※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 25 अगस्त 2012

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम ( शरणागतवत्सलता )

                                                                    शरणागतवत्सलता

यों तो श्रीराम कि शरणागतवत्सलता का वर्णन वाल्मीकीय रामायण मे स्थान स्थान पर आया है, कित्नु जिस समय रावण से अपमानित होकर विभीषण भगवान् श्रीराम कि शरण मे आया है, वह प्रसंग तो भक्तों के हृदय मे उत्साह और आनन्द कि लहरें उत्पन्न कर देता है ।

धर्मयुक्त और न्यायसंगत बात कहने पर भी जब रावण ने विभीषण कि बात नहीं मानी, बल्कि भरी सभा में उसका अपमान कर दिया, तब विभीषण वहाँ से निराश और दू:खी होकर श्रीराम कि शरण मे आया । उसें आकाश मार्ग से आते देखकर सुग्रीव ने सब वानरों को सावधान होने के लिये कहा । इतने में ही विभीषण ने वहाँ आकर आकाश में ही खड़े-खड़े पुकार लगाई कि मैं दुरात्मा पापी रावण का छोटा भाई हूँ । मेरा नाम विभीषण है । मैं रावण से अपमानित होकर भगवान् श्रीराम कि शरण में आया हूँ । आप लोग समस्त प्राणियों को शरण देने वाले श्रीराम को मेरे आने कि सूचना दें ।


यह सुनकर सुग्रीव तुरन्त ही भगवान् श्रीराम के पास गये और राक्षस स्वभाव का वर्णन कर श्रीराम को सावधान करते हुए रावण के भाई विभीषण के आने कि सूचना दी । साथ ही यह भी कहा कि ` अच्छी तरह परीक्षा करके, आगे पीछे कि बात सोचकर जैसा उचित समझें, वैसा करें । इसी प्रकार वहाँ बैठे हुए दुसरे बंदरों ने भी अपनी-अपनी सम्मति दी । सभी ने विभीषण पर सन्देह प्रगट किया, पर श्रीहनुमानजी ने बड़ी नम्रता के साथ बहुत सि युक्तियों से विभीषण को निर्दोष और सचमुच शरणागत समझाने की सलाह दी । इस प्रकार सबकी बातें सुनाने के अन्नतर भगवान् श्रीराम ने कहा—

मित्रभावेन संप्राप्तं न त्येजेयं कथन्च्न ।
दोषों यध्य्पी तस्य स्यात् सतामेतदगर्हितम् ।। (वा०रा०६।१८।३)

`मित्र भाव से आये हुए विभीषण का मैं कभी त्याग नहीं कर सकता । यदि उसमें कोई दोष हो तो भी उसे आश्रय देना सज्जनों के लिये निन्दित नहीं है ।` इसपर भी सुग्रीव को संतोष नहीं हुआ । उसने शंका और भय उत्पन्न करनेवाली बहुत-सी बातें कही । तब श्रीराम ने सुग्रीव को फिर समझाया---

पिशाचान् दानवान् यक्षान् पृथिव्यां चैव राक्षसान् ।
अन्कुल्यप्रेण तान् हन्यामिच्छ्न् हरिगणेश्वर ।।
बद्धान्ज्लिपूटं दीनं याचन्तं शरणागतम् ।
न हन्यदानृशंसस्यार्थमपि शत्रुं परंतप ।।
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते ।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम् ।।
आनायैनं हरिश्रेष्ठ दत्त्मस्याभयं मया ।
विभीषणो वा सुग्रीव यदि वा रावण: स्वयम् ।।
(वा० रा० ६ । १८ । २३,२६,३३-३४ )

`वानरगणाधीश ! यदि मैं चाहूँ तो पृथ्वी भर के उन पिशाच, दानव, यक्ष, और राक्षसों को अंगुली के अग्रभाग से ही मार सकता हूँ । ( अत: डरने कि कोई बात नहीं है ।)

परंतप ! यदि कोई शत्रु भी हाथ जोड़कर दीन भाव से शरण मे आकर अभय-याचना करे तो दया धर्म का पालन करने के लिये उसे नहीं मारना चाहिये । मेरे तो यह विरद है कि जो एक बार मैं आपका हूँ यों कहता हुआ शरण मे आकर मुझसें रक्षा चाहता है, उसें मैं समस्त प्राणियों से निर्भय कर सकता हूँ । वानरश्रेष्ठ सुग्रीव ! ( उपर्युक्त निति के अनुसार ) मैंने इसें अभय दे दिया, अत: तुम इसे ले आओ—चाहे यह विभीषण हो या स्वयं रावण ही क्यों न हो ।

 बस फिर क्या था । भगवान् कि बात सुनकर सब मुग्ध हो गये और भगवान् कि आज्ञानुसार तुरन्त ही विभीषण को ले आये । विभीषण अपने मंत्रियों सहित आकर श्रीराम के चरणों मे गिर पड़ा और कहने लगा- भगवान् ! मैं सब कुछ छोड़कर आपकी शरण में आया हूँ । अब मेरा राज्य, सुख और जीवन सब कुछ आपके ही अधीन है । इसके बाद श्रीराम ने प्रेमभरी दृष्टि और वाणी सें उसें धैर्य दिया और लक्ष्मण से समुद्र का जल मांगकर उसका वहीँ लंकाके राज्य पर अभिषेक कर दिया ।

[ पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि । श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड ६८३,गीता प्रेस गोरखपुर ]

 नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........