|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र कृष्ण, पापमोचनी एकादशी, गुरुवार, वि०स० २०७०
** गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य **
श्रीमद्भागवतकी
रासपंचाध्यायी की रासलीला-अध्याय के विषय में कुछ विचार किया जाता है | साधारणतया
लोग रासपंचाध्यायी का जो अभिप्राय व्यक्त किया करते हैं, वास्तविक रासपंचाध्यायी
उससे भिन्न है | वस्तुतः रासपंचाध्यायी में भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का
विशुद्ध माधुर्य का भाव है | उस विशुद्ध प्रेम के कारण ही आज संसार में गोपियों की
इतनी प्रशंसा की जाती है | गोपियों में श्रीराधिकाजी का स्थान सबसे ऊँचा है,
रासलीला में प्रधान गोपी के नाम से इन्हीं का संकेत है | ये भगवान् की आह्लादिनी
शक्ति हैं | अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों के नायक भगवान् श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाना,
उनको प्रसन्न एवं आनंदित करना, यह उनका ही काम था | इनकी सखी गोपियों का भी यही
काम था | श्रीकृष्णलीला-सम्बन्धी जितने भी ग्रन्थ हैं, उन सबमें हम श्रीमद्भागवत
को प्रधान समझते हैं, किन्तु भागवत में यत्किंचित कहीं जो जारभाव-सा दिखता है, उसे
हमारा मन स्वीकार नहीं करता | यह चीज
हमारे काम की नहीं, हमें तो विशुद्ध प्रेमभाव ही देखना चाहिए | पति-पत्नी
का प्रेम तो कामभाव को लेकर हो सकता है, किन्तु भगवान् का गोपियों के साथ कामभाव
को लेकर प्रेम था, यह हम स्वप्न में भी स्वीकार नहीं कर सकते | भगवान् श्रीकृष्ण
का श्रीरुक्मिणीजी के साथ जो प्रेम है, जिससे कि संतानोत्पत्ति होती है, यह उनका
ऐश्वर्ययुक्त प्रेम है | जिस प्रेम में कामभाव हो, वह
प्रेम नहीं | भगवान् प्रेम और आनन्द के पुंज हैं | उनका प्रेम पूर्ण विशुद्ध था |
भगवान् की जितनी भी क्रियाएं होती थी, केवल गोपियों को आह्लादित करने के लिए होती
थीं | रासलीला में जो उनका नृत्य, गान, वंशीवादन आदि होता था, सब गोपियों को सुख
पहुँचाने के लिए, उनका प्रेम बढ़ाने के लिए ही होता था | इसी प्रकार गोपियों की
जितनी क्रियाएं होती थी, केवल भगवान् को आह्लादित करने के लिए ही थीं |
भगवान्
श्रीकृष्ण साक्षात् परब्रह्म परमात्मा थे, प्रेम-प्रचार के लिए ही इन्होने मनुष्यरूप
में अवतार धारण किया था, न कि कामोपभोग के लिए और वास्तव में इन्होंने
विशुद्ध प्रेम का प्रचार किया भी | मेरी एक लोकोक्ति सुनी हुई है, वह इस प्रकार है
| एक समय नारदजी की काम से भेंट हुई, तब नारदजी ने कहा—‘अरे मदन ! तुमने तो मेरे
मन में भी काम-विकार पैदा कर दिया |’ इसपर कामने नारदजी से बड़े अहंकारपूर्ण वचन
कहे | वह बोला—‘तुम तो चीज ही क्या हो, मैं ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश को भी
काममोहित करके नचा सकता हूँ, मेरे सम्मुख कोई भी खड़ा नहीं रह सकता |’ तब नारदजी
भगवान् विष्णु के पास गये एवं कामदेव के वचन उन्होंने ज्यों-के-त्यों उन्हें कह
सुनाये | नारदजी ने भगवान् से कहा, ‘उसको इतना घमंड हो गया है कि वह आपको भी कुछ
नहीं समझता, यदि आप उसका अभिमान नष्ट न करेंगे तो वह और उद्दण्ड हो जायगा | इसलिए
आपको उसका अभिमान नष्ट करना चाहिए |’ भगवान् विष्णु ने नारद से कहा, ‘जाओ—कामसे कह
दो कि मैं द्वापर में मनुष्यरूप में अवतार ग्रहण करूँगा | उस समय मुझसे तुम किले
की लड़ाई करना चाहोगे या मैदान की |’ तब नारदजी ने काम के पास आकर उससे यह बात पूछी
| काम बोला—‘मुझे किले की लड़ाई में* भी कोई नहीं जीत सकता, फिर मैदान की लड़ाई में☨
तो जीत ही कौन सकता है ?’
फिर नारदजी ने भगवान् के पास जाकर सारी
बातें कह दीं | तब भगवान् ने नारद के द्वारा काम को सूचित कर दिया कि ‘तुम्हारे
साथ मैंदान की लड़ाई करने के लिए मैं श्रीकृष्णरूप में अवतार लूँगा |’ भगवान् की तो
बात ही क्या, भगवान् के साथ रासलीला करनेवाली गोपियों ने ही मदन के मद को चूर कर
दिया | जहाँ मधुवन की अद्भुत शोभा एवं शीतल, मंद, सुगंधयुक्त पवन बह रहा था,
जिसमें कि स्वाभाविक ही काम की उत्पत्ति हो सकती है और ऋषि-मुनियों का भी काम से
मोहित होना संभव है, वहाँ वे सुंदरी, युवा, कुमारी तथा विवाहिता गोपियाँ इतनी
जितेन्द्रिया रहीं कि उनपर कामदेव अपना कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सका | वे सुंदरी
गोपियाँ कामको जीतकर उसके मस्तक पर नाच-नाचकर उसके मदको चूर करती थीं | सुन्दरता
के साथ पूर्ण युवावस्था होनेपर भी उन्होंने विशुद्ध प्रेमभाव ही रखा | इस प्रकार
जब गोपियों ने ही काम को जीत लिया, तब नित्ययुक्त भगवान् की तो बात ही क्या ?
*किले की लड़ाई का अर्थ यह है कि
गिरि-गुहा आदि एकान्त निर्जन स्थान में जहाँ कि काम-क्रोधादि का प्रायः अवसर ही
नहीं आता, वहाँ ब्रह्मचर्य से रहकर कामको जीतना |
☨ मैदान की लड़ाई का अर्थ यह है कि
गृहस्थ में स्त्रियों के समूह में रहकर काम को जीतना |...शेष
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—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७,
गीताप्रेसगोरखपुर
नारायण !
नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!