※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 31 जनवरी 2012

परमार्थ-पत्रावली



प्रश्न- न मालूम मायाकी कितनी प्रबल शक्ति है कि परमात्माकी असीम कृपाका पद-पदपर प्रत्यक्ष दर्शन करता हुआ भी मोहावृत जीव बार-बार भूल जाता है ।

उत्तर- ठीक है । परंतु भगवानकी प्रबल शक्तिके सामने मायाकी कुछ भी शक्ति नहीँ है । जो मायाके वशमेँ हैँ, उन्हीँके लिए माया प्रबल है । परमात्माको और परमात्माके प्रभावको जाननेवालोँ के सामने मायाकी शक्ति कुछ भी नहीँ है । क्योँकि वास्तवमेँ मायाकी ऐसी शक्ति है ही नहीँ । मायाके वश मेँ पड़े हुए जीवोँने ही उसकी ऐसी शक्ति मान रखी है । जैसे तन्द्राकी अवस्थामेँ पड़ा हुआ मनुष्य छातीपर हाथ पड़ जानेसे चोर की कल्पना कर अपनी छातीपर बड़ा भारी बोझ-सा समझ लेता है और अपनेको इतना दबा हुआ मानता है कि उसे जबान हिलानेमेँ भी भय-सा मालूम होता है परंतु वास्तवमेँ वहाँ न चोर है और न उसका बोझ है । यही दशा माया की है । जीव जहाँतक चेत नहीँ करता, वहीँतक मायाकी प्रबल शक्ति मानकर वह उससे दबा रहता है । यदि चेतकर परमात्माकी शरण ले ले और उसका स्वरुप जान ले तो फिर मायाकी शक्ति कुछ भी न रहे । (गीता अ॰ ७।१४ एवं अ॰ १३।२५ मेँ देखना चाहिए।) जीव जो परमात्माका सनातन अंश है, अपनी शक्तिको भूल रहा है, इसीलिए उसको माया प्रबल प्रतीत होती है । यदि अपनी शक्ति जागृत कर ली जाय तो मायाकी शक्ति सहज ही मेँ परास्त हो जाय । माया मेँ अज्ञान हेतु है और अज्ञानके नाशसे ही माया का नाश है ।

[परमार्थ-पत्रावली]

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

ईश्वर दयालु और न्यायकारी है

॥ श्रीहरिः ॥

* ईश्वर दयालु और न्यायकारी है । *
ईश्वरका कानून दया, सुहृदता और जीवोँके हितसे पूर्ण होता है। हमलोग तो उसकी कल्पनातक भी नहीँ कर सकते ।

ईश्वरका दण्ड भी वरके सदृश होता है । ईश्वरके न्यायसे फरियादी और असामी दोनोँका ही परिणाममेँ हित और उद्धार होता है, यही उसकी विशेषता है । परम दयालु परमात्माके कानूनके अनुसार जो अपराधी अपनी भूलको सच्चे दिलसे स्वीकार करता हुआ भविष्यमेँ फिर अपराध न करनेकी प्रतिज्ञा करता है और सच्चे हृदयसे ईश्वरकी शरण होकर सर्वस्वसहित अपनेको उसके चरणोँमेँ अर्पण कर देता है एवं ईश्वरकी कड़ी-से-कड़ी आज्ञाको, उसके भयानक-से-भयानक विधानको, उसके प्रत्येक न्यायको सानन्द स्वीकार करता है तथा उसे पुरस्कार समझता है, साथ ही अपने किये हुए अपराधोँके लिए क्षमा नहीँ चाहकर दण्ड ग्रहण करनेमेँ खुश होता है, ऐसे सरलभावसे सर्वस्व अर्पण करनेवाले शरणागत भक्तको भगवान अपराधोँसे मुक्त करके उसे अभय कर देते हैँ । इसमेँ दयालु ईश्वरका न्याय ही सिद्ध होता है । ऐसे भाववाले भक्तको दण्डसे मुक्त करना ही परमात्माके राज्यका दया और न्यायपूर्ण नियम है । इसीसे भगवानमेँ दया और न्याय-दोनोँ एक ही साथ रहते हैँ । श्रीगीताजीमेँ भगवान स्पष्ट कहते हैँ-
अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिँ निगच्छति ।
कौन्येय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ (९। ३०-३१, १८ । ६६)
'यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त हुआ मुझको निरंतर भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है; क्योँकि वह यथार्थ निश्चयवाला है । उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीँ है । अतएव वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शांतिको प्राप्त होता है । हे अर्जुन ! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त (कदापि) नष्ट नहीँ होता । इसलिए सब कर्मोँके आश्रयको त्यागकर केवल एक मुझ सच्चिदानंदघन वासुदेव परमात्माकी ही अनन्य शरणको प्राप्त हो, मैँ तुझे समस्त पापोँसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर ।

मंगलवार, 24 जनवरी 2012



माघ शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, मंगलवार



प्र.) भक्तिमार्गपर चलनेवाले भक्तका सम्पूर्ण चराचरमें प्राणोंसे बढ़कर अत्यन्त विलक्षण प्रेम क्यों  और कैसे हो जाता है? 
उ.) इसलिये होता है कि वे सारे विश्वको अपने इष्टदेवका साक्षात् स्वरुप समझते हैं! 
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत ! 
मैं सेवक  सचराचर रूप स्वामि भगवंत !!
वे भक्त समस्त विश्वके लिये अपने तन, मन, धनको न्योछावर किये रहते हैं! अपनी चीजें स्वामीके काममें आती देखकर वे इस भावसे बड़े ही आनन्दित होते हैं कि स्वामीने कृपापूर्वक हमको और हमारी वस्तुओंको अपना लिया! भक्तः अपना यह ध्येय समझता है कि हमारी सब चीज़ें भगवान् की ही  हैं, इसी लिये उन्हींकी सेवामें लगनी चाहिये; परन्तु जबतक भगवान् उनको काममें नहीं लाते, तबतक भगवान् ने उनको स्वीकार कर लिया, ऐसा भक्त नहीं समझता और जबतक भगवान् ने स्वीकार नहीं किया,तबतक वह अपने ध्येयकी सिद्धि नहीं मानता; परन्तु जब वे वस्तुएँ प्रसन्नतापूर्वक विश्वरूप भगवान् के काममें आ जाती हैं तब वह अपने ध्येयकी सिद्धि समझकर परम प्रसन्न होता है! विश्वरूप भगवान् की प्रसन्नतामें ही उसकी प्रसन्नता है! इसीलिये वह अपने प्राणोंसे बढ़कर समस्त चराचर विश्वमें प्रेम करता है! यदि कहा जाय  कि फिर उसका प्रेम हेतुरहित और विशुद्ध कैसे माना जा सकता है, जब कि वह अपने इष्टको सन्तुष्ट और प्रसन्न करनेके हेतुसे प्रेम करता है? तो इसका उत्तर यह है कि यह हेतु वस्तुतः हेतु नहीं है! यह पवित्र भाव है! यही मनुष्यका परम लक्ष्य होना चाहिये!  


जो प्रेम अपने व्यक्तिगत स्वार्थको लेकर होता है, वही कलंकित और दूषित है; परन्तु जब दुसरेके हितके लिये किया जानेवाला प्रेम भी पवित्र माना जाता है, तब दुसरे सबको साक्षात् भगवान् का स्वरुप समझकर ही उनसे प्रेम करना तो परम पवित्र प्रेम है! 

सोमवार, 23 जनवरी 2012



माघ मौनी एवं सोमवती अमावस्या, वि.सं.-२०६८, सोमवार



संतोंमें विशुद्ध विश्वप्रेम 


संतमें केवल समता ही नहीं, समस्त विश्वमें हेतु और अहंकाररहित अलौकिक विशुद्ध प्रेम भी होता है! जैसे भगवान् वासुदेवका सबमें अहैतुक  प्रेम है, वैसे ही भगवान् वासुदेवकी प्राप्ति होनेपर संतका भी समस्त चराचर जगतमें अहैतुक प्रेम हो जाता है; क्योंकि साधन-अवस्थामें वह सबको वासुदेवस्वरुप ही समझकर अभ्यास करता है! अतएव सिद्धावस्थामें तो उसके लिये यह बात स्वाभावसिद्ध  होनी ही चाहिये! 


प्र.) ऐसा अहैतुक प्रेम भक्तिके साधनसे होता है या ज्ञानके साधनसे? 
उ.) दोनोंमेंसे किसी एकके साधनसे हो सकता है! जो भक्तिका साधन करता है, वह सब भूतोंको ईश्वर समझकर अपने देह और प्राणोंसे बढ़कर उनमें प्रेम करता है; और जो ज्ञानका साधन करता है, वह सम्पूर्ण भूतोंको अपना आत्मा समझकर उनसे देह, प्राण और आत्माके समान प्रेम करता है! 


प्र.) जैसे एक अज्ञानी मनुष्यका अपने शरीर, घर, स्त्री, धन, पुत्र, जमीन आदिमें प्रेम होता है, क्या संत पुरुषका सारे विश्वमें वैसा ही प्रेम होता है? 
उ.) नहीं, इससे अत्यन्त विलक्षण होता है! अज्ञानी मनुष्य तो शरीर, घर, स्त्री, पुत्र आदिके लिये निति, धर्म, न्याय, ईश्वर और परोपकारतकका त्याग कर देता है तथा अपने देह, प्राणकी रक्षाके लिये स्त्री, पुत्र, घन आदिका भी त्याग कर देता है; परन्तु संत तो निति, धर्म, न्याय, ईश्वर और विश्वके लिये केवल स्त्री,पुत्र, धनका ही नहीं, अपने शरीरका भी त्याग कर देते हैं! वे विश्वकी रक्षाके लिये पृथ्वीका, पृथ्वीकी रक्षाके लिये द्वीपका, द्वीपके लिये ग्रामका, ग्रामके लिये कुटुम्बका, कुटम्ब और उपर्युक्त सबके हितके लिये अपने प्राणोंका आनन्दपूर्वक त्याग कर देते हैं! फिर धर्म, ईश्वर और समस्त विश्वके लिये त्याग करना तो उनके लिये कौन बड़ी बात है! जैसे अज्ञानी मनुष्य अपने आत्माके लिये सबका त्याग कर देता है, वैसे ही संत पुरुष धर्म, ईश्वर और विश्वके लिये सब कुछ त्याग कर देते है; क्योंकि धर्म, ईश्वर और विश्व ही उनका आत्मा है; परन्तु अज्ञानीका जैसे देहमें अहंकार और स्त्री-पुत्रादि कुटुम्बमें ममत्व होता है, वैसा संतका अहंकार और ममत्व कही नहीं होता! उनका सबमें हेतुरहित विशुद्ध और अत्यन्त अलौकिक अपरिमित प्रेम होता है! 

रविवार, 22 जनवरी 2012




माघ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, रविवार


संतोंमें समता 


प्र.) साधारण मनुष्योंको जैसे लाभ और जयमें प्रीति-प्रसन्नता होती है, तो क्या संतको इसके विपरीत हानि और पराजयमें प्रसन्नता होती है? अथवा साधारण मनुष्योंको जैसे हानि-पराजयमें द्वेष, घृणा, भय, शोक आदि होते है, तो क्या संतको लाभ और जयमें द्वेष, घृणा, भय, शोक आदि होते हैं? 


उ.) नहीं, उसकी समता इन सबसे विलक्षण है; क्योंकि वे हर्ष-शोक, राग-द्वेष आदि समस्त विकारोंसे सर्वथा रहित होते हैं ! 


प्र.) ऐसी अवस्थामें क्या हानि-पराजय होनेपर साधारण मनुष्योंकी भाँती संतका व्यवहार ईर्ष्या और भयका-सा भी हो सकता है?  


उ.) यदि संसारका हित हो तो या न्याययुक्त मर्यादाकी रक्षा हो तो हो भी सकता है; परन्तु उनके मनमें किसी प्रकारका भी विकार नहीं होता! 


प्र.) जो कुछ भी बाहरी क्रिया होती है वह पहले मनमें आती है! बिना मनमें आये बाहरी क्रिया कैसे सम्भव है? 


उ.) नाटकके पात्रोंमें जैसे सभी प्रकारके बाहरी व्यवहार होते हैं; परन्तु उनके मनमें अभिनय बुद्धिके अतिरिक्त कोई वास्तविकता नहीं होती, इसी प्रकार संतोंके द्वारा नाटकवत् बाहरी व्यवहार होनेपर भी उनके मनमें वस्तुतः कोई विकार नहीं होता! 


इसी प्रकार शीतोष्ण, सुख-दुःख आदि प्रिय-अप्रिय सभी पदार्थोंके सम्बन्धमें  उनका समभाव रहता है! सबमें एक अखण्ड नित्य भगवत्स्वरूप समता सदा-सर्वदा सर्वत्र बनी रहती हैं! 

शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

क्रोधकी अधिकता के नाश का उपाय पूछा सो निम्नलिखित साधनोँको काममेँ लानेसे क्रोध का नाश हो जाता है ।

(१) सब जगह एक वासुदेव भगवान का ही दर्शन करे । जब भगवानको छोड़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीँ रहेगी तब क्रोध किसपर होगा ?

(२) यदि सब कुछ नारायण है तब फिर नारायणपर क्रोध कैसे हो ! सबके नारायण स्वरुप होने के कारण मैँ सबका दास हूँ । उस नारायणकी इच्छा के अनुसार ही सब कुछ होता है और वही प्रभु सबकुछ करता है, तब फिर क्रोध किसपर किया जाय?

(३) नारायणकी शरण होना चाहिए, जो कुछ होता है सो उसी की आज्ञासे होता है । अपनी इच्छासे करने पर नारायण की शरणागति मेँ दोष आता है । मालिक अपने आप चाहे सो करेँ, मैँ निश्चिन्त हूँ । ऐसी भावना होनी चाहिए । चाहना करनेसे क्रोध होता है । इच्छा बिना क्रोध नहीँ हो सकता ।

(४) सब कुछ काल भगवानके मुख मेँ देखना चाहिए । थोड़े दिन के लिए मैँ क्रोध क्योँ करुँ ? संसार सब अनित्य है, समयानुसार सभी का नाश होनेवाला है, जीवन बहुत थोड़ा है, किसी के मनको कष्ट पहुँचे ऐसा काम क्योँ करना चाहिए ?

(५) जो अपनेसे बड़ेपर क्रोध आवे तो उससे क्षमा माँगे और उसके चरणोँमेँ गिर जाय और जो वह अपने ऊपर क्रोध करे तो भी उसके चरणोँमेँ गिर जाय तथा हँसकर प्रसन्न मनसे बातेँ करे या चुप हो जाय ।

(६) अपने से छोटेपर क्रोध आवे तो उसके हित के लिए केवल दिखानेमात्र के लिए ही वह क्रोध होना चाहिए । अपने स्वार्थ का त्याग होना चाहिए, इच्छा ही क्रोधमेँ हेतु है, इससे इच्छाका नाश हो, ऐसा उपाय करना चाहिए । भगवान के स्वरुप और नाम का चिन्तन हुए बिना ऐसा होना कठिन है ।

मंगलवार, 17 जनवरी 2012


माघ कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार


संतोंमें समता 


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प्र.) तो  क्या अपमान और निन्दाका प्रतिकार भी संत करते हैं?  


उ.) यदि अपमान या निन्दा करनेवालेका या अन्य किसीका हित हो तो प्रतिकार भी कर सकते हैं! 


प्र.) क्या वे मान-बड़ाई -प्रतिष्ठाकी प्राप्तिको व्यवहारमें  स्वीकार कर लेते हैं या उनका विरोध ही करते हैं? 


उ.) देश, काल और परिस्थितिको देखकर शाश्त्रानुकुल दोनों ही बातें कर सकते हैं! विरोध करनेमें किसीका हित होता है तो विरोध करते हैं और स्वीकार करनेमें किसीका हित  होता है तो न्यायसे 
 प्राप्त होनेपर स्वीकार भी कर लेते हैं ! 


प्र.) तब फिर व्यवहारमें महापुरुषकी पहचान कैसे हो?


उ.) व्य्व्हारकी क्रियासे महापुरुषको पहचानना बहुत कठिन है! इतना ही जान सकते हैं कि ये अच्छे पुरुष हैं! फिर चाहे वे सिद्ध हों या साधक! दोनोंको ही संत माननेमें कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि साधक भी तो सिद्ध संत बननेवाला है ! वस्तुतः जिसका व्यवहार सत है वही संत है ! 


लाभ -हानि और जय-पराजयमें भी संतकी विलक्षण समता होती है! 

रविवार, 15 जनवरी 2012




माघ कृष्ण सप्तमी, मकरसंक्रान्ति, वि.सं.-२०६८, रविवार


संतोंमें समता 


मान-अपमान और निन्दा-स्तुतिमें भी संतमें समता रहती है, किन्तु यह आवश्यक नहीं कि व्यवहारमें सब जगह समताका ही प्रदर्शन हो! हृदयमें मान-अपमानकी प्राप्तिमें हर्ष, शोक आदि विकार नहीं होते! 


प्र ) साधारण मनुष्योंको निन्दा और अपमानकी प्राप्तिमें जैसा दुःख होता है, क्या संतोंको वैसा ही स्तुति या मानमें होता है? अथवा स्तुति या मानमें लोगोंको जैसी प्रसन्नता होती है, संतोंको निन्दा या अपमानमें क्या वैसी ही प्रसन्नता होती है? इन दोनोमेंसे संतकी समतामें हार्दिक भाव कैसा होता है?


उ ) दोनोंसे ही विलक्षण होता है, अर्थात मान-अपमान और निन्दा स्तुतिमें यथायोग्य न्याययुक्त व्यवहार-भेद होनेपर भी उन्हें हर्ष- शोक नहीं होते!  

शनिवार, 14 जनवरी 2012




माघ कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार


संतोंमें समता 


मान लीजिये, हमसे कोई मित्रता करता है और दूसरा कोई वैर करता है! उन दोनोंमें न्यायका भार प्राप्त हो जाय तो हमें पक्षपातरहित होकर न्याय करना चाहिये! बल्कि कहीं अपने मित्रको समझाकर उसकी सम्मतिसे शत्रुता रखनेवालेका कुछ पक्ष भी कर लें तो वह भी समता ही है! 


अनुकूल हितकर पदार्थके प्राप्त होनेपर सबके लिए समभावसे विभाग करना चाहिये, परन्तु कहीं दूसरोंको अधिक और श्रेष्ठ वस्तु दें, स्वयं कम लें -- निकृष्ट लें या बिलकुल ही न लें तो यह विषमता नहीं है, बल्कि अपने स्वार्थका त्याग है! इसी प्रकार विपत्ति और दुःखकी प्राप्तिमें सबके लिये न्याययुक्त समविभाग करते समय भी यदि कहीं दूसरोंको बचाकार विपत्ति या दुःख अपने हिस्सेमें ले लिया जाय तो यह विषमता भी विषमता नहीं है, बल्कि स्वार्थका त्याग होनेके कारण इसमें उल्टा गौरव  है! प्रभुमें स्थित होनेके कारण संतमें प्रभुकी समताका समावेश हो जाता है! अतएव इस अनोखी समताका  पूरा रहस्य तो प्रभुको प्राप्त करनेपर ही मनुष्य समझ सकता है ! 

शुक्रवार, 13 जनवरी 2012



माघ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार

संतोंमें समता 

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जैसे हम  अपने देहमें हाथोंसे ग्रहण करनेका, आँखोंसे देखनेका, कानोंसे सुननेका - इस प्रकार विभिन्न इन्द्रियोंके द्वारा यथायोग्य विभिन्न व्यवहार करते हैं, परन्तु आत्मीयताकी दृष्टिसे सबमें समता रहनी चाहिए! शास्त्रीय विषमता व्यवहारमें दूषित नहीं है, बल्कि परमार्थमें सहायक है! जिस विषमतासे किसीका अहित हो, वही वास्तविक विषमता है ! स्त्रियोंके अवयव एक-से होनेपर भी माता, बहिन और पत्निके साथ सम्बन्धके अनुसार ही यथायोग्य विभिन्न व्यवहार होते हैं और यह विषमता शास्त्रीय और न्यायसंगत होनेसे सेवनिय है! इतना ही नहीं, परम पूजनीय मातामें पूज्यभाव होनेपर भी रजस्वला या प्रसवकी स्थितिमें हम उसका स्पर्श नहीं करते, करनेपर स्नान करनेकी विधि है! इसके माननेमें लाभ है और न माननेमें हानि! घरमें कुत्तेको रोटी देते हैं, गायको  घास देते हैं, बिमारको दवा दी जाती है परन्तु सभी को घास, दवा या रोटी समान नहीं दी जाती! यह विषमता विषमता नहीं है! जैसे कोई भी अपने आत्माका जान-बुझकर अहित नहीं करता, उसे दुःख नहीं देता और अपना कल्याण चाहता हैं एवं सुख तथा कल्याणके लिए चेष्टा करता है-- इसी प्रकार किसीको दुःख न पहुँचाकर, अहित न चाहकर सबका कल्याण चाहना और सुख पहुँचानेकी चेष्टा करना ही समता है ! फिर व्यवहारमें यथायोग्य कितनी ही विषमता क्यों न हो, विषमता नहीं है ! 

गुरुवार, 12 जनवरी 2012




माघ कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०६८, गुरुवार


संतोंमें समता 


विधाविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि!
शुनि चैव श्वपाके च पंडितः समदर्शिनः !!


'वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्रह्मणमें तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डालमें भी समदर्शी ही होते हैं! '


इसका उलटा अर्थ करते हुए वे लोग कहते हैं की खान-पान आदिमें समव्य्व्हार करना ही समदर्शन है! परन्तु ऐसा समव्य्व्हार न तो संभव है, न आवश्यक है और न भगवान् के कथनका यह उदेश्य ही है! क्योंकि हाथी सवारीके योग्य  है, कुत्ता सवारीके योग्य नहीं! गौका दूध सेवनयोग्य है, कुतिया और हथिनीका नहीं! इन सबके खाद्य, व्यवहार, स्वरुप,आकृति, जाती और गुण एक-दुसरेसे अत्यंत विलक्षण और भिन्न होनेके कारण इन सबमें समान व्यवहार नहीं हो सकता है, न करना ही चाहिए और न करनेके लिये कोई कह सकता है! 


जैसे अपने लिये सुख और सुखके साधनकी प्राप्ति तथा दुःख और दुःखके साधनकी निवृत्तिके लिये प्रयत्न किया जाता है, वैसे ही सबमें एक ही आत्मा समरूपसे स्थित है, इस बातका अनुभव करते हुए, सबके लिये उनका जिस प्रकारसे हित हो उसी प्रकारसे यथायोग्य व्यवहार करना ही वास्तविक समता है!  

बुधवार, 11 जनवरी 2012




माघ कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, बुधवार


संतोंमें समता 


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लोक और वेदमें समझानेके लिये ऐसा ही कहा जाता है कि जैसे अज्ञानीको सुख-दुःखकी प्राप्तिमें सारे शारीरमें समता होती है, वैसे ही संतोंको सब जीवोंके सुख-दुःखकी प्राप्तिमें ममता और अहंकार न होते हुए भी समता होती है! अर्थात् जैसे अज्ञानी मनुष्य अपने सुख-दुःखसे सुखी-दुखी होता है, संतजन ममता और अहंकारसे रहित होनेपर भी और अपने सुख-दुःखसे सुखी-दुखी-से प्रतीत  न होनेपर भी दुसरे समस्त जीवोंके सुख-दुःखमें सुखी-दुखी-से प्रतीत होते हैं! ऐसी स्तिथि मनुष्यको प्रतिपक्ष-भावनासे प्राप्त होती है! ( अज्ञानी मनुष्य जैसे अपनी देहमें अहंभावना और दूसरोंमें परभावना करते हैं-- इससे विपरीत दूसरोंमें आत्मभावना और अपने शरीरमें परकी-सी भावना करनेका नाम प्रतिपक्ष (उलटी ) भावना है ! ) बहुत-से लोग संतोंकी समदृष्टिके रहस्यको न जानकार समदृष्टि-सम्बन्धी शास्त्रवाक्योंका दुरपयोग करते हैं! 

मंगलवार, 10 जनवरी 2012




माघ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, मंगलवार


संतोंमें समता 


ऐसे महापुरुषोंकी दया ही नहीं, समता भी बड़ी अद्भुत होती है, उन्हें यदि समताकी मूर्ति कहें तब भी अत्युक्ति नहीं! भगवान् सम हैं और उन संतोंकी भगवान् में स्तिथि है-- इसलिये वे भी स्वाभाविक ही समताको प्राप्त हैं ! जैसे सुख-दुःखकी प्राप्ति होनेपर अज्ञानी पुरुषकी शरीरमें समता रहती है वैसे ही संतोकी चराचर सब जीवोमें समता रहती है! 


प्र.) अज्ञानीयोंका देहमें जैसा प्रेम है क्या संतोका सारे चराचरमें वैसा प्रेम हो जाता है? या संतोंका जैसे देहमें प्रेम नहीं है, वैसे क्या चराचर भुतोंसे उनका प्रेम हट जाता है? उनकी समताका क्या स्वरूप है?


उ.) उनकी समता वस्तुतः इतनी विलक्षण है की उदाहरणके द्वारा वह समझायी नहीं जा सकती; क्योंकि अज्ञानीको देहमें जैसा अहंकार रहता है, संतका संसारमें वैसा अहंकार नहीं रहता ! इसलिये यह कहना नहीं बनता की संतका  अज्ञानीयोंकी देहकी भांति सबमें प्रेम हो जाता है और सबमें प्रेमका अभाव इसलिये नहीं बतलाया जा सकता कि अज्ञानी लोग अपने देहके स्वार्थके लिए जहाँ दुसरेका अहित कर डालते हैं, वहाँ ये संत पुरुष दूसरोंके हितके लिए हँसते-हँसते अपने शरीरकी बलि चढ़ा देते हैं! परन्तु उनकी वह समता इतनी अद्भुत है कि दुसरेके हितके लिए शरीरका बलिदान करनेपर भी उसमें कोई विषमता नहीं आ सकती ! इसलिये किसी उदहारणके द्वारा इस संतका स्वरुप समझाना बहुत कठिन है!  

सोमवार, 9 जनवरी 2012




पौष शुक्ल पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, सोमवार


संतोंकी दया 


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यदि कहा जाय की ऐसे दयालु पुरुषोंसे जब प्रत्येक्ष ही सबको परम लाभ है, तब सभी लोग उनका संग और सेवन करके लाभ क्यों नहीं उठाते? इसका यह उत्तर है की वे लोग संतोंके गुण, प्रभाव और तत्त्वको नहीं जानते ! तत्त्व जाने बिना कोई विशेष लाभ नहीं उठा सकता! एक कुत्ता था! उसने गुडकी हाँडीमें मुँह दाल दिया ! इतनेमें खडखडाहटकी आवाज़ हुई ! कुत्तेने भागना चाहा ! इसी गड़बड़में हाँडी फुट गयी! हाँडीकी गर्दन कुत्तेके गलेमें रह गयी ! कुत्ते को कष्ट पाते देखकर एक दयालु मनुष्य हाथमें लाठी लेकर इसलिये कुत्तेके पीछे दौड़ा कि लाठीसे हाँडीकी गर्दनी तोड़ दी जाय तो कुत्ता कष्टसे छुट जाय! कुत्तेने अपने पीछे लाठी लिये दौड़ते हुए मनुष्यके असली उदेश्यको न समझकर यह समझा की यह मुझे मारनेको दौड़ रहा है ! वह और भी जोरसे भागा और उसका कष्ट दूर नहीं हो सका ! इसी प्रकार महापुरुषोंके तत्त्वको न समझकर उनकी क्रियामें भी विपरीत भावना कर सब लोग लाभ नहीं उठा सकते!  

रविवार, 8 जनवरी 2012



पौष शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, रविवार


संतोंकी दया 


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यदि यह कहा जाय कि श्रद्धा -प्रेम करनेवालोंका तो विशेष कल्याण करते हैं और दूसरोंका सामान्यभावसे करते हैं, तो इसमें विषमताका दोष आता है! इसका उत्तर यह है कि ऐसी बात नहीं है! श्रद्धा और प्रेमकी कमीके कारण यदि लोग संतोंकी सबपर छायी हुई समान अपरिमित दयासे लाभ नहीं उठा सकते तो इसमें उनका दोष नहीं है ! सूर्य बिना किसी पक्षपात या संकोचके सभीको  समानभावसे प्रकाश देता है, परन्तु दर्पणमें प्रतिबिम्ब पड़ता है और सूर्यकांत शीशा सूर्यके प्रकाशको पाकर दूसरी वस्तुको जला दे सकता है! इसमें सर्यका दोष या पक्षपात नहीं है! इसी प्रकार जिनमें श्रद्धा, प्रेम नहीं है वे काष्ठकी भाँती कम लाभ उठाते हैं और श्रद्धा, प्रेमवाले सूर्यकांत शीशेकी भाँति अधिक लाभ उठाते हैं ! सूर्य सबको स्वाभाविक ही प्रकाश देता है; परन्तु उल्लूके लिये वह अन्धकाररूप होता है! चन्द्रमाकी सर्वत्र बिखरी हुई चाँदनीको चोर बुरा समझता है, इसमें चन्द्रमाका कोई दोष नहीं है, वे तो सबका उपकार ही करते हैं ! इसी प्रकार महापुरुष तो सभीका उपकार ही करते हैं; किन्तु अत्यन्त दुष्ट और नीच प्रकृतिवाले मनुष्य उल्लुकी भाँति अपनी बुद्धिहिनताके कारण उनसे द्वेष करते हैं और चोरकी भाँति उनकी निंदा करते है--- इसमें संतोंका क्या दोष ? 

शनिवार, 7 जनवरी 2012






संतोंकी दया 


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प्रह्लाद, अम्बरीष आदिके इतिहास इसमें प्रमाण हैं! अतएव विनोदमें भक्तोको भगवान् से बढ़कर बतलाना भी युक्तियुक्त ही है! संतजन सुरसरि और सुरतरुसे भी विशेष उपकारी हैं! गंगा और कल्पवृक्ष उनके शरण होनेपर क्रमशः पवित्र करते और मनोरथ पूर्ण करते हैं! परन्तु संत तो इच्छा करनेवाले और न करनेवाले सभीके घर स्वयं जाकर उनके इस लोक और परलोकके कल्याणकी चेष्टा करते हैं! इसपर यदि यह कहा जाय कि संत जब सबका हित चाहते हैं तो सबका हित हो क्यों नहीं जाता? तो इसका उत्तर यह है कि सामान्यभावसे तो संतसे जिन लोगोंकी भेंट हो जाती है, उन सभीका हित होता है! परन्तु विशेष लाभ तो श्रद्धा और प्रेम होनेपर ही होता है! यदि यह कहा जाय कि जबरदस्ती सबका हित संत क्यों नहीं कर देता ? तो इसका उत्तर यह है कि जबरदस्ती कोई किसीका परम हित नहीं कर सकता ! पतंग दीपकमें जलकर मरते हैं! दयालु पुरुष उनपर दया करके उन्हें बचानेके लिये  दीपक या लालटेनको बुझाकर उनका परम हित करना चाहते हैं, परन्तु वे पतंग जहाँ दुसरे दीपक जलते रहते हैं, वहाँ जाकर जल मरते हैं! इसी प्रकार जिन लोगोंको कल्याणकी स्वयं इच्छा नहीं होती उनका कल्याण करना बहुत ही कठिन है!  

शुक्रवार, 6 जनवरी 2012




संतोंकी दया  


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कुलं पवित्रं जननी कृतार्था 
         वसुन्धरा पुण्यवती च तेन!
अपारसंवित्सुखसागरेस्मींल्लिनं 
          परे ब्रम्हाणी यस्य चेतः !!


(स्कन्द : महेश्वर कौमार ५५/१४०)


'जिसका चित्त अपार संवित्सुखसागर परब्रम्हामें लीन है, उसके जन्मसे कुल पवित्र होता है, उसकी जननी कृतार्थ होती है और पृथ्वी पुण्यवती होती है ! '


यह सब उनके द्वारा स्वाभाविक ही होता है, उन्हें करना नहीं पड़ता! भगवान् तो भजनेवालोंको भजते हैं, परन्तु वे दयालु संत नहीं भजनेवालेका, यहाँतक कि गाली देने और अहित करनेवालेका भी हित ही करनेमें तुले रहते हैं! कुल्हाड़ा चन्दनको काटता है, पर चन्दन उसे स्वाभाविक ही अपनी सुगन्ध दे देता है ! 


काटइ परसु मलय सुनु भाई !
           निज गुण देइ सुगंध बसाइ !!

गुरुवार, 5 जनवरी 2012




पौष शुक्ल पुत्रदा एकादशी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार


संतोंकी दया 


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संतोंके दर्शन, भाषण, चिन्तन, और स्पर्शसे सारे जीव पवित्र हो जाते हैं, उनके चरण जहाँ टिकते हैं, वह भूमि पावन हो जाती है! उनके चरणोंसे स्पर्श की हुई रज स्वयं पवित्र होकर दूसरोंको पवित्र   करनेवाली बन जाती है! उनके द्वारा देखे, चिन्तन किये हुए और स्पर्श किये हुए पदार्थ भी पवित्र हो जाते हैं! फिर उनके कुलकी -- विशेषतः उन्हें जन्म देनेवाले माता-पिताकी तो बात ही क्या है! ऐसे महापुरुष जिस देशमें जन्मते हैं और शान्त होते हैं, वे देश तीर्थ माने जाते हैं! आजतक जितने तीर्थ बने हैं, वे सब परमेश्वर और परमेश्वरके भक्तोंके निमित्त्से ही बने हैं! इतना ही नहीं, सब लोकोंको पवित्र करनेवाले तीर्थ भी उनके चरणस्पर्शसे पवित्र हो जाते हैं! 



धर्मराज युधिष्ठिर महात्मा विदुरसे कहते हैं --


भवद्विधा भाग्वातास्तीर्थभूताः स्वयं विभो !
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तः स्थेन गदाभृता !! ( श्रीमद्भा १/१३/१०)


' हे स्वामिन् ! आप-सरीखे भगवद्भक्त स्वयं तीर्थरूप हैं! (पापियोंके द्वारा कलुषित हुए) तीर्थोंको आपलोग अपने ह्रदयमें स्थित भगवान्  श्रीगादाधरके प्रभावसे पुनः तिर्थत्व प्रदान करा देते हैं! '