※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम ,सख्य-प्रेम




    श्रीराम का अपने मित्रों के साथ भी अतुलनीय प्रेम का बर्ताव था । वह अपने मित्रों के लिये जो कुछ भी करते, उसें कुछ नहीं समझते थे, परन्तु मित्रों के छोटे से छोटे कार्य कि भी भूरि-भूरि प्रशंशा किया करते थे । इसका एक छोटा सा उदाहरण यहाँ लिखा जाता है । अयोध्या में भगवान् का राज्याभिषेक होने के बाद बन्दरोंको विदा करते समय मुख्य मुख्य बंदरों को अपने पास बुलाकर प्रेम भरी दृष्टि सें देखते हुए श्रीरामचन्द्रजी बड़ी सुन्दर और मधुर वाणी मे कहने लगे----

सुह्र्दो  मे  भवन्तश्च    शरीरं    भ्रातरस्तथा ।।

युश्माभिरुद्ध्रतश्र्चाहं   व्यसनात् काननौकस: ।

धन्यो  राजा    सुग्रीवो  भवद्धि: सुह्र्दां वरै: ।।

 वनवासी वानरों ! आप लोग मेरे मित्र हैं, भाई हैं तथा शरीर हैं । एवं आप लोगों ने मुझे संकट से उबारा है, अत: आप सरीखे श्रेष्ठ मित्रों के साथ राजा सुग्रीव धन्य हैं ।इसके सिवा और भी बहुत जगह श्रीराम ने अपने मित्रों के साथ प्रेम का भाव दिखाया है । सुग्रीवादि मित्रों ने भी भगवान् के सख्य प्रेम कि बारम्बार प्रशंशा कि है । वह अपने बर्ताव सें इतने मुग्ध रहते थे कि उनको धन,जन और भोगों की स्मृति भी नहीं होती थी । वह हर समय श्रीरामचन्द्र के लिये अपना प्राण न्यौछावर करने को प्रस्तुत रहते थे । श्रीराम और उनके मित्र धन्य है । मित्रता हो तो ऐसी हो ।


नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
(पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि, श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड ६८३,गीता प्रेस गोरखपुर)