※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 8 सितंबर 2013

स्वधर्म-पालनकी आवश्यकता



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद शुक्ल तृतीया, रविवार, वि०स० २०७०

*स्वधर्म-पालनकी आवश्यकता*
गत ब्लॉग से आगे.......संसार में जिनका जीवन धर्ममय है, उन्हीं का जीवन धन्य है | धर्महीन जीवन पशु-जीवन है | एक कवि ने कहा है—
आहारनिद्राभयमैथुनं       सामान्यमेतत्  पशुभिर्नराणाम् |
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ||
आहार, निद्रा, भय और मैथुन—ये मनुष्यों में और पशुओं में सभी में समान हैं | मनुष्य में अधिकता और विशेषता एक ही है कि उसमें धर्म है | जिस मनुष्य में धर्म नहीं है, वह पशु के समान ही है |’
         धर्म क्या है ? ईश्वरका विधान, जो कि इस लोक और परलोक में कल्याणकारक है, वही धर्म है | मनुजी सर्वसाधारण के लिए संक्षेप में सामान्य धर्म के लक्षण इस प्रकार बतलाये हैं—
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः |
धीर्विद्या  सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ||
(मनु० ६ | ९२)
‘धैर्य, क्षमा, मनका निग्रह, चोरी का न करना, बाहर-भीतरकी पवित्रता, इन्द्रियों का संयम, सात्विक बुद्धि, अध्यात्मविद्या, यथार्थ भाषण और क्रोध का न करना—ये धर्म के दस लक्षण हैं |’
      इसको मानवमात्र के लिए सामान्य धर्म बतलाया है | इसके पालन से मनुष्य का इस लोक और परलोक—दोनों में कल्याण होता है |
      आजकल जो लोग ईश्वर और धर्म का विरोध करते हैं, वे स्वयं ही अपने आपका हनन कर रहे है, उसी को इस लोक में सुख और परलोक में परम गति मिलती है; पर जिसका धर्म चला गया, उसका तो सभी कुछ चला गया, उसका तो सभी कुछ चला गया | शास्त्रमें बतलाया है—
धर्म  एव  हतो   हन्ति   धर्मो   रक्षति रक्षितः |
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधित् ||
(मनु० ८ | १५)
‘विनाश किया हुआ ही धर्म मारता है और रक्षा किया हुआ धर्म रक्षा करता है; इसलिए धर्म का विनाश न करे, जिससे कि वह विनष्ट हुआ धर्म हमें न मार दे |’ अर्थात् धर्मका त्याग करनेवाले पुरुष का पतन हो जाता है—
यही विनष्ट हुए धर्म से मनुष्य का मारा जाना है |
         अतएव मनुष्य को प्राण देकर भी धर्म की रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि धर्म नित्य है और जीवन अनित्य है ! महाभारत में कहा है—
न जातु कामान्न भयान्न  लोभाद्  धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापिहेतोः |
नित्योः धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः ||
(स्वर्गारोहण० ५ | ६३)
‘मनुष्य को किसी भी समय काम से, भयसे, लोभसे या जीवन-रक्षा के लिए भी धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए; क्योंकि धर्म नित्य है और सुख-दुःख अनित्य हैं तथा जीव नित्य है और जीवनका हेतु अनित्य है |’
          इसलिए काम, भय, लोभ आदि किसी भी कारण से धर्म का परित्याग नहीं करना चाहिए, बल्कि प्राण देने पड़े तो प्रसन्नतापूर्वक दे देने चाहिए | धर्म के लिए प्राण देने में भी कल्याण ही है | श्रीभगवान् ने कहा है—
श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वधर्मे    निधनं    श्रेयः  परधर्मो  भयावहः ||
(गीता ३ | ३५)
‘अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है | अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देनेवाला है |’
      गुरु गोविन्दसिंह के लड़कों ने धर्म के लिए प्राणों की भी परवा नहीं की | उन्होंने धर्मभाव का खयाल करके ही धर्म का त्याग नहीं किया और हँसते-हँसते प्राणों की आहुति दे डाली | इसीलिए उनकी इस लोकमें कीर्ति हुई और शास्त्र के हिसाब से परलोक में भी उनकी परम गति होनी चाहिए |.....शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!