|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी, मंगलवार, वि०स० २०७०
*स्वधर्म-पालनकी
आवश्यकता*
गत ब्लॉग
से आगे.......केशिनी नामकी कन्या थी, उससे
प्रह्लाद पुत्र विरोचन और अंगिरा पुत्र सुधन्वा—दोनों ही विवाह करना चाहते थे |
इसी बात को लेकर दोनों में विवाद हो गया | कन्या ने कहा कि ‘तुम दोनों में जो
श्रेष्ठ होगा, मैं उसी के साथ विवाह करुँगी |’ इसपर वे दोनों ही अपने को श्रेष्ठ
बतलाने लगे | अन्त में यह निर्णय हुआ कि उनकी श्रेष्ठता का निर्णय न्याय तथा
धर्मपरायण प्रह्लादजी करें | जो निकृष्ट हो, उसके प्राण हरण कर लिए जायँ | दोनों
ने प्रह्लाद की सेवा में उपस्थित होकर अपनी कहानी सुनायी और निर्णय के लिए
प्रार्थना की | प्रह्लाद ने सारी बातें सुनकर पुत्र विरोचन की अपेक्षा सुधन्वा
ब्राह्मण को ही श्रेष्ठ समझा और विरोचन से कहा—
श्रेयान सुधन्वा त्वत्तो वै मत्तःश्रेयांस्तथान्गिराः |
माता सुधन्वश्चापि मातृतः
श्रेयसी तव |
विरोचन सुधन्वायं प्राणानामीश्वरस्तव ||
(महा०
सभा० ६८ | ८७)
‘विरोचन !
निश्चय ही सुधन्वा तुझसे श्रेष्ठ हैं तथा इसके पिता अंगिरा मुझसे श्रेष्ठ हैं और
इस सुधन्वा की माता भी तेरी माता से श्रेष्ठ है, इसलिए यह सुधन्वा तेरे प्राणों का
स्वामी है |’
यह है सच्ची धर्मपरायणता और धर्म के लिए
समस्त ममताओं का आदर्श त्याग |
इस निर्णय को सुनकर सुधन्वा मुग्ध हो गया
और उसने कहा—
पुत्रस्नेहं परित्यज्य यस्त्वं धर्मे व्यवस्थितः |
अनुजानामि ते पुत्रं जीवत्वेष शतं समाः ||
(महा०
सभा० ६८ | ८८)
‘प्रह्लादजी
! पुत्रस्नेह को त्यागकर तुम धर्मपर अटल रहे इसलिए तुम्हारा यह पुत्र सौ वर्षतक
जीवित रहे (मैं इसके प्राण हरण नहीं करूँगा) |’
राजा हरिश्चंद्रने भारी-से-भारी विपत्ति
सही, किन्तु धर्मका त्याग नहीं किया | यहाँ तक कि धर्मपालन के लिए उन्होंने अपनी
पत्नी को बेंच दिया और स्वयं चांडालके यहाँ नौकरी कर ली | इसी के प्रभाव से वे
स्त्री-पुत्रों सहित उत्तम गति को प्राप्त हुए |
महाराज युधिष्ठिर पर ऐसी विपत्तियाँ कई
बार आयीं; परन्तु उन्होंने कभी धर्म का त्याग नहीं किया | जब द्रौपदी और चारो
भाईयों के गिर जानेपर महाराज युधिष्ठिर अकेले ही हिमालय की ओर बढ़ रहे थे, तब एक
कुत्ता उनके पीछे-पीछे चला आ रहा था | उसी समय देवराज इन्द्र रथ लेकर आये और
उन्होंने युधिष्ठिर को रथपर चढ़ने के लिए अनुरोध किया | परन्तु युधिष्ठिर ने इन्द्र
के बहुत आग्रह करनेपर भी अपने भक्त कुत्ते को छोड़कर अकेले स्वर्ग जाना नहीं चाहा |
उन्होंने स्पष्ट कह दिया—‘मैं इस कुत्ते को किसी प्रकार भी नहीं छोड़ सकता |’ इसपर
साक्षात् धर्म—जो कि कुत्ते के रूप में थे—प्रकट हो गये | उन्होंने युधिष्ठिर से
कहा—‘तुमने कुत्ते को अपना भक्त बतलाकर स्वर्गतक का त्याग कर दिया | तुम्हारे इस
त्याग की बराबरी कोई स्वर्गवासी भी नहीं कर सकता |’ ऐसा कह वे युधिष्ठिर को रथ में
चढ़ाकर स्वर्ग गए | इस प्रकार महाराज युधिष्ठिर ने स्वर्ग की भी परवा न करके अन्ततक
धर्मका पालन किया |
जो लोग धर्म और ईश्वर को नहीं मानते, वे
धर्म और ईश्वर क्या वस्तु है, इसीको नहीं समझते | उन्होंने न तो कभी इस विषय के
शास्त्रों का ही अध्ययन किया है और न इस विषय का तत्त्व समझने की ही कभी चेष्टा की
है | उनका इस विषय के अन्तर में प्रवेश न होने के कारण ही वे इस महान लाभ से वंचित
हो रहे हैं |
ईश्वर की आज्ञारूप जो धर्म है, उसका
सकामभाव से पालन किया जाता है तो उससे इस लोक और परलोक में सुख मिलता है और यदि
उसका निष्कामभाव से पालन किया जाता है तो उससे अपने आत्मा का कल्याण हो जाता है |
भगवान् ने कहा है—
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः |
परस्परं भावयन्तः श्रेयः
परमवाप्स्यथ ||
(गीता
३ | ११)
‘तुमलोग
इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुमलोगों को उन्नत करें | इस
प्रकार निःस्वार्थभाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याण को प्राप्त
हो जाओगे |’
अतएव हमें निष्कामभाव से धर्म का पालन
करना चाहिए | निष्कामभाव से धर्म का पालन करनेवाला
मनुष्य परम पद को प्राप्त हो जाता है |
—श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि
पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !!
नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!