※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 9 सितंबर 2013

स्वधर्म-पालनकी आवश्यकता



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी, सोमवार, वि०स० २०७०

*स्वधर्म-पालनकी आवश्यकता*
गत ब्लॉग से आगे.......श्रुति, स्मृति, पुराण आदि शास्त्रों में धर्मका स्वरुप बहुत विस्तार से बतलाया गया है, उन  ग्रंथो में देखना चाहिए | मनुजी ने कहा है—
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः |
एतच्चतुर्विधं   प्राहु   साक्षाद्धर्मस्य   लक्षणम् ||
(मनु०२ | १२)
‘वेद, स्मृति, सत्पुरुषों का आचार तथा जिसके आचरण से अपना हित हो वह, इस तरह चार प्रकार का यह धर्म का साक्षात् लक्षण कहा है |’
          यहाँ ‘स्वस्य च प्रियमात्मनः’ से ‘जो अपनी आत्मा के लिए हितकर हो’ किया जाना धर्म है | मनमाने आचरण का तो स्वयं भगवान् ने ही निषेध किया है | भगवान कहते हैं—
यः  शास्त्रविधिमुत्सृज्य   वर्तते  कामकारतः |
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ||
(गीता १६ | २३)
‘जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुखको ही |’
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ |
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं  कर्म  कर्तुमिहार्हसि ||
(गीता १६ | २४)
‘अतएव तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है | ऐसा जानकर तू शास्त्रविधि से नियत कर्म ही करने योग्य है |’
        धर्म के विषय में जहाँ श्रुति और स्मृति में विरोध प्रतीत होता हो, वहाँ श्रुति ही बलवती मानी जाती है, इसलिए श्रुति के कथनानुसार ही पालन करना चाहिए | जहाँ एक श्रुति से दूसरी श्रुति का विरोध हो, वहाँ वे दोनों ही मान्य हैं | और जहाँ श्रुति और सदाचार में विरोध प्रतीत होता हो, वहाँ (श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा आचरित) सदाचार ही प्रधान है | जैसे श्रुति में मांस भक्षण आदि कई बातें आ जाती हैं, जो हमारी समझ में नहीं आती और हमें आत्मा के लिए अहितकर प्रतीत होती हैं तथा सर्वसाधारण उनका निर्णय नहीं कर सकते | परन्तु भगवत्प्राप्त पुरुषों के द्वारा किये गये आचरणों में कहीं भी अहितकी आशंका के लिए कोई गुंजाइश नहीं है | इसीलिए महाराज युधिष्ठिर ने यह निर्णय दिया है कि—
तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् |
धर्मस्य तत्त्वं  निहितं  गुहायां  महाजनो येन गतः स पन्था ||
(वन० ३१३ | ११७)
‘धर्मके विषय में तर्ककी कोई प्रतिष्ठा (स्थिरता) नहीं, श्रुतियां भिन्न-भिन्न तात्पर्यवाली हैं तथा ऋषि-मुनि भी कोई एक नहीं हैं, जिससे उसी के मतको प्रमाणस्वरूप माना जाय | धर्म का तत्त्व गुहा में छिपा हुआ है—धर्म की गति अत्यन्त गहन है, इसलिए (मेरी समझमें) जिस मार्ग से कोई महापुरुष गया हो या जा रहा हो, वही मार्ग है; अर्थात् ऐसे महापुरुष का अनुसरण करना ही धर्म है |’
        अतः महापुरुष जिस मार्ग से चलते हैं, वही अनुसरणीय है | क्योंकि भगवत्प्राप्त महापुरुषोंद्वारा कभी भगवान् की आज्ञारूप धर्म का उल्लंघन नहीं किया जा सकता | इसमें प्रह्लाद का उदाहरण प्रत्यक्ष है | भक्त प्रह्लाद ने अपने प्रिय पुत्र की अवहेलना कर दी, परन्तु धर्मका त्याग नहीं किया |.....शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!