※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

विशेष महत्त्व का भजन वह है जिनमें ये छः बातॆं होती हैं-


मनन करने योग्य

विशेष महत्त्व का भजन वह है जिनमें ये छः बातॆं होती हैं-

१- जिस मन्त्र या नाम का जप हो उसके अर्थ को भी समझते जाना ।

२- भजन से मन में किसी प्रकार की भी लौकिक-पारलौकिक कामना न रखना।

३- मन्त्र-जप के या भजन के समय बार-बार शरीर का पुलकित होना, मन में आनन्द का उत्पन्न होना । आनन्द न हो तो आनन्द का संकल्प या भाव करनी चाहिये ।

४- यथासाध्य भजन निरन्तर करना ।

५- भजन में श्रद्धा रखना और उसे सत्कारबुद्धि से करना ।

६- जहाँतक हो भजन को गुप्त रखना ।

ध्यान के सम्बन्ध में-

१- एकान्त में अकेले ध्यान करते समय मन अपने ध्येय में प्रसन्नता के साथ अधिक-से-अधिक समयतक स्वाभाविक ही तल्लीन रहे; तभी ध्यान अच्छा होता है। इस प्रकार की स्थिति के लिये अभ्यास की आवश्यकता है । अभ्यास में निम्नलिखित साधनों से सहायता मिल सकती है-

क- श्वास द्वारा जप
ख- अर्थ सहित जप ।
ग- भगवान के प्रेम , ज्ञान, भक्ति और वैराग्य-सम्बन्धी बातें पढ़नी-सुननी।

२- एकान्त में ध्यान के समय किसी भी सांसारिक विषय की ओर मन को नहीं जाने देना चाहिये । उस समय तो एकमात्र ध्येय का ही लक्ष्य रखना चाहिये । दूसरी बड़ी-से-बड़ी बात का भी मन से तिरस्कार कर देना लाभदायक है।

३- सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन में स्थित होकर ज्ञान-नेत्रॊं द्वारा ऐसे देखना चाहिये मानो सब कुछ मेरे ही संकल्प के आधार पर स्थित है । संकल्प करने से ही सबकी उत्पति है और संकल्प के अभाव से ही अभाव है । यों समझकर फिर संकल्प भी छोड़ देना चाहिये । संकल्प त्याग के बाद जो कुछ बचा रहता है वही अमृत है, वही सत्य है, वही आनन्दघन है । इस प्रकार अचिन्त्य के ध्यान का तीव्र अभ्यास एकान्त में करना चाहिये ।

(’तत्त्वचिन्तामणिग्रंथ से, कोड नं० ६८३ )