※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 11 सितंबर 2013

वैराग्य -१-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद शुक्ल, षष्ठी, बुधवार, वि० स० २०७०


वैराग्य का महत्व

 

कल्याण की इच्छा कने वाले पुरुष को वैराग्य-साधन की परम आवश्यकता है | वैराग्य हुए बिना आत्मा का उद्धार कभी नहीं हो सकता | सच्चे वैराग्य से सांसारिक भोग-पदार्थों के प्रति उपरामता उत्पन्न होती है | उपरामता से परमेश्वर के स्वरुप का यथार्थ ध्यान होता है | ध्यान से परमात्मा के स्वरूप का वास्तविक ज्ञान होता है और ज्ञान से उद्धार होता है | जो लोग ज्ञान-सम्पादनपूर्वक मुक्ति प्राप्त करने में वैराग्य और उपरामता की कोई आवश्यकता  नहीं समझते, उनकी मुक्ति वास्तव में मुक्ति न होकर केवल भ्रम ही होता है | वैराग्यउपरामता-रहित ज्ञान वास्तविक ज्ञान नही, वह केवल वाचिक और शास्त्रीय ज्ञान है जिसका फल मुक्ति नहीं, प्रत्युत और भी कठिन बन्धन है | इसीलिए श्रुति कहती है ‘जो अविद्या की उपासना करते है और जो विद्या में रत है वे उससे भी अधिक अन्धकार में प्रवेश करते है |’ (ईश० म० ९) ऐसा वाचिक ज्ञानी निर्भय होकर विषय भोगों में प्रवृत हो जाता है, वह पाप को भी पाप नहीं समझता, इसीसे वह विषयरुपी दलदल में फसँकर पतित हो जाता है | ऐसे ही लोगों के लिए यह उक्ति प्रसिद्ध है :

ब्रह्मज्ञान जान्यों नहीं, कर्म दिये छिटकाय |

तुलसी ऐसी आत्मा, सहज नरक में महँ जाय ||

वास्तव में ज्ञान के नाम पर महान अज्ञान ग्रहण कर लिया है | अतएव यदि यथार्थ कल्याण की इच्छा हो तो साधक को सच्चा, दृढ वैराग्य उपार्जन करना चाहिये | किसी स्वाँगविशेष का नाम वैराग्य नहीं है | किसीकारणवश  या मूढ़ता से स्त्री, पुत्र, परिवार, धनादि का त्याग कर देना, कपडे रंग लेना, सिर मुडवा लेना, जटा बढ़ाना या अन्य बाह्य चिन्हों को धारण करना वैराग्य नहीं कहलाता | मन से विषयों में रमन करते रहना और ऊपर से स्वांग बना लेना तो मिथ्याचार-दम्भ है | शेष अगले ब्लॉग में ......         

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!