|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी, सोमवार, वि०स० २०७०
*स्वधर्म-पालनकी
आवश्यकता*
गत
ब्लॉग से आगे.......श्रुति, स्मृति, पुराण आदि
शास्त्रों में धर्मका स्वरुप बहुत विस्तार से बतलाया गया है, उन ग्रंथो में देखना चाहिए | मनुजी ने कहा है—
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः |
एतच्चतुर्विधं प्राहु साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ||
(मनु०२
| १२)
‘वेद,
स्मृति, सत्पुरुषों का आचार तथा जिसके आचरण से अपना हित हो वह, इस तरह चार प्रकार
का यह धर्म का साक्षात् लक्षण कहा है |’
यहाँ ‘स्वस्य
च प्रियमात्मनः’ से ‘जो अपनी आत्मा के लिए हितकर
हो’ किया जाना धर्म है | मनमाने आचरण का तो स्वयं भगवान् ने ही निषेध किया
है | भगवान कहते हैं—
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते
कामकारतः |
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ||
(गीता
१६ | २३)
‘जो
पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को
प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुखको ही |’
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ |
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं
कर्म कर्तुमिहार्हसि ||
(गीता
१६ | २४)
‘अतएव
तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है | ऐसा जानकर
तू शास्त्रविधि से नियत कर्म ही करने योग्य है |’
धर्म के
विषय में जहाँ श्रुति और स्मृति में विरोध प्रतीत होता हो, वहाँ श्रुति ही बलवती
मानी जाती है, इसलिए श्रुति के कथनानुसार ही पालन करना चाहिए | जहाँ एक श्रुति से
दूसरी श्रुति का विरोध हो, वहाँ वे दोनों ही मान्य हैं | और जहाँ श्रुति और
सदाचार में विरोध प्रतीत होता हो, वहाँ (श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा आचरित) सदाचार
ही प्रधान है | जैसे श्रुति में मांस भक्षण आदि कई बातें आ जाती हैं, जो
हमारी समझ में नहीं आती और हमें आत्मा के लिए अहितकर प्रतीत होती हैं तथा
सर्वसाधारण उनका निर्णय नहीं कर सकते | परन्तु भगवत्प्राप्त
पुरुषों के द्वारा किये गये आचरणों में कहीं भी अहितकी आशंका के लिए कोई गुंजाइश
नहीं है | इसीलिए महाराज युधिष्ठिर ने यह निर्णय दिया है कि—
तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् |
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां
महाजनो येन गतः स पन्था ||
(वन०
३१३ | ११७)
‘धर्मके
विषय में तर्ककी कोई प्रतिष्ठा (स्थिरता) नहीं, श्रुतियां भिन्न-भिन्न
तात्पर्यवाली हैं तथा ऋषि-मुनि भी कोई एक नहीं हैं, जिससे उसी के मतको
प्रमाणस्वरूप माना जाय | धर्म का तत्त्व गुहा में छिपा हुआ है—धर्म की गति अत्यन्त
गहन है, इसलिए (मेरी समझमें) जिस मार्ग से कोई महापुरुष गया हो या जा रहा हो, वही
मार्ग है; अर्थात् ऐसे महापुरुष का अनुसरण करना ही धर्म है |’
अतः महापुरुष
जिस मार्ग से चलते हैं, वही अनुसरणीय है | क्योंकि भगवत्प्राप्त महापुरुषोंद्वारा
कभी भगवान् की आज्ञारूप धर्म का उल्लंघन नहीं किया जा सकता | इसमें
प्रह्लाद का उदाहरण प्रत्यक्ष है | भक्त प्रह्लाद ने अपने प्रिय पुत्र की अवहेलना
कर दी, परन्तु धर्मका त्याग नहीं किया |.....शेष
अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि
पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !!
नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!