मनन करने योग्य
विशेष महत्त्व का भजन वह है जिनमें ये छः बातॆं होती हैं-
१- जिस मन्त्र या नाम का जप हो उसके अर्थ को भी समझते जाना ।
२- भजन से मन में किसी प्रकार की भी लौकिक-पारलौकिक कामना न रखना।
३- मन्त्र-जप के या भजन के समय बार-बार शरीर का पुलकित होना, मन में आनन्द का उत्पन्न होना । आनन्द न हो तो आनन्द का संकल्प या भाव करनी चाहिये ।
४- यथासाध्य भजन निरन्तर करना ।
५- भजन में श्रद्धा रखना और उसे सत्कारबुद्धि से करना ।
६- जहाँतक हो भजन को गुप्त रखना ।
ध्यान के सम्बन्ध में-
१- एकान्त में अकेले ध्यान करते समय मन अपने ध्येय में प्रसन्नता के साथ अधिक-से-अधिक समयतक स्वाभाविक ही तल्लीन रहे; तभी ध्यान अच्छा होता है। इस प्रकार की स्थिति के लिये अभ्यास की आवश्यकता है । अभ्यास में निम्नलिखित साधनों से सहायता मिल सकती है-
क- श्वास द्वारा जप
ख- अर्थ सहित जप ।
ग- भगवान के प्रेम , ज्ञान, भक्ति और वैराग्य-सम्बन्धी बातें पढ़नी-सुननी।
२- एकान्त में ध्यान के समय किसी भी सांसारिक विषय की ओर मन को नहीं जाने देना चाहिये । उस समय तो एकमात्र ध्येय का ही लक्ष्य रखना चाहिये । दूसरी बड़ी-से-बड़ी बात का भी मन से तिरस्कार कर देना लाभदायक है।
३- सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन में स्थित होकर ज्ञान-नेत्रॊं द्वारा ऐसे देखना चाहिये मानो सब कुछ मेरे ही संकल्प के आधार पर स्थित है । संकल्प करने से ही सबकी उत्पति है और संकल्प के अभाव से ही अभाव है । यों समझकर फिर संकल्प भी छोड़ देना चाहिये । संकल्प त्याग के बाद जो कुछ बचा रहता है वही अमृत है, वही सत्य है, वही आनन्दघन है । इस प्रकार अचिन्त्य के ध्यान का तीव्र अभ्यास एकान्त में करना चाहिये ।
(’तत्त्वचिन्तामणि’ ग्रंथ से, कोड नं० ६८३ )