हुए और भोगोंकी कामनावाले पुरुष बारंबार जाने-आनेको प्राप्त होते हैं अर्थात पुण्यके प्रभावसे स्वर्गमें जाते हैं और पुण्य क्षीण होनेसे मृत्युलोकमें आते हैं| (गीताजी ९/२१)

प्रेमसे अन्त समयमें यानि प्राण जानेके समय जो एक बार भगवानको प्रणाम कर लेता है वह मुक्त हो जाता है| ऐसा दस अश्वमेघ यज्ञ से भी नहीं होता| एक बार भगवान को प्रणाम करना दस यज्ञ करनेवाले से बढ़कर है| वह यज्ञ करनेवाला तो वापस आता है, पर भगवानको नमस्कार करनेवाला नहीं लौटता|

जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं | अंत राम कही आवत नाही ||
जासु नाम बल संकर कासी | देत सबही सम गति अबिनासी ||
 अर्थ - मुनिगन जन्म-जन्ममें (अनेकों प्रकारसे) साधन करते हैं| फिर भी अंतकालमें उन्हें राम’ नहीं कहना आता (उनके मुखसे राम नहीं निकलता)| जिनके नामके बलसे शंकरजी काशीमें सबको सामान रूपसे मुक्ति देते हैं|

मम लोचन गोचर सोई आवा | बहुरि की प्रभु अस बनिहि बनावा ||
अर्थ - वह श्रीरामजी स्वयं मेरे नेत्रोंके सामने आ गए हैं| हे प्रभो ! ऐसा संयोग क्या फिर कभी बन पड़ेगा?

बाली कहता है मुनि लोग अनेक प्रकारके दानादि करते हैं पर आत्माका उधार नहीं होता| अन्तमें राम कहकर जो जाते हैं वे फिर लौटते नहीं| मुनिलोग अनेक प्रकार से यत्न करते हैं| बिना भक्तिके किया हुआ कर्म वापस आनेवाला होता है| ऐसा कौन मुर्ख होगा जो इस मौके को खोवेगा? बाली ने यही कहा महाराज आपके दर्शनके बाद भी में क्या पापी रहा ?

सुनहु राम स्वामी सन चल ना चातुरी मोरी |
प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरी ||
अर्थ - (बालीने कहा) हे रामजी! सुनिए, स्वामी (आप) से मेरी चतुराई नहीं चल सकती| हे प्रभो!  अंतकालमें आपकी गति पाकर मैं अब भी पापी ही रहा क्या ? आपका ध्यान करता हुआ पुरुष भी वापस नहीं आता फिर में तो आपका दर्शन करता हूँ|

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण............  
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मंगलवार, 26 जून 2012

भगवान खुद आकार ले जाते हैं - २

प्रवचन नंबर २१. ख 


सत्संग के जोर की बात आपको बताता हूँ | भग्वानमें प्रेम हो, वही उत्तम सत्संग है| दो नंबर का सत्संग है – महापुरुषों का संग| किन्तु प्रथम तो महापुरुष इस संसार में बहुत ही कम हैं| १०० करोड़ लोगों में से १०० महापुरुष भी मिल जाए तो सारे संसार का बेडा पार है| और अगर हैं तो दीखते नहीं| या तो एकांत में या वन में रहते हैं| करोड़ सन्यासियों में से कोई एक महात्मा होता है| उन हजारों महात्माओं में से कोई एक भगवत प्राप्ति के लिए अनन्यचित्त से प्रयत्न करता है| और बाकी सब तो रुपयों, स्त्री, विषय-भोगों की तरफ भागते रहते हैं|

मनुष्य शरीर पाकर भी यदि हमने कुत्ते के समान व्यवहार किया तो शास्त्र कहेंगे – तुम पर धिक्कार है|हम पर दुःख आते हैं और हम उन्हें रोकने की जगह बैठकर रोते हैं| रोनेका स्वभाव पड़ गया है | भोगो फिर से ८४ लाख योनियाँ| 

सब क्यों नहीं जानते ? क्योंकि उनमें तीव्र साधन नहीं है| इसलिए करोड़ों में से कोई एक ही पुरुष परमात्मा को जानता है| महात्मा को कैसे जाने ? यह तो तभी संभव है जब महात्मा जनाना चाहे तो या इश्वर की कृपा से | भगवान से रोकर इसकी प्रार्थना करें तो प्रभु यह काम भी कर देंगे |

प्रश्न – यह कैसे पता लग जाए की हम महात्मा का तत्व, रहस्य जान गए हैं ?
उत्तर – जो भगवान के रहस्य को जान जाता है, भगवान के प्रेम तत्व को समझ जाता है तो वह उससे फिर छूटता नहीं है| इसी प्रकार महात्मा के तत्व को जान जाता है तो महात्मा उससे छूटता नहीं है| 

आप कहें की वह आदमी तो नहीं छोड़ें, किन्तु महात्मा छोड़ दें तो ? नहीं, यह असंभव है | इन ३ की प्रतिज्ञा है – इश्वर, धर्म और महात्मा – इनको जो पकड़ लेता है वे फिर उसको छोड़ते नहीं हैं| शास्त्र कहता है की -  सारे प्यारे-प्यारे बंधू शमशान में छोडकर चले जाते हैं, किन्तु धर्म नहीं छोड़ता हैं |

प्रश्न – क्या इश्वर नहीं जाता है ?
उत्तर – इश्वर वहाँ तक क्या जाए; इश्वर तो पहलेही उसे अपने गले लगाकर अपने परमधाम ले जाते हैं| शमशान में तो लाश जाती है| 

आप यदि पूछो की – भगवान खुद आकार ले जाते हैं या अपने आदमीं  भेजते हैं ? दोनों ही बात है| या तो वे खुद आते है या अपने पार्षदों को भेज देते है| भगवान के जो दूत हैं उन्ही का नाम पार्षद है| जो बहुत ज्यादा प्रेमी होता है, प्रेमसे प्रभु को खरीद लेता है, तो वहाँ भगवान खुद आते हैं| यदि ध्यान का बल होता है तो पार्षद आते हैं| 

आप कहें की – यमराज खुद भी आते हैं क्या ?हाँ खुद भी आते हैं| सावित्री के पति सत्यवान के लिए यमराज आये| अधिकान्श्में उनके दूत ही आते हैं| इसी प्रकार जो साधक पुरुष होते हैं उनके लिए तो प्रभु के पार्षद ही आते हैं| सिद्ध पुरुषों के लिए भगवान आते हैं|

सत्संग की बात है – जो महात्मा को जान जाता है उससे महात्मा से वियोग नहीं होता| प्रारब्ध के कारण शरीर का तो वियोग हो जाता है, किन्तु भीतर का वियोग नहीं होता| भीतर का संयोग ही असली संयोग हैं| समझो आपसे मेरा प्रेम है, तो आप हजारों मील दूर भी रहे तो भी पास में ही है| यदि प्रेम नहीं है, यहाँ व्याख्यान हो रहा है, पास में बैठे हैं तो सोते रहते हैं| तीर्थ यात्रा में कोई अजनबी पास में बैठा है तो पासमें होनेपर भी वह दूर ही है| यह महात्मा के सत्संग का जोर बताया|

कोई भी एक जोर है तो उसके कल्याण में संदेह नहीं है| कोई भी जोर हो, उस जोर के आधार पर पहले ही कल्याण कर लेना चाहिए| आप पूछते हैं की – तीर्थ में वास करता-करता तीर्थ को छोड़ देता है तो ? छोड़ देता है तो तीर्थ के रहस्य को उस व्यक्ति ने समझा ही नहीं| इसी प्रकार महात्मा को छोड़ देता है तो महात्मा के तत्व को समझा नहीं| प्रेम को छोड़ दीया तो मतलब प्रेम के तत्व को नहीं समझा | सबमें एक ही रहस्य है| तत्व रहस्य को समझता तो तत्व को छोड़ता नहीं| रुपयों का लोभी क्या रुपयों को छोड़ सकता है ? रुपयों को महात्मा छोड़ सकता है, लोभी नहीं|

ख्याल करना चाहिए की अर्जुन अपने पीतामाह भीष्म और द्रोणाचार्य जो कुलगुरु हैं, उन्हें बाणों से मारता है, क्योंकि भगवान का आदेश है| आदेश का पालन करते हुए भी भीष्म पीतामाह में जो पूज्यभाव है वो कम नहीं हुआ| भीष्मजी को बाणों से मारकर उनके चरणों में प्रणाम करता है| भीष्मजी ने कहा तकिया लाओ|कौरव आदि लोगों ने मखमल का तकिया लाया | भीष्म ने कहा – मेरे लायक तकिया लाओ !तब भीष्म ने अर्जुन की तरफ देखा| अर्जुन ने भीष्म के सर में बाण मारकर सिर को ऊंचा कर दीया| भीष्म खुश हो गए और अर्जुन से कहा- तुमको धन्य है| तुम यदि इस प्रकार का तकिया नहीं देते तो मैं तुम्हे शाप दे देता |

फिर भीष्म जी ने जल माँगा| सब लोग झारी लेकर दौड़े| भीष्म जी ने कहा – मेरे लायक यह जल नहीं है !मरने की उस समय तयारी है | अर्जुन ने ज़मीन में बाण छोड़ा | ज़मीन फोडकर गंगाजी निकली और भीष्म जी के मुख में गंगाजल गिरने लगा|

 
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...... 
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सोमवार, 25 जून 2012

भगवान खुद आकार ले जाते हैं - १

प्रवचन नंबर २१. क

अंत कालमें आपको भगवान की स्मृति होगी इस बात का क्या प्रमाण है ?

 श्रद्धा की कमी नहीं हो तो, युक्ति और शास्त्र किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है| भगवान ने श्रुति, स्मृति का प्रमाण देकर अर्जुन को समझाया, विश्वास दिलाया | कोई एक बात का मनुष्य के हाथ में जोर रहना चाहिए| अंत कालमें एक तो सप्तपुरियों का सहारा है  - अयोध्या, मथुरा, काशी, कांची, मायापुरी, अवंतिका, द्वारकापुरी | यहाँ वास हो तो मुक्ति हो| यह स्थान की महिमा है| इसपर निर्भर हो तो यह एक रास्ता है|

इसी प्रकार प्रभु के नामजप और स्मरण का बड़ा महत्व है | वही मनुष्य कह सकता है की मेरे कल्याण में संदेह नहीं हैजो निरंतर सारा जीवन नामजप और प्रभु स्मरण में ही बिता दे | जो ऐसा साधन करता है उसको भगवान अंतकाल में नहीं, पहले ही मिल जाते हैं| निरंतर प्रभु का स्मरण करना – यह पुख्ता नींव है| इसमें अंतकाल की जरूरत ही नहीं पड़ती| प्रभु पहले ही आ जाते हैं|

किसी प्रकार का जोर होना चाहिए| दूसरा तीर्थ-स्थान का वास है| कोई आदमी ब्रज में या काशी में रहते हैं | उनका पक्का निश्चय है की कोई भी हाल में हम यहीं मरेंगे|यह तीर्थ स्थान की शरण होना है| वह पक्का है| और एक योग की शरण है| जैसे समाधि लगाना आ जाए और मृत्यु के वक्त योगी समाधि लगाकर बैठ जाए| योगी के पास योग का जोर है|

योगका, तीर्थका या प्रभु स्मृति का जोर होना चाहिए| जैसे स्मृति का जोर है, ऐसे ही नाम का जोर हो तो वह उत्तम है | भगवान के रूप का जिसको स्वाद आ गया उसका चाहे फिर गला ही क्यों ना काट दो, उसे कुछ दुःख नहीं होगा| भगवान के रूप का भी बड़ा विलक्षण आनन्द होता है | जो निरंतर जिस बात का चिंतन करेगा, उसे अंतकाल में उसी की याद आएगी| यदि भगवान का चिंतन करेगा तो उसे स्वप्न भी भगवान का ही आएगा |

कोई भी एक चीज़ कायम रह जाए तो कल्याण में संदेह नहीं है| सत्संग का आधार भी एक प्रकार का विलक्षण आधार है| असली सत् संग तो वह है की जो सत् है, परमात्मा है उसमें प्रेम होना| ऐसे सत्संग की तो मुक्ति भी दासी है| यह सत्संग कौनसा है ? इसका भागवतमें प्रकरण आया है – वहाँ यही बात दिखाई है की सत् जो परमात्मा है, उसमें जो प्रेम है उसी का नाम सत्संग है|  


भागवत प्रेम की महिमा जितनी बताओ उतनी थोड़ी है| भागवत प्रेमी पुरुष तो मुक्ति को सदावर्त बांटते हैं| प्रेम का जो प्रभाव है, उसे मैं नामके प्रभाव से भी ज्यादा दामी मानता हूँ| नामका प्रभाव भी मैं दामी मानता हूँ| प्रेमके मुकाबले में मुक्ति कोई चीज़ नहीं है| इसमें भगवान का नामजप तथा ध्यान ही प्रधान है| पहला श्लोक (गीताजी ८/१२) हटा दो और चाहे एक ही (गीताजी ८/१३) रख लो तो भी बेडा पार है| किन्तु (गीताजी ८/१३) हटा दो और (गीताजी ८/१२) रखो तो कुछ नहीं| यह सब बात योगी के पास है, उसके पास योग का जोर है| आप जप, ध्यान, आदि करो और योग ना कर सको तो कोई बात नहीं|


नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
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रविवार, 24 जून 2012

भगवान प्रत्येक की इच्छा पूर्ण करते हैं - २

प्रवचन नंबर २२.ख , स्वर्गाश्रम
१५-०५-१९५२


प्रश्न यदि कोई अपने आप को महात्मा नहीं मानने देगा तो हमारा उद्धार कैसे होगा ?
उत्तर- हमें यदि कोई साहूकार मानकर कहें कि – आप हमारे रूपये जमा कर लो , ब्याज भी नहीं लेंगे|तो यदि हम उनके रूपये नहीं जमा करेंगे तभी हमारी बडाई है| यदि हम जमा करलें तो यह बहुत ही खराब चीज़ है| यदि कोई अपनेको श्रेष्ट माने तो यह उसके लिए बहुत ही पतन की चीज़ है| जो अपने-आप अपनी पूजा करवाता है उसमें उसकी श्रद्धा हट जाती है| यह बात इस प्रकार से समझनी चाहिए की- हम माता-पिता, गुरुजनोकी सेवा करें और वे मन करें तो उनकी तरफ आदर बढ़ता है, दूसरों पर बड़ा ही अच्छा असर पड़ता है| यह त्याग है| इस त्याग का जितना प्रभाव पड़ता है, उतना किसी और चीज़ का नहीं पड़ता है| रुपयों, ऐश-आराम, मान-बडाई का त्याग करना चाहिए|

हम त्याग की बात दूसरों को तो कहते हैं, और हममें ही त्याग की भावना नहीं है, तो दूसरों पर उतना अधिक प्रभाव नहीं पड़ता है| जिसमें त्याग की भावना जितनी ज्यादा है वह उतना ही श्रेष्ठ है| आजकल जो भाषण देते हैं, उनका प्रभाव इसलिए नहीं पड़ता क्योंकि उनमें वे बातें घटती नहीं, जो कुछ उनके द्वारा कही जाती है| मैं तो भक्तो की गाथाओं में से और भगवानके वचनों में से कह दिया  करता हूँ| उसका पालन जो भी करेगा उसी को फायदा होगा| यदि मैं ऐसा कहूँगा कि – मैं इतना बड़ा आदमी हूँ, मेरेमें सब बातें हैतो मुझे महात्मा कोई भी नहीं कहेगा | अपने मुहसे अपनी बडाई तो करनी ही नहीं चाहिए, उससे किसी पर भी प्रभाव नहीं पड़ता है|

प्रश्न स्त्री को ओंकार का उच्चारण करना चाहिए या नहीं ? 
उत्तर स्त्रीको ॐ कारकी उपासना या उच्चारण नहीं करना चाहिए और जिस मंत्र में ॐ आता है उसका भी शास्त्रों में निषेध किया है| हम तो यहाँ इसके निषेध की प्रार्थना करते हैं| यदि कोई ना सुने तो हमारे को कोई मतलब नहीं| हमारेको ना तो कोई व्यक्तिगत लाभ अथवा हानि है| यह तो विनय के रूप में कहा गया है| वह माने या ना माने यह उनकी मर्जी है| वैदिक मन्त्रों का स्त्री के लिए निषेध है| वैदिक मन्त्रों में हरी ॐ होता है| स्त्री, शुद्र(द्विजको, जिनका जनेऊ संस्कार नहीं हुआ हो; उनको भी) कभी भी नहीं करना चाहिए| अच्छे-अच्छे विद्वानों की बातें सुनकर ही आपको कहा गया है | इतिहास-पुराण तो सुनने का ही नहीं, पढ़ने तक का अधिकार है| 

एक बार हम और अच्छे-अच्छे संत आदमी, यहीं ऋषिकेश में जमा हुए थे| मैं तो एक साधारण आदमी ही हूँ| मालवीयजी का यह पक्ष था की – स्त्रियाँ पौराणिक बातें पढ़-सुन सकती हैं|और करपात्रीजी महाराज ने कहा – सुन सकती हैं, किन्तु पढ़ नहीं सकती |जब हमारेसे राय ली, तब हमने तो कहा की-दोनों ही बातें शास्त्रों में आती हैं|   

शुद्र तथा स्त्री ओंकार का जप ना करें| कहीं-कहीं यह भी मिलता है की – दंडी स्वामी ही ओंकार का जप कर सकते हैं | किन्तु रामके नाम का उतना ही महत्व है जितना ओंकार का है| हमारे लिए तो मुक्ति का द्वार खुला हुआ है, हम क्यों ओंकार के जप की जिद करें| मैं तो कहता हूँ की – अल्लाह-अल्लाह जिस प्रकार मुसलमान करते हैं, वे यदि प्रेम में मग्न होकर करें तो उन्हें भी उतना ही फल मिलेगा |

तुलसीदासजी राम-नाम के उपासक थे | उन्होंने कहा- राम नाम सबसे बढ़कर है|”  उन्होंने रामचरित मानस की रचना करके राम नाम को पार उतरने का साधन बता दिया | सूरदासजी ने कहा कि  कृष्ण नाम सबसे बढ़कर है| ध्रुव कहेंगे की ॐ नमो भगवते वासुदेवायऔर मुसलमान कहेंगे की अल्लाह खुदा ही सबसे बढ़कर है |”  जैसे कोई पानी को कहें – जल, कोई कहें - आप:, कोई कहें – नीर, कोई कहें – वाटर या पानी, कुछ भी क्यों ना हो, अर्थ तो जल ही होगा | ऐसे ही परमात्मा के बहुत से नाम हैं कोई भी नाम लो मुक्ति मिल सकती है|

बच्चा कहता है – ‘बू’ तो माँ समझकर उसे दूध पीला देती है| इसी प्रकार हम ओंकार का जप ना करके राम नामका जप करेंगे, तो राम नाम के जपसे हमारा उद्धार क्यों नहीं होगा ? अवश्य होगा |


नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण......
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शनिवार, 23 जून 2012

भगवान प्रत्येक की इच्छा पूर्ण करते हैं - १


 प्रवचन नंबर २२.क

प्रश्न – रामायण में कहा है – “राम सदा सेवक रूचि राखी |” तो क्या अंगदजी भगवानके सेवक नहीं थे, जो उन्होंने अंगद को अपने पास ना रखकर अयोध्यसे भेज दीया ? उत्तर – भगवान तो सदा भक्त की रूचि रखते ही हैं | उनमें कुछ वासना रही होगी इसलिए उन्हें वहाँ भेज दीया | 

प्रभु तो अंतर्यामी हैं, सबके मनन की बात जानते हैं| मनमें कुछ वासना समझकर की उसे किष्किन्धा भेजा होगा| अंगद भगवान के ऊपर कोई भार तो था ही नहीं| अंगद की युवराज पदमें प्रीति थी, उसका उस तरफ खींचाव था | यह सोचना चाहिए की भगवान जो करते हैं सब ठीक ही करते हैं| भगवान की किष्किन्धा में दूकान तो चलती थी नहीं, जो उसे वहाँ भेजते | वाल्मीकीय रामायण में लिखा है की – रामजी ने पुछा था की – “लाव्नासुरको कौन मार सकता है ?” शत्रुघन्जी ने कहा – “मैं मार सकता हूँ|” तो भगवान ने उनको भेज दीया और वहाँ का राजा बना दीया| भगवान सब कुछ जानते हैं, वे ठीक ही करते हैं| ऐसे ही सीताजीने कहा – “मैं वनमें जाकर ऋषियों के दर्शन करूंगी|” तब महाराज ने लक्ष्मण के साथ कुछ ही दिनों में सदा के लिए वनमें भेज दीया|

भगवानको भीतरी इच्छा का पता होनेसे वे प्रत्येक की इच्छा को पूर्ण करते हैं| अंगद किष्किन्धा में रहना चाहता था इसलिए ही उसे वहाँ भेज दीया – यही मतलब निकालना चाहिए| अंगद यदि भगवान के बिना नहीं रह सकता था तो फिर प्रार्थना करता| प्रार्थना करनेका तो उसका अधिकार था ही| इसलिए ऐसा मालूम होता है की उसकी रूचि वहाँ रहने की ही थी| भगवान जो भी उसके लिए विधान बनाते हैं वो तो ठीक ही है| उसकी इच्छा की तो पूर्ति की भगवान ने| 

 गीताजी से लाभ उठाना चाहिए| गीताजी रोम रोम में रमानी चाहिए, जिस प्रकार रामजी के नाम को हनुमानजी ने रोम रोम में रमाया था, उसी प्रकार हमें भी गीताजी रोम रोम में रमानी चाहिए| गीताजी के सामान कोई भी ग्रन्थ नहीं है| हमें प्रभु को हर वक्त याद रखना चाहिए जैसे गोपियाँ रखती थी| यह बात भागवत के दशम स्कंध में भी आई है – गोपियाँ बिलौने के समय ही क्या, हर वक्त भगवान को याद रखती थी| इसलिए तो भगवान को बाध्य होकर यह कहना पडा की – “गोपियों के सामान कोई भक्त नहीं है |”

पता नहीं कब मर जाएँ ? कब हार्ट फेल हो जाए ? कब यात्रा करते वक्त गाडी की पटरी के नीचे आ जाए? इसलिए जब हम हर समय भगवान के नाम का जप करेंगे तो ही अंतकाल में भगवान याद आयेंगे| और नाम याद आनेसे हम निश्चय ही उनके धाम को चले जायेंगे | भगवानकी स्मृति में जो आनन्द मिलता है वह सांसारिक विषयों में नहीं मिल सकता| कहाँ भगवान का चिंतन और कहाँ विषय ! कहाँ राजा भोज, कहाँ गान्गियाँ तेली ! कहाँ राम-राम, कहाँ टांय-टांय !

चमकती तो है चिरमी, पारस तो पत्थर का सा ही दीखता है| बच्चों के सामने यदि ये २ चीज़ें रख दी जाएँ तो वे चिरमी ही लेंगे| उसी प्रकार वो मनुष्य भी बच्चे की तरह ही है जो राम नाम रुपी पारसमणि को छोडकर विषय-रुपी चिरमी मांगते हैं | कितना आनन्द है, इसका रेहेस्य तो वही समझता है जो भजन करता है| जो अमृत देवता पान करते हैं, उसे हम क्या समझें ? उसे वे देवता ही समझ सकते हैं| इसी प्रकार यह नाम-रुपी अमृत है|

 कोई कहें की भगवान के नाम में कोई मजा नहीं है, अत: मन नहीं लगता| तो वह कुछ समझता है ही नहीं| शक्कर के ढेले पर एक चींटी को रख दो| यदि वो उसे नहीं चखेगी तो उसे स्वाद भी नहीं आएगा| उसी प्रकार हम भगवान के नामो पर कुछ ध्यान ही नहीं देते हैं, इसलिए ही उसका आनन्द नहीं आता| वैराग्य करना चाहिए| हमें ही वैराग्य की बातें जाननी चाहिए| यदि हम वैश्या को वैराग्य के विषय में पूछेंगे तो वह वैश्या क्या बतावेगी ?

संत-महात्माओं में भगवद बुद्धि करनी चाहिए| वे जो भी बात कहेंगे हमारे भले के लिए ही कहेंगे| यदि वह संत सच्चा नहीं है तो भगवान उसकी बुद्धि ठीक करेंगे| हमारे तो यहाँ अंधेर है, परमात्मा के यहाँ तो अंधेर है ही नहीं| यदि हम दूसरों में इश्वर बुद्धि करेंगे तो हमारा उद्धार हो जाएगा| इश्वर पर निर्भर होकर रहना चाहिए| एकांत में बैठकर रोना चाहिए – “हे प्रभु ! यदि हमारे में गलती है तो सुधारिये| धोकेमें हैं तो सुधारिये | जो कुछ हमारी चेष्ठा है वह आपके लिए ही है| हम तो कुछ जानते हैं ही नहीं| आप ही जानते हो|” भगवान पर निर्भर होकर गदगद वाणी से प्रार्थना करनी चाहिए| फिर जो आदेश मिले उसपर विश्वास कर लेना चाहिए| अन्तमें एक रामबाण बताते हैं – भगवान से प्रार्थना करनेसे भगवान जो भी प्रेरणा करेंगे, उस प्रेरणा के अनुसार व्यवहार करनेसे मुक्ति हो सकती है| मनुष्य की सलाह से तो क्या होनी-जानी है ?

अब मैं महात्मा का कर्त्तव्य बताता हूँ| यदि किसी जिज्ञासु ने उसपर भगवद-बुद्धि कर ली तो उस महात्मा को इसका घोर विरोध करना चाहिए| यदि वह शास्त्र-सम्मत काम नहीं करता है तो वह दूसरों को धोका देता है| महात्मा का कर्त्तव्य होता है की वह यथाशक्ति रोकने की कोशिश करें| ऐसा करनेसे वह दोष का भागी नहीं होता| यदि वह प्रोत्साहन देता है और अपनेमें श्रद्धा करवाता है या जम्वाता है तो वह महात्मा नहीं है|

हम ४८ वर्ष से इस कामको कर रहे हैं| हमारी जब २० वर्ष की आयु थी तबसे ही यह काम शुरू कर दीया था| यदि आप इस बात को काम में लावेंगे तो मेरा इतना परिश्रम सफल हो जावेगा| यही युक्ति-युक्त, शास्त्र-समात बात आपसे कही गयी है| महात्में यदि कोई इश्वर बुद्धि करे तो उसको रोकना चाहिए| यदि वह नहीं रोकता है तो अपनेको और शिश्य्को दोनों को ही गर्त में डालता है| जिन्होंने अनुचित श्रद्धा की है उन्होंने पश्चाताप भी किया है| इसलिए यदि किसीकी महात्मा में भगवद-बुद्धि हो भी जाए तो वह महात्मा का ही कर्त्तव्य है की वो उसको रोके| आप यदि मुझे इश्वर मानेंगे और मैं आपको प्रोत्साहन दूंगा तो वह बहुत ही खराब होगा| और यदि मैं उसे रोकूँगा तो वह किस प्रकार गर्त में जा सकता है ?


 नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण..........      
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शुक्रवार, 22 जून 2012

भगवानको खोकर भोगोमें मन देना मूर्खता है

प्रवचन नंबर २८. (२०-११-१९३७)
गोरखपुर


बंगाल की बात है| एक बड़े धनि सेठ थे| उसके यहाँ ग्वालिन आई| सूर्य अस्त होने में समय कम था| उसने कहा – पैसा दीजिए| उसके मुनिमने कहा की थोड़ी देर रुको| उसने फिर कहा – समय नहीं है| ३ बार उस स्त्री ना कहा की सूर्य डूब रहा है, समय कम है| तो उसी समय सेठ ने उसको रूपये दिलवा दिए और उसी समय सब रुपयों-पैसो का हिसाब करके चल पड़ी, बोली समय नहीं है| हमारा सूर्य अस्ताचल में जा रहा है| उस सेठ को ग्वालिन का इतना ही उपदेश लग गया और वह प्रभु के शरण होकर महान भक्त हो गया| हमारा भी यही हाल है भाई, समय कहाँ है ? 

गीताजी(९/३३) को याद करो| ऐसा शरीर पाकर मेरा ही भजन कर और किसी अन्य को अपने मनमें स्थान मत दे| मेरा भक्त हो | मेरे सिवा और किसीमें प्रेम मत कर| मेरा पूजन करनेवाला और मुझे ही नमस्कार करनेवाला हो जा|

सारी इन्द्रियाँ प्रभु में ही लगा दें| भगवान कहते हैं – तू निश्चय मुझको ही प्राप्त होगा| कोई कहता है की समय कहाँ है ? जो समय बचा है वह सारा प्रभु को सौप दो| पहले का समय सांसारिक भोगोमें चला गया, अब बाकी जो समय है वह सारा भजन में ही जाना चाहिए| जो इस प्रकार समझता है, वही पुरुष धन्य है| किसी संत ने कहा है -

आये थे कुछ लाभ को, खो चले सब मूल |
फिर जावोगे सेठ पास, तो पले पड़ेगी धूल ||

क्या फिर हमको मनुष्य शरीर मिलेगा ? जब हम ठीक तरह से समय नहीं बिताएंगे तो फिर आगे जाकर सेठ को क्या जवाब देंगे| इसलिए बचा हुआ समय तो प्रभु को समर्पण कर दो भाई |

पायो परमपद हाथ सो जात, गई सो गई अब राख रही को |

उदाहरण – एक धनि आदमी था | किसीको १०० रूपये व्यापार करने को उधार दीया और कहा की मूल पुन्जिमें से खर्च मत करना| उसने १०० रुपएमें से ७५ रूपये खर्च कर दिए और २५ रूपये शेष रहे| तब उसके मिलनेवाले लोगों ने कहा की मालिक बड़ा दयालु है, जो कुछ बचा है वह लेकर चलो, तो वह बोला मेरी तो सेठजी के पास जाने की हिम्मत नहीं है, आपलोग साथ चलो, तो वे लोग दयालु थे साथ चले गए| उसने सेठ को सच्चा हाल कह दीया, दुःख और संकोच प्रदर्शित किया| तब मालिक ने क्षमा कर दीया| इसी प्रकार हम जो आयु भगवान से लेकर आये थे वह अधिकांशत: खो चुके हैं| अब भी बाकी बची हुयी आयु भगवानको सौंप दें यानी उनके भजन-ध्यान में ही समय बितावे तो ठीक है| महात्मा लोग भी सच्चे आदमी की सिफारिश भगवानसे कर देते हैं| परन्तु जो लोग अब भी छिपकर बात करते हैं, कपट रखते हैं, और शेष बचे २५ हैं बताते १५ हैं, उसकी सुनवाई नहीं होती| महात्मा को भी भगवान कहते हैं की इसकी जेब्को संभालो| यदि ९० रूपये खर्च हो गए हो और १ भी बचा हो तो उसको तो पूरा का पूरा सौंप दो| उसमें भी चोरी करो तो काम नहीं चल सकता| मनुष्य का जीवन अमूल्य है किसी भक्त का कहना है – 

हाथ उठाके के कहत हूँ कहाँ बजाऊ ढोल |
श्वासा खाली जात है तीन लोक का मोल ||

एक – एक श्वास का मूल्य त्रिलोकी से भी बढ़कर है | अंत के श्वास में यदि भगवान की स्मृति हो गयी तो बेडा पार है समझो| भगवान की प्राप्ति १ साल में नहीं, १ महीने में, १ दिन में, १ घडी में क्या १ क्षण में हो सकती है| भगवान के सिवाय दूसरी तरफ मन जावे ही नहीं, भगवान की स्मृति ही जीवन का आधार बन जावे तो उसी क्षण प्रभु की प्राप्ति हो जावे | उससे भी अधिक मूल्य समय का है |

प्रभु का ऐसा कानून है की अगर अंत समयमें १ सेकण्ड आपके हाथ में हैं और प्राण जाने वाले हैं, बस ! उसी समय आपकी मुकटी हो सकती है| कैसे ? प्रभुकी स्मृति या नामजप से | प्रभु बड़े दयालु हैं, उनके यहाँ बड़ी छूट हैं |पापियों के लिए ही है, धर्मात्माओं को तो जरूरत ही क्या ? प्रभु सोचते हैं की अब ये मर जाएगा तो फिर ना मालूम लाख या करोड जन्म के बाद कब मनुष्य होगा | अंत समयमें सब गुनाह माफ हैं, अंत काल में बस प्रभु को याद करलो |

हम लोगों को समय की इतनी कदर है ? रूपया कमाने में लगे हैं बस | एक तरफ रूपया और एक तरफ भगवान | सोचलो| अरे मुर्ख अपने बीवी बच्चे के लिए क्या कमाता है | सारा विश्व ही हमारा कुटुंब है | कहाँ भौतिक उन्नति और कहाँ भगवान ! ऐसा मनुष्य शठ, मुर्ख, मूढ़ है | प्रभुके ध्यानमें जो आनंद है वह त्रिलोकी के राज्य में भी नहीं|

विषयओं का विष – गुड़में लपेटा हुआ, लड्डू में छिपाया हुआ विष है| दुर्योधन ने भीम को लड्डू में विष डालकर दीया था, भीम प्रसन्नता से खा गया फिर दुर्योधन ने लता-पता से लपेटकर समुद्र में गिरा दीया| समुद्रमें नागलोक में भीम चला गया, और सापों ने विष चूस लिया उससे उसका विष उतर गया| वह सावधान होकर घर चला गया, भीमको ऐसा मौका मिल गया तब तो बच गया नहीं तो मर जाता| उसने धोकेसे विष भरा लड्डू खाया, और हम तो डंके की चोट पर मांग मांग कर खा रहे हैं| शास्त्र, महात्मा स्पष्ट कह रहे हैं, घोषणा कर रहे हैं, की यह विष है| भीम को कोई कह देता तो क्या वो खाता ? इसलिए हम लोगों को हमारा समय विष-भोगोमें ना बिताकर प्रभु के भजन ध्यान में ही बिताना चाहिए| भजन-ध्यान का आनन्द प्रत्यक्ष है| ऐसा नहीं है जैसे श्राद्ध, दान का फल परलोक में मिलता है |     

 नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण..........      
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गुरुवार, 21 जून 2012

मृत्यु समयके उपचार

प्रवचन नंबर ३६.

हिंदू जातिमें मनुष्य के मरनेके समय घरवाले उसका परलोक सुधारने के बहाने कुछ ऐसे काम कर बैठते हैं जिससे मरनेवाले मनुष्य को बड़ी पीड़ा होती है | इसलिए नीचे दी गयी बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए – 


१.       यदि रोगी २-३ मंजिल ऊपर हो तो ऐसी हालत में उसे नीचे लाने की कोई आवश्यकता नहीं है |

२.      खटियापर सोया हुआ हो तो वहीँ रहने देना चाहिए |

३.      यदि खटिया पर मरनेमें कुछ बेहेम हो और नीचे उतारकर सुलानेकी आवश्यकता समझी जाए तो अनुमान से मृत्युकाल के २-४ दिन पहलेसे ही उसे खात्से नीचे उतारकर जमीनपर बालू बिछाकर सुला दें| बालू ऐसी नरम होनी चाहिए जो उसके शरीरमें कहीं गड़े नहीं| रोगी अच्छा हो जाए तो वापस खटियापर सुलानेमें कोई आपत्ति नहीं है | २-४ दिन पहले रोगीको अनुमान हो जाए तो उसे स्वयं ही कह देना चाहिए की मुझे नीचे सुला दो |

४.      उस अवस्था में उसे मृत्यु से पहले उसे स्नान कराने की कोई आवश्यकता नहीं है, इससे व्यर्थ में उसका कष्ठ बढता है| मल वगेराह साफ़ करना हो तो गीले गम्चेसे धीरे धीरे पोंछकर साफ़ कर देना चाहिए |

५.     इस अवस्थामें गंगाजल, तुलसी देना बड़ा उत्तम है, परन्तु उसे निगलने में क्लेश होता हो तो तुलसिका पत्ता पीसकर उसे गंगाजल में मिलाकर पीले देना चाहिए | एक बार में एक तोलेसे अधिक जल नहीं देना चाहिए| १०-५ मिनट बाद फिर दीया जा सकता है| गंगाजल बहुत दिनों का बेस्वाद ना हो, पहले स्वयं चखकर फिर रोगी को देना चाहिए | जो कड़वा हो अथवा गंध आती हो वह ना दें| ताजा गंगाजल कहींसे ही मांगा लेना चाहिए | गंगाजल्में शुद्धि, अशुद्धि या स्पर्शास्पर्ष का कोई विधान नहीं है| रोगी मुहं बंद कर ले तो उसे कुछ भी नहीं देना चाहिए |

६.      रोगी के पास बैठकर घर का रोना नहीं रोना चाहिए | संसार की बातें भी उसे याद मत दिलाओ| माता, स्त्री, पति पुत्र या किसी स्नेही को उसके पास बैठकर अपना दुःख सुनाना या रोना नहीं चाहिए| उसके मनके अनुकूल उसकी हर तरहसे कल्याणमयी सेवा करनी चाहिए| 

७.     डॉक्टरी या जिसमे अशुद्ध पदार्थों का संयोग हो ऐसी दवा नहीं खिलानी चाहिए|

८.      जहां तक चेत रहे वहाँ तक गीताजी का पाठ और उसका अर्थ सुनाना चाहिए| चेत ना रहने पर भगवान का नाम सुनाना उचित है| गीता पढ़नेवाला ना हो तो पहलेसे ही भगवान का नाम सुनावे|

९.      यदि रोगी भगवान के साकार या निराकार किसी रूपका प्रेमी हो तो साकावाले को भगवान की छवि या मूर्ति दिखलानी चाहिए और उसके रूप तथा प्रभाव का वर्णन सुनाना चाहिए| निराकार के प्रेमी को निराकार ब्रह्म के शुद्ध, बोधस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, सत्, घन, नित्य, अज, अविनाशी आदि विशेषण के साथ आनंद शब्द जोड़कर उसे सुनाना चाहिए|

१०.   यदि काशी आदि तीर्थ में ले जाना हो तो उसे पूछ लें| उसकी इच्छा हो, वहाँतक पहुँचने में शंका ना हो, वैद्यों की सम्मति मिल जाए, उतने रूपये को खर्च करने की शक्ति हो तो वहाँ ले जाएँ|  
  
११.    प्राण निकलने के बाद भी कम से कम १५-२० मिनट तक किसीको खबर ना दें| भगवन्नाम का कीर्तन करते रहे जिससे वहाँ का वायुमंडल सात्विक रहे| रोने का हल्ला ना हो क्यूंकि उस समय रोना प्राणी के लिए अच्छा नहीं है| 

१२.   घरवाले समझदार हो तो उनको रोना नहीं चाहिए| दुसरे लोगों को भी उनके पास आकार उन्हें केवल सहानुभूति के शब्द सुनाकर रुलानेकी चेष्ठ नहीं करनी चाहिए| 

१३.   शोक-चिह्न १२ दिन तक ही रखना चाहिए|

१४.   १२ वर्ष से कम उम्र के लड़के-लड़कियों की मृत्यु का शोक ना मनावें|

१५.  मृत्यु के लिए शोक सभा ना कर अपनी सावधानी के लिए सभा करनी चाहिए| यह बात याद करनी चाहिए की इसी प्रकार एक दिन हमारी भी  मृत्यु होगी|

१६.   जीवन्मुक्त पुरुष की मृत्यु का शोक ना करें, ऐसा करना उन्हें शोभा नहीं देता|
   
                     
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...
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