※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 27 मार्च 2014

गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र कृष्ण, पापमोचनी एकादशी, गुरुवार, वि०स० २०७०

** गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य **
श्रीमद्भागवतकी रासपंचाध्यायी की रासलीला-अध्याय के विषय में कुछ विचार किया जाता है | साधारणतया लोग रासपंचाध्यायी का जो अभिप्राय व्यक्त किया करते हैं, वास्तविक रासपंचाध्यायी उससे भिन्न है | वस्तुतः रासपंचाध्यायी में भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का विशुद्ध माधुर्य का भाव है | उस विशुद्ध प्रेम के कारण ही आज संसार में गोपियों की इतनी प्रशंसा की जाती है | गोपियों में श्रीराधिकाजी का स्थान सबसे ऊँचा है, रासलीला में प्रधान गोपी के नाम से इन्हीं का संकेत है | ये भगवान् की आह्लादिनी शक्ति हैं | अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों के नायक भगवान् श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाना, उनको प्रसन्न एवं आनंदित करना, यह उनका ही काम था | इनकी सखी गोपियों का भी यही काम था | श्रीकृष्णलीला-सम्बन्धी जितने भी ग्रन्थ हैं, उन सबमें हम श्रीमद्भागवत को प्रधान समझते हैं, किन्तु भागवत में यत्किंचित कहीं जो जारभाव-सा दिखता है, उसे हमारा मन स्वीकार नहीं  करता | यह चीज हमारे काम की नहीं, हमें तो विशुद्ध प्रेमभाव ही देखना चाहिए | पति-पत्नी का प्रेम तो कामभाव को लेकर हो सकता है, किन्तु भगवान् का गोपियों के साथ कामभाव को लेकर प्रेम था, यह हम स्वप्न में भी स्वीकार नहीं कर सकते | भगवान् श्रीकृष्ण का श्रीरुक्मिणीजी के साथ जो प्रेम है, जिससे कि संतानोत्पत्ति होती है, यह उनका ऐश्वर्ययुक्त प्रेम है | जिस प्रेम में कामभाव हो, वह प्रेम नहीं | भगवान् प्रेम और आनन्द के पुंज हैं | उनका प्रेम पूर्ण विशुद्ध था | भगवान् की जितनी भी क्रियाएं होती थी, केवल गोपियों को आह्लादित करने के लिए होती थीं | रासलीला में जो उनका नृत्य, गान, वंशीवादन आदि होता था, सब गोपियों को सुख पहुँचाने के लिए, उनका प्रेम बढ़ाने के लिए ही होता था | इसी प्रकार गोपियों की जितनी क्रियाएं होती थी, केवल भगवान् को आह्लादित करने के लिए ही थीं |

         भगवान् श्रीकृष्ण साक्षात् परब्रह्म परमात्मा थे, प्रेम-प्रचार के लिए ही इन्होने मनुष्यरूप में अवतार धारण किया था, न कि कामोपभोग के लिए और वास्तव में इन्होंने विशुद्ध प्रेम का प्रचार किया भी | मेरी एक लोकोक्ति सुनी हुई है, वह इस प्रकार है | एक समय नारदजी की काम से भेंट हुई, तब नारदजी ने कहा—‘अरे मदन ! तुमने तो मेरे मन में भी काम-विकार पैदा कर दिया |’ इसपर कामने नारदजी से बड़े अहंकारपूर्ण वचन कहे | वह बोला—‘तुम तो चीज ही क्या हो, मैं ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश को भी काममोहित करके नचा सकता हूँ, मेरे सम्मुख कोई भी खड़ा नहीं रह सकता |’ तब नारदजी भगवान् विष्णु के पास गये एवं कामदेव के वचन उन्होंने ज्यों-के-त्यों उन्हें कह सुनाये | नारदजी ने भगवान् से कहा, ‘उसको इतना घमंड हो गया है कि वह आपको भी कुछ नहीं समझता, यदि आप उसका अभिमान नष्ट न करेंगे तो वह और उद्दण्ड हो जायगा | इसलिए आपको उसका अभिमान नष्ट करना चाहिए |’ भगवान् विष्णु ने नारद से कहा, ‘जाओ—कामसे कह दो कि मैं द्वापर में मनुष्यरूप में अवतार ग्रहण करूँगा | उस समय मुझसे तुम किले की लड़ाई करना चाहोगे या मैदान की |’ तब नारदजी ने काम के पास आकर उससे यह बात पूछी | काम बोला—‘मुझे किले की लड़ाई में* भी कोई नहीं जीत सकता, फिर मैदान की लड़ाई में☨ तो जीत ही कौन सकता है ?’

          फिर नारदजी ने भगवान् के पास जाकर सारी बातें कह दीं | तब भगवान् ने नारद के द्वारा काम को सूचित कर दिया कि ‘तुम्हारे साथ मैंदान की लड़ाई करने के लिए मैं श्रीकृष्णरूप में अवतार लूँगा |’ भगवान् की तो बात ही क्या, भगवान् के साथ रासलीला करनेवाली गोपियों ने ही मदन के मद को चूर कर दिया | जहाँ मधुवन की अद्भुत शोभा एवं शीतल, मंद, सुगंधयुक्त पवन बह रहा था, जिसमें कि स्वाभाविक ही काम की उत्पत्ति हो सकती है और ऋषि-मुनियों का भी काम से मोहित होना संभव है, वहाँ वे सुंदरी, युवा, कुमारी तथा विवाहिता गोपियाँ इतनी जितेन्द्रिया रहीं कि उनपर कामदेव अपना कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सका | वे सुंदरी गोपियाँ कामको जीतकर उसके मस्तक पर नाच-नाचकर उसके मदको चूर करती थीं | सुन्दरता के साथ पूर्ण युवावस्था होनेपर भी उन्होंने विशुद्ध प्रेमभाव ही रखा | इस प्रकार जब गोपियों ने ही काम को जीत लिया, तब नित्ययुक्त भगवान् की तो बात ही क्या ?
*किले की लड़ाई का अर्थ यह है कि गिरि-गुहा आदि एकान्त निर्जन स्थान में जहाँ कि काम-क्रोधादि का प्रायः अवसर ही नहीं आता, वहाँ ब्रह्मचर्य से रहकर कामको जीतना |
☨ मैदान की लड़ाई का अर्थ यह है कि गृहस्थ में स्त्रियों के समूह में रहकर काम को जीतना |...शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७, गीताप्रेसगोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!