※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 27 अगस्त 2012

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम






प्रजारन्जकता
      श्रीरामचन्द्रजी मे प्रजा को हर तरह से प्रसन्न रखने का गुण भी बड़ा ही आदर्श था वे अपनी प्रजाका पुत्रसे भी बढ़कर वात्सल्यप्रेम से पालन करते थे सदा-सर्वदा उनके हितमें रत रहते थे यही कारण था कि अयोध्यावासियों का उनपर अद्भुत प्रेम था
   श्रीराम के वनगमन का, चित्रकूट मे भरत के साथ प्रजा से मिलाने का और परमधाम में पधारने के समयका वर्णन पढ़ने से पता चलता है कि आरम्भ से लेकर अन्त तक प्रजा के छोटे-बड़े सभी पुरुषों का श्रीराम में बड़ा ही अद्भुत प्रेम था वे हर हालत में श्रीराम के लिये प्राण न्योछावर करने को तैयार रहते थे उन्हें भगवान् राम का वियोग असह्य हो गया था
         जब श्रीरामचन्द्रजी वनमें जाने लगे, तब प्रजा के अधिकांश लोग प्रेममें पागल होकर उनके साथ हो लिये भगवान् श्रीरामने बहुत-कुछ अनुनय-विनय कि; किन्तु चेष्टा करनेपर भी प्रजा को लौटा नहीं सके आखिर उन्हें सोते हुए छोड़कर ही श्रीराम को वनमें जाना पड़ा उस समय के वर्णन में यह भी कहा गया है कि पशु-पक्षी भी उनके प्रेम  में मुग्ध थे उनके लिये श्रीराम का वियोग असह्य था परमधाम मे पधारते समय का वर्णन भी ऐसा ही अद्भुत है
     इसके सिवा जिस सीताके वियोग में श्रीराम ने एक साधारण विरह-व्याकुल कामी मनुष्य कि भाँती पागल होकर विलाप किया था, उसी सीताको-यध्यपि वह निर्दोष और पति-परायणा थीं तो भी, प्रजा कि प्रसन्नता के लिये त्याग दिया इससे भी उनकी प्रजारन्जकता का आदर्श भाव व्यक्त होता है

     श्रीराम का महत्व

 श्रीरामचन्द्रजी साक्षात् पूर्णब्रह्म परमात्मा भगवान् विष्णुके अवतार थे, यह बात वाल्मीकीय रामायण मे जगह-जगह कही गयी है जब सब्सर मे रावण का उपद्रव बहुत बढ़ गया, देवता और ऋषिगण बहुत दू:खी हो गये, तन उन्होंने जाकर ब्रह्मा से प्रार्थना कि पितामह ब्रह्मा देवताओं को धीरज बंधा रहे थे, उसी समय भगवान् विष्णुके प्रकट होने का वर्णन इस प्रकार आता है—
एतस्मिन्नन्तरे       विष्णुरूप्यातो     महाध्युति:
शंखचक्रगदापाणी:      पीतवासा       जगत्पतिः ।।
वैनतेयं   समारुह्य     भास्करस्तोयदं       यथा
तप्तहाटककेयू    वंध्यमान:           सुरोत्तमै: ।।
(वा०रा० १।१५।१६-१७ )
       इतने मे ही महान तेजस्वी उत्तम देवताओं द्वारा वन्दनीय जगत्पति भगवान् विष्णु मेघ पर चढ़े हुए सूर्य के समान गरुडपर सवार हो वहाँ आ पहुँचे । उनके शरीर पर पीताम्बर तथा हाथों में शँख, चक्र, और गदा आदि आयुध एवं चमकीले स्वर्ण के बाजूबंद शोभा पा रहे थे ।
    इसके बाद देवताओं की प्रार्थना सुनकर भगवान् ने राजा दशरथ के घर मनुष्यरूप में अवतार लेना स्वीकार किया । फिर वहीँ अन्तर्धान हो गये ।
   श्रीरामचन्द्रजीका विवाह होने के बाद जब वे अयोध्या को लौट रहे थे, उस समय रास्ते में परशुरामजी मिले । श्रीराम विष्णु के अवतार है या नहीं—इसकी परीक्षा करने के लिये उन्होंने श्रीराम से भगवान् विष्णु के धनुष पर बाण चढाने के लिये कहा, तब श्रीरामचन्द्रजी ने तुरन्त ही उनके हाथ से दिव्य धनुष लेकर उस पर बाण चढ़ा दिया और कहा--`यह दिव्य वैष्णव बाण है । इसे कहाँ छोड़ा जाय ?` यह देख-सुनकर परशुरामजी चकित हो गये । उनका तेज श्रीराम मे जा मिला । उस समय श्रीरामकी स्तुति करते हुए परशुरामजी कहते हैं-
अक्षय्यं   मधुहन्तारं  जानामि त्वां सुरेश्र्वरम ।
धनुषोऽस्य  परामर्शात स्वस्ति तेऽस्तू परंतप ।।
 `शत्रुतापन राम !  आपका कल्याण हो । इस धनुष के चढाने सें मैं जान गया कि आप मधु-दैत्य को मारनेवाले, देवताओं के स्वामी, साक्षात् अविनाशी विष्णु है । इस प्रकार श्रीराम के प्रभाव का वर्णन करके और उनकी प्रदक्षिणा करके परशुरामजी चले गये ।
  रावण का वध हो जाने के बाद जब ब्रह्मा सहित देवता लोग श्रीरामचन्द्रजी के पास आये और उनसें बातचीत करते हुए श्रीरामने यह कहा कि मैं तो अपने को दशरथजी के पुत्र राम नाम का मनुष्य ही समझता हूँ । मैं जो हूँ, जहाँसे आया हूँ ---यह आप लोग ही बताएं । इस पर ब्रह्माजी ने सबके सामने सम्पूर्ण रहस्य खोल दिया । वहाँ राम के महत्व का वर्णन करते हुए ब्रह्माजी कहते हैं--
भवान्नारायणो    देव:   श्रीमांश्र्चक्रायुध:   प्रभु: ।
एक्श्रिंगे        वराह्स्त्वं    भूतभव्यपत्नजित ।।
अक्षरं  ब्रह्म  सत्यं   मध्ये चान्ते   राघव ।
लोकानां  त्वं  परो   धर्मो  विष्वक्सेनश्र्चतुर्भुज: ।।
शार्न्गधन्वा    हृषीकेशः     पुरुषः  पुरुषोत्तमः ।
अजित:  खड्गधृग्   विष्णुः कृष्णश्र्चैव वृहदबल:।।
(वा०रा० ६।११७।१३-१५। )
  `आप साक्षात् चक्रपाणि लक्ष्मीपति प्रभु श्रीनारायण देव हैं । आप ही भुत-भविष्य के शत्रुओं को जिताने  वाले और एक श्रन्ग्धारी वराह भगवान् है राघव ! आप आदि, मध्य और अन्त में सत्यस्वरूप अविनाशी ब्रह्मा हैं । आप सम्पूर्ण लोकों के परमधर्म चतुर्भुज विष्णु हैं । आप ही अजित, पुरुष, पुरुषोत्तम, हृषिकेश शार्न्ग धनुष वाले खडगधारी विष्णु है और आप ही महाबलवान कृष्ण हैं ।
 इसी तरह और भी बहुत कुछ कहा है । वही राजा दशरथ भी लक्ष्मण के साथ बातचीत कृते समय श्रीराम कि सेवा का महत्व बतलाकर कहते हैं----`सौम्य ! यह परन्तम राम साक्षात् वेदवर्णित अविनाशी अव्युक्त ब्रह्मा है । यह देवों के हृदय और परम रहस्यमय है । जनक नन्न्दिनी   सीता के सहित इनकी सावधानी पूर्वक सेवा करके तुमने पवित्र धर्म का आचरण और बड़े भारी यश का लाभ किया है ।`
 इसके सिवा और भी अनेक बार ब्रह्माजी,देवता और महाऋषियों ने श्रीराम के अमित प्रभाव का यथा साध्य वर्णन किया है । मनुष्य-लीला समाप्त करके परमधाम में पधारने के प्रसंग में भी यह बात सपष्ट कर दि गयी है कि श्रीराम साक्षात् पूर्ण ब्रह्मा परमेश्वर थे । अत: वाल्मीकीय रामायण को प्रमाणिक ग्रन्थ मानने वाला कोई भी मनुष्य श्रीराम के ईश्वर होने में शँका कर सके, ऐसी गुंजाइश नहीं है ।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक तत्व-चिन्तामणि ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड ६८३ ,गीता प्रेस गोरखपुर ] शेष अगले ब्लॉग में....