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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र कृष्ण, पञ्चमी, शुक्रवार, वि० स० २०७०
ब्राह्मणत्व की रक्षा परम आवश्यक है -९-
गत ब्लॉग से आगे...इस पर यदि कोई कहे की ब्राह्मणों
की जो इतनी महिमा कही जाती है, यह उन ग्रंथो के कारण ही तो है, जो प्राय
ब्राह्मणों के बनाये हुए है और जिनमे ब्राह्मणों ने जान बूझ कर अपने स्वार्थ साधन
के लिए नाना प्रकार के रास्ते खोल दिए है । तो इसके उत्तर यह है की ऐसा करना
वस्तुतः शास्त्र-ग्रंथो से यथार्थ परिचय न होने के कारण ही है । शास्त्रो और
प्राचीन ग्रंथो के देखने से यह बात सिद्ध होती है, ब्राह्मण ने तो त्याग ही त्याग किया
है । राज्य क्षत्रियो के लिए छोड़ दिया,धन के उत्पत्ति स्थान कृषि,गो रक्षा और
वाणिज्य आदि को और धन-भण्डार को विषयो के हाथ दे दिया । शारीरिक श्रम से
अर्थोपार्जन करने का कार्य शूद्रों के हिस्से में आ गया है । ब्राह्मणों ने तो
अपने लिए रखा अपने लिखे केवल संतोष से भरा त्याग पूर्ण जीवन ।
इसका प्रमाण शास्त्रो के वे शब्द है, जिनमे ब्राह्मण की
वृत्ति का वर्णन है –
‘ब्राह्मण ऋत, अमृत, मृत,प्रमृत, या सत्यानृत से अपना जीवन
बितावे परन्तु श्रवृति अर्थात सेवावृति- नौकरी न करे । उञ्छ और शील को ऋत को जानना चाहिये । बिना मांगे मिला हुआ अमृत
है । मांगी हुई भिक्षा मृत कहलाती है और खेती को प्रमृत कहते है । वाणिज्य को
सत्यानृत कहते है, उससे भी जीविका चलाई जा सकती है किन्तु सेवाको श्रवृति
कहते है इसलिए उसका त्याग कर देना
चाहिये ।’ (मनु० ४ । ४-६ ) ।.....शेष अगले ब्लॉग में ।
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्व चिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!