※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 30 मार्च 2014

गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य

|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र कृष्ण अमावस्या, रविवार, वि०स० २०७०


** गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य **
गत ब्लॉग से आगे......गोपियों में कामकी गन्ध भी नहीं थी | भगवान् श्रीकृष्ण में तो काम था ही नहीं, बल्कि उनके प्रभाव से गोपियों में भी कामभाव सर्वथा नष्ट हो गया था | भगवान् श्रीकृष्ण के सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ थीं, उन रानियों से लाखों ही संतानें हुईं | इसमें भी उनमें कामकी गन्ध नहीं थी; उन्होंने तो अपनी पत्नियों के साथ केवल शास्त्रानुकूल व्यवहार किया था और वह भी कामभाव से बिलकुल रहित होकर |

         इसपर भी यदि कोई भगवान् में गोपियों के साथ व्यभिचार के दोष की कल्पना करता है तो मैं तो यही कहता हूँ कि उसे नरक में ठौर नहीं | काम की सामर्थ्य नहीं कि वह भगवान् और गोपियों में प्रवेश कर सके | उनके तो प्रभाव से ही काम दूर हो जाता है | गोपियों की चर्चा से ही काम दूर भाग जाता है | यदि कोई गोपियों में यह भाव करे कि उन्होंने व्यभिचार किया तो उसको कौन-सी गति मिलेगी, यह भी मेरी बुद्धि में नहीं आता | भगवान् ने स्वयं गोपियों की प्रशंसा की है | गोपियाँ प्रथम तो अबला थीं; स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा आठगुना अधिक कामभाव बताया जाता है | फिर साथ में साक्षात् परब्रह्म परमात्मा ही श्यामसुन्दर श्रीकृष्णरूपमें थे | उनके-जैसा सुन्दर भी कोई नहीं | सारे संसार का सौन्दर्य एकत्र होकर भी भगवान् के सौंदर्य के एक अंश की भी समानता नहीं कर सकता | ऐसे परम सुन्दर के साथ रहकर भी गोपियाँ कामभाव से सर्वथा रहित थीं; अतः उनकी जितनी बड़ाई की जाय, सब थोड़ी ही है | गोपियों में ऐसी शक्ति है कि उनके दर्शन से दर्शक का कामभाव नष्ट हो जाता है, फिर भगवान् की तो बात ही क्या ? उन परब्रह्म परमात्मा ने तो श्रीकृष्णरूपमें प्रकट होकर कामदेव का मद चूर्ण किया और सबको आदर्श शिक्षा दी | उनके तो आचरण अनुकरणीय थे | उन्होंने गीता में स्वयं कहा है—
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:॥
(३ | २२-२४)
‘हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ; क्योंकि हे पार्थ ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूं तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं | इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरता का करनेवाला होऊं तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करनेवाला बनूँ |’

         ध्यान देकर सोचना चाहिए कि यदि भगवान् श्रीकृष्ण गोपियों के साथ व्यभिचार करते तो व्यभिचारी और अधर्मी कहलाते; किन्तु जिस समय परीक्षित मृतक-अवस्था में उत्तरा के गर्भ से निकला तो उसको जीवित करने के लिए भगवान् ने यह प्रतिज्ञा की कि ‘यदि मैंने जीवनभर सत्य का पालन किया है, यदि मुझमें सत्य और धर्म नित्य स्थित हैं तो उत्तरा का यह सुपुत्र जीवित हो उठे |’ यह कहते ही बालक जी उठा | इससे यह समझना चाहिए कि यदि उनमे कुछ भी दोष होता तो क्या वे ऐसा कहते; कदापि नहीं | इसके सिवा, शिशुपाल भगवान् श्रीकृष्ण का कट्टर शत्रु था, उसने भगवान् को अनेक अनुचित बातें कही हैं, यह बात महाभारत के सभापर्व में विस्ताररूपसे है तथा दुर्योधन ने भी मरते समय बहुत-सी गालियाँ दीं, यह बात महाभारत के शल्यपर्वान्तर्गत गदापर्व में आती है | यदि उनमें इस विषय का कुछ भी दोष होता तो शिशुपाल तथा दुर्योधन अन्य गालियों के साथ यह भी कहते कि तुमने गोपियों के साथ व्यभिचार किया है; किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं कहा | इससे भी यह सिद्ध होता है कि उस समय भी यही प्रसिद्धि थी कि भगवान् श्रीकृष्ण इस दोष से सर्वथा मुक्त हैं | इसी कारण शिशुपाल और दुर्योधन उनपर यह दोष नहीं लगा सके | उन्हें यदि थोड़ी-सी भी गुंजाइश मिलती तो वे अवश्य यह दोष लगाते | इसके सिवा, रासलीला के समय भगवान् श्रीकृष्ण की दस वर्ष की आयु थी—दस वर्ष के बालक में स्त्री-सहवास का दोष घटना संभव नहीं, अतएव भगवान् श्रीकृष्ण में व्यभिचार-दोष की गन्ध की भी कल्पना नहीं करनी चाहिए | किन्तु दम्भी और व्यभिचारी लोग भगवान् पर झूठा दोष आरोप करके अपनी कामवासना सिद्ध करने के लिए ऐसा कहते हैं कि देखो, श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ भोग-विलास किया, इसी से गोपियों की मुक्ति हो गयी | इस प्रकार कहकर वे भोली-भली स्त्रियों को अपने पंजे में फंसाकर खुद तो श्रीकृष्ण बनते हैं और उन स्त्रियों को गोपी बनाते हैं एवं फिर उनके साथ पापकर्म करते हैं; भगवान् उनको कौन-सी घोर गति देंगे, यह तो वे भगवान् ही जानें |..शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७,गीताप्रेसगोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!