※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 26 अगस्त 2012

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम ( कृतज्ञता )

                                           कृतज्ञता
वास्तव मे देखा जाय तो भगवान् श्रीरामचन्द्रजी साक्षात् परब्रह्म परमेश्र्वर थे । उनकी अपार शक्ति थी, वे स्वयं सबकुछ कर सकते थे और करते थे, उनका कोई क्या उपकार कर सकता था । तथापि अपने आश्रीतजनोंके प्रेम कि वृद्धि के लिये उनकी साधारण सेवाको भी बड़े-से-बड़ा रूप देकर आपने अपनी कृतज्ञता प्रकट की है ।

सीता को खोजते-खोजते जब श्रीराम रावणद्वारा युद्ध मे मारकर गिराये हुए जटायुकी दशा देखते हैं, उस समय का वर्णन है-----

निकृत्तपक्षं रुधिरावसिक्तं तं गृध्रराजं परिगृह्य राघव: ।
क्व मैथिली प्राणसमा गतेति विमुच्य वाचं निपपात भुमौ ।। 

`जिसके पंख कटे हुए थे, समस्त शरीर लहू-लुहान हो रहा था,ऐसे गीधराज जटायु को हृदयसे लगाकर  श्रीरघुनाथजी `प्राणप्रिया जानकी कहाँ गयी ?` इतना कहकर पृथ्वी पर गिर पड़े ।`फिर रावण का परिचय देते और सीताजी को ले जाने कि बात कहते-कहते ही जब पक्षिराज के प्राण उड़ जाते हैं, तब भगवान् श्रीराम स्वयं अपने हाथों से उसकी दाह-क्रिया करते हैं । कैसी अद्भुत् कृतज्ञता है ।

इसी तरह और भी बहुत से प्रसंग हैं । वानरों,राजाओं,ऋषियों और देवताओं से बात करते समय आपने जगह-जगह पर कहा है कि `आप लोगों कि सहायता और अनुग्रह से ही मैंने रावण पर विजय प्राप्त कि है ।` 

जब श्रीहनुमानजी सीताजी का पता लगाकर भगवान् रामसे मिले हैं, उस समय उनके कार्यकी बार-बार प्रंशसा करके अन्तमें रघुनाथजी ने यहाँ तक कहा है कि `हनुमान ! जानकी का पता लगाकर तुमने मुझे, समस्त रघुवंशको और लक्ष्मण को भी बचा लिया । इस प्रिय कार्यके बदले मे कुछ दे सकूँ, ऐसी कोई वस्तु मुझे नहीं दिखायी देती । अत: अपना सर्वस्व यह आलिंगन ही मैं तुम्हे देता हूँ ।` इतना कहकर हर्षसे पुलकित श्रीरामने हनुमान् को ह्रदय से लगा लिया । राज्याभिषेक हो जानेके बाद हनुमान् को विदा करते समय हनुमान् कि सेवा और कार्यों को स्मरण करके भगवान् राम कहते हैं---

एकैकस्योपकारस्य प्राणान् दास्यामि ते कपे ।
शेषस्येहोपकाराणां भवाम ऋणिनो वयम् ।।
मद्न्गे जीर्णतां यातु यत्त्वयोपकृतं कपे ।
नर: प्रत्युपकाराणामापत्स्वायाति पात्रताम् ।।     
 (वा०रा० ७।४०।२३-२४)

`हनुमान् ! तुम्हारे एक-एक उपकार के बदले में मैं अपने प्राण दे दूँ तो भी इस विषय में शेष उपकारों के लिये तो मैं तुम्हारा ऋणी ही बना रहूँगा । तुम्हारे द्वारा किये हुए उपकार मेरे शरीर में ही विलीन हो जायँ—उनका बदला चुकाने का मुझे कभी अवसर ही न मिले, क्योंकि आपत्तियाँ आने पर ही मनुष्य प्रत्युपकारों का पात्र होता है ।` इससे पता चलता है कि भगवान् श्रीरामका कृतज्ञता का भाव कितना आदर्श था ।

[ पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि । श्रीजयदयालजी गोयन्दका, कोड ६८३, गीता प्रेस गोरखपुर ]

नारायण  नारायण  नारायण  श्रीमन्नारायण  नारायण  नारायण........