※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

*माँस- भक्षण निषेध* निवेदन यही है कि पाठक इस लेख को मननपूर्वक पढ़े और उनमें जो माँस खाते हों वे कृपापूर्वक माँस खाना छोड़ दें ।


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 (६) भोजन से ही मन बनता है, ’जैस खावे अन्न,वैसा होवे मनकहावत प्रसिद्ध है । मनुष्य जिन पशु-पक्षियों का मांस खाता है उन्ही पशु-पक्षियों के गुण, आचरण आदि उसमें उत्पन्न हो जाते हैं, उसकी आकृति क्रमशः वैसी ही बन जाती है। इससे वे इसी जन्म में मनुष्योचित स्वभाव से प्रायः च्युत होकर पशुस्वभावापन्न, क्रूर और अमर्यादित जीवनवाला बन जाता है और मरने पर वैसी ही भावना के फलस्वरुप तथा अपने कर्मों का बदला भोगने के लिये उन्हीं पशु-पक्षियों की योनियों को प्राप्त होकर महान दुःख भोगता है। भीष्म पितामह कहते हैं-

येन येन शरीरेण यद्यत्कर्म करोति यः ।
तेन तेन शरीरेण तत्तत्फामुपाश्नुते ॥ (महा० अनु० ११६।२७)

प्राणी जिस-जिस शरीर से जो-जो कर्म करता है उस-उस शरीर से वैसा ही फल पाता है।

इससे सिद्ध है कि मांसाहारी मनुष्य जिन पशु-पक्षियों का मांस खाता है , वैसा ही पशु-पक्षी आगे चलकर स्वयं बन जाता है।

(७) जब हम किसी जीव के प्राणों का संयोग करने की शक्ति नहीं रखते, तब हमें उनके प्राणहरण करनेका वस्तुतः कोई अधिकार नहीं है । यदि करते हैं, तो वह एक प्रकार से महान अत्याचार और पाप है। मांसाहारी ऊपर लिखे अनुसार स्वयं प्राणीवध न करनेवाला हो तो भी प्राणीवध का दोषी है ही, क्योंकि प्रकारान्तर से वही तो प्राणीहिंसा में कारण है।

(८) मांसाहारी मनुष्य निर्दय हो ही जाता है और जिसमें दया नहीं है उसके अधर्मी होने में क्या सन्देह है? मांसभक्षी मनुष्य इस बात को भूल जाता है कि मांस खाकर कितना बड़ा निर्दय कार्य कर रहा हूँ । मेरी तो थोड़ी देर के लिये केवल क्षुधा की निवृत्ति होती है,परन्तु बेचारे पशु-पक्षी के प्राण सदा के लिये चले जाते हैं ।प्राणनाश के समान कौन दुःख है, संसार में सभी प्राणी प्राणनाश से डरते हैं।

अनिष्टं सर्वभूतानां मरणं नाम भारत ।
मृत्युकाले हि भूतानां सद्यो जायेत वेपथुः ॥ (महा०अनु० ११६।२७)

हे भारत ! मरण सभी जीवों के लिये अनिष्ट है, मरण के समय सभी जीव सहसा काँप उठते है।

       जिस मनुष्य के हॄदय में दया होती है , वह तो दूसरे के दुःख को देख-सुनकर ही काँप उठता है और उसके दुःख को दूर करने में लग जाता है । परन्तु जो क्रूरहृदय मनुष्य पापी पेट को भरते हैं और जीभ को स्वाद चखाने के लिये प्राणियों का वध करते हैं, वे तो स्वाभाविक ही निर्दयी हैं । निर्दयी मनुष्य भगवान से या अन्यान्य जीवों से कभी दया की माँग नहीं कर सकता ।

      दयालु पुरुष ही संकट के समय ईश्वर की तथा अन्यान्य जीवों की दया का पात्र होता है । बड़े ही खेद का विषय है कि मनुष्य स्वयं तो किसी के द्वारा जरा-सा कष्ट पानेपर ही घबड़ा उठते हैं और चिल्लाने लगते हैं परन्तु निर्दोष मूक जीवों को, इन्द्रियलोलुपता , बुरी आदत और प्रमादवश  मार या मरवाकर खानेतक में नहीं हिचकते।

        मनुष्य सबमें बुद्धिमान और स्वभाव से ही सबका उपकारी जीव माना गया है। यदि वह अपने स्वभाव को भुलाकर निर्दयता के साथ पशु-पक्षियों की हिंसा में इसी प्रकार उतारु रहेगा तो बेचारे पशु-पक्षियों का संसार में निर्वाह ही कठिन हो जायेगा, अतएव मनुष्य को दयालु बनना चाहिये।

न हि प्राणात प्रियतरं लोके किंचन विद्यते।
तस्माद्दयां नरः कुर्याद यथा आत्मनि तथा परे ॥ (महा०अनु० ११६।८)

इस संसार में प्राणों के समान कोई और प्रिय वस्तु नहीं है,अतएव मनुष्य जैसे अपने ऊपर दया करता है उसी प्रकार दूसरों पर भी करे।................शेष अगले ब्लाग में

(तत्त्वचिन्तामणिग्रंथ से, कोड नं० ६८३ )