※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 7 सितंबर 2013

स्वधर्म-पालनकी आवश्यकता



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद शुक्ल द्वितीया, शनिवार, वि०स० २०७०
*स्वधर्म-पालनकी आवश्यकता*
जो पुरुष ईश्वर-भक्ति और धर्मकी आड़ में अधर्म करते हैं, उनको असलमें नास्तिकों के भी जनक कहना चाहिए | वे नास्तिकों से भी बढ़कर नास्तिक हैं; क्योंकि उन दम्भी, पाखण्डी मनुष्यों को दण्ड देनेके लिए ही भगवान् नास्तिकता को उत्पन्न करते हैं | इस प्रकार नास्तिकवाद के उत्पन्न करनेमें हेतु होने के कारण वे नास्तिकों के जनक हैं | पता नहीं; ऐसे कितने ही धर्मध्वजी मनुष्य आज अपने को अवतार या महात्मा बतलाकर अनाचार फैला रहे हैं | बहुत-से लोग तो स्त्रियों को चेलियाँ बनाकर पहले तो उनसे अपने चरण पुजवाते हैं, उन्हें अपना चरणोदक देते हैं, अपनी जूठन खिलाते हैं और बाद में वे अपने को कृष्ण का रूप बतलाकर उन्हें गोपी बनाकर और व्यभिचार को धर्म बतलाकर उनके साथ दुराचार करते हैं और उसका फल वे दम्भी दुराचारपरायण लोग परम धाम की प्राप्ति बतलाते हैं ! ऐसे धर्म के नामपर दुराचार करनेवाले पाखण्डी यथार्थ में भगवान् श्रीकृष्ण को तथा भक्तिमती गोपियों को कलंक लगानेवाले हैं | असलमें भगवान्  तथा भक्तोंपर तो कलंक क्या लगता है, ऐसा करके वे स्वयं अपना ही नाश करते हैं, वे स्वयं अपने को ही महान घोर अधोगति में ले जाते हैं | ऐसी घटनाएँ आजकल बहुत जगह हो रही हैं |*
          यह महान अनर्थ की बात है | ईश्वर-भक्ति के नाम पर इस प्रकार दुराचारका विस्तार करना बहुत बड़ा पाप है | इसलिए सब लोगों को इसका घोर विरोध करना चाहिए | ऐसी बातें न होने पावें, इसकी व्यवस्था करनी चाहिए | हमें धर्म के विषय में खयाल करना चाहिए कि स्त्री के लिए तो विवाह की विधि को ही वैदिक संस्कार और पतिगृह में वास ही गुरुकुलवास है और गृहकार्य ही अग्निहोत्र है | मनुजी कहते हैं—
वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकोः स्मृतः |
पतिसेवा     गुरौ   वासो   गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया ||
(मनु० २ | ६७)
        स्त्रियों को तो पति के सिवा अन्य पुरुष का स्पर्श करना भी पाप है | वाल्मीकीय रामायण में कथा आती है कि जब श्रीहनुमानजी ने अशोकवाटिका में श्रीसीताजी को अत्यन्त व्याकुल देखा, तब उन्होंने सीताजी से कहा कि ‘माता ! आप मेरी पीठपर सवार हो जायँ | मैं आपको अभी यहाँ से ले चलता हूँ |’ परन्तु श्रीसीताजी ने यह स्वीकार नहीं किया | वे बोलीं—
भर्तुर्भक्तीं  पुरस्कृत्य  रामादन्यस्य  वानर |
नाहं स्प्रष्टुं स्वतो गात्रमिच्छेयं वानरोत्तम ||
(वा० रा० ५ | ३७ | ६२ )
‘वानरश्रेष्ठ हनुमान ! पतिभक्ति की ओर दृष्टि रखकर मैं भगवान् श्रीराम के सिवा दूसरे किसी पुरुष के शरीर का स्वेच्छा से स्पर्श करना नहीं चाहती |’
        यद्यपि सीताजी उस समय विपत्ति में पड़ी थीं ! किन्तु उन्होंने पति के पास जाने के लिए भी पातिव्रत-धर्मकी रक्षाकी दृष्टि से मातृभाव रखनेवाले हनुमान-सरीखे सेवक का भी स्पर्श करना उचित नहीं समझा | इससे यह शिक्षा लेनी चाहिए कि भारी विपत्ति के समय भी स्त्री को यथासाध्य परपुरुष का स्पर्श नहीं करना चाहिए |
          इस समय कई दम्भी स्त्री-पुरुष अपनेको महात्मा और ईश्वर के अवतार के स्थान में स्थापित करके चेले-चेलियों से अपने ही नाम का कीर्तन और स्वरुप का ध्यान कराते हैं, अपने चित्र की पूजा कराते हैं और अपने नाम-गुणों की कीर्ति अपने ही सम्मुख कराकर स्वयं उसे सुनते हैं | इस प्रकार का आचरण करनेवाले लोग सचमुच नास्तिकवाद के उत्पादक हैं | नास्तिकवाद के कई हेतु हैं, जिनमें यह भी एक प्रधान हेतु है |
        इसलिए सच्चे धर्माचार्य महानुभावों को ऐसे धर्मध्वजी स्त्री-पुरुषों का बहिष्कार करके स्वयं धर्मका पालन करते हुए संसार के भूले-भटके भाईयों को सच्चा धर्म बतलाना चाहिए |.....शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी
*अभी एक पण्डितजी का पत्र मिला है, उसमें लिखे संवाद का सार यह है—‘यहाँ एक महापुरुष बने हुए हैं, सिद्धिप्राप्त कहते हैं, औषध देते हैं, गुरु बनते हैं, अपने को......संन्यासी तथा....गद्दी के शिष्य बतलाते हैं | शराब-मांस उन्हें अत्यन्त प्रिय है | अपने चेले-चेलियों को अपनी थाली में खिलाकर खाते हैं | चेलियों से सर्वस्व अर्पण की बड़ी चाह है | विरोध करने में लोग इसलिए डरते हैं कि ये किसी का कोई अनिष्ट न कर दें | शिष्यों का धन और धर्म हरण कर रहे हैं |’
         इस प्रकार के दुराचार धर्म और अध्यात्म के नाम आज जगह-जगह हो रहे हैं और भोले नर-नारी अविवेकपूर्ण श्रद्धा को लेकर इनके जाल में फँस जाते हैं | ऐसे गुरुओं से न कभी कल्याण हुआ है , न हो सकता है |—सम्पादक, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!