|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र कृष्ण द्वादशी, शुक्रवार, वि०स० २०७०
** गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य **
गत
ब्लॉग से आगे.......रास में तो विशुद्ध प्रेम से
नृत्य, गीत, वंशीवाद्य आदि कला का प्रकाश होता है, न कि भोग-विलास का | भगवान
श्रीकृष्ण गोपियों में विशुद्ध प्रेम की वृद्धि करते थे, रास में भगवान् गोपियों
के साथ नृत्य करते थे, इससे गोपियों की बड़ी प्रसन्नता होती थी एवं विशुद्ध प्रेम
का संचार होता था | उस समय उनको एक-दूसरे के सिवा कुछ भी सुधि नहीं रहती थी | काम
की सामर्थ्य नहीं कि उनकी ओर ताक भी सके | देखिये, गोपियों में कैसा विशुद्ध प्रेम
था | भगवान् ने गोपियों को बुलाने के लिए बड़े ही मधुर स्वर से वंशी बजायी थी |
वंशी की तान सुनते ही गोपियाँ सब काम छोड़कर श्रीकृष्ण के पास चली आयीं | उस समय
भगवान् ने उनसे कहा—‘गोपियों ! रात का समय बड़ा भयावना होता है और इस वन में
बड़े-बड़े भयावने जीव-जन्तु रहते हैं; अतः तुम सब तुरंत व्रज में लौट जाओ | रात के
समय घोर जंगल में स्त्रियों को नहीं रुकना चाहिए | तुम्हें न देखकर तुम्हारे
माँ-बाप, पति-पुत्र और भाई-बन्धु ढूढ़ रहे होंगे, उन्हें भय में न डालो | तुमलोगों
ने रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे हुए इस वन की शोभा को देखा | पूर्ण चन्द्रमा की कोमल
रश्मियों से यह रंगा हुआ है, मानो उन्होंने अपने हाथों से चित्रकारी की हो और
यमुनाजी के जल का स्पर्श करके बहनेवाली शीतल वायु की मंद-मंद गति से हिलते हुए ये
वृक्षों के पत्ते तो इस वन की शोभा को और भी बढ़ा रहे हैं; परन्तु अब तो तुमलोगों
ने यह सब कुछ देख लिया | अब देर न करो, शीघ्र-से-शीघ्र व्रज में लौट जाओ | तुमलोग
कुलीन स्त्री हो और स्वयं भी सती हो, जाओ, अपने पतियों की सेवा-शुश्रूषा करो | यदि
मेरे प्रेमसे परवश होकर तुमलोग यहाँ आयी हो तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं हुई, यह
तो तुम्हारे योग्य ही है; क्योंकि जगत के पशु-पक्षी तक
मुझसे प्रेम करते हैं, मुझे देखकर प्रसन्न होते हैं | कल्याणी गोपियों ! स्त्रियों
का परमधर्म यही है कि वे पति और उसके भाई-बन्धुओं की निष्कपटभाव से सेवा करें और
संतान का पालन-पोषण करें | गोपियों ! मेरी लीला और गुणों के श्रवण से, रूप के दर्शन से, उन सबके कीर्तन और
ध्यान से मेरे प्रति जैसे अनन्य प्रेम की प्राप्ति होती है, वैसे प्रेम की
प्राप्ति पास रहने से नहीं होती | इसलिए तुमलोग अभी अपने-अपने घर
लौट जाओ |’
इसपर गोपियाँ बोलीं—‘प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम घटघटव्यापी हो | हमारे हृदय की बात
जानते हो | तुम्हें इस प्रकार निष्ठुरता भरे वचन नहीं कहने चाहिए | हम सब कुछ छोड़कर
केवल तुम्हारे चरणों में ही प्रेम करती हैं | प्यारे श्यामसुन्दर ! तुम सब धर्मों
का रहस्य जानते हो | तुम्हारा यह कहना कि ‘अपने पति, पुत्र, भाई-बन्धुओं की सेवा
करना ही स्त्रियों का स्वधर्म है’—अक्षरशः ठीक है, परन्तु इस उपदेश के अनुसार हमें
तुम्हारी ही सेवा करनी चाहिए; क्योंकि तुम्हीं सब उपदेशों के पद (चरम लक्ष्य) हो, साक्षात् भगवान हो | तुम्हीं
समस्त शरीरधारियों के सुहृद हो, आत्मा हो और परम प्रियतम हो |’
तदन्तर भगवान् ने बड़े ही प्रेम से सबके
साथ रासलीला आरम्भ की | योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण दो-दो गोपियों के बीच में प्रकट
हो गये | इस प्रकार एक गोपी और एक श्रीकृष्ण, इस क्रम से मंडल बनाकर भगवान्
रासलीला करने लगे | सभी गोपियाँ ऐसा अनुभव करती थीं कि हमारे प्यारे श्रीकृष्ण तो
हमारे ही पास हैं | उस समय रासोत्सव को देखने के लिए सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियों
के साथ वहाँ आये | स्वर्ग की दिव्य दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं | स्वर्गीय
पुष्पों की वर्षा होने लगी | गन्धर्वगण अपनी-अपनी पत्नियों के साथ भगवान् के
निर्मल यश का गान करने लगे | रासमण्डल में सभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्यामसुन्दर
के साथ नृत्य करने लगीं | उनकी कलाइयों के कंगन, पैरों के पायजेब और करधनी के
घुंघरू एक साथ बज उठे | जिससे वह मधुर ध्वनि बड़े ही जोरकी हो रही थी | यमुनाजी की
रमणीय वालुकापर व्रज-सुंदरियों के बीच में भगवान् श्रीकृष्ण की बड़ी ही अनोखी शोभा
हुयी | ऐसा जान पड़ता था, मानो अनेक सुवर्ण-मणियों के बीच में महामरतकमणि चमक रही
हो | नृत्य के समय गोपियाँ तरह-तरह से पाद्न्यास करने लगीं | कभी धीरे-धीरे पैर
रखतीं तो कभी पीछे हटा लेतीं | कभी धीरे-धीरे पैर रखतीं तो कभी बड़े वेग से और कभी
चाक की तरह घूम जातीं | कभी अपने हाथ उठा-उठाकर भाव बतातीं और कभी मुसकराने लगतीं
| उनके कानों के कुंडल हिल-हिलकर कपोलों पर आ जाते थे | नाचने के परिश्रम से उनके
मुँहपर पसीने की बूंदे झलकने लगीं | इस प्रकार गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्ण के साथ
गा-गाकर नाच रही थीं | उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो बहुत-से श्रीकृष्ण तो
साँवले-साँवले मेघमण्डल हैं और उनके बीच-बीच में चमकती हुई गौरवर्णा गोपियाँ बिजली
हैं |…..शेष
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—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७,
गीताप्रेसगोरखपुर
नारायण !
नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!