|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आश्विन कृष्ण, षष्ठी
श्राद्ध, बुधवार, वि० स० २०७०
वैराग्य-प्राप्ति
के उपाय
गत
ब्लॉग से आगे....... भगवान् ने इस दृढ वैराग्यरुपी शास्त्रद्वारा ही अहंता, ममता
और वासनारूप अतिदृढ मूल वाले संसाररूप अश्वस्थ-वृक्ष को काटने को कहा है |
संसार
के चित्र को सर्वथा भुला देना ही इस अश्वस्थ-वृक्ष का छेदन करना है | दृढ वैराग्य
से यह काम सहज ही हो सकता है | (गीता १५|३)
भगवान
कहते है
तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूय: |
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपध्ये यत्: प्रवर्ति: प्रसृता पुराणी
|| (गीता १४|६)
इसके उपरान्त उस परमपदरूप
परमेश्वर को अच्छी प्रकार खोजना चाहिये,( उस परमात्मा के बिना आनंदघन ‘सत्यं
ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ का बारम्बार चिंतन करना ही उसे ढूढना है ) जिसमे गए हुए
पुरुष फिर वापस संसार में नहीं आते और जिस परमेश्वर से यह पुरातन-वृक्ष की प्रवृति
विस्तार को प्राप्त हुई है | उसी आदिपुरुष नारायण के मैं शरण हूँ( उस परमपद के
स्वरूप को पकड़ लेना-उसमे स्तिथ हो जाना ही उसकी शरण होना है) इस प्रकार शरण होने
पर:-
निर्मानमोह जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्य विनिवृत्कामा: |
द्वन्देविमुक्ता सुखदुखःसंग्येगचन्त्येमूढा: पदम्व्यय तत्
|| (गीता १५|५)
‘नष्ट हो
गया है मान और मोह जिनका तथा जीत लिया है आसक्ति दोष जिन्होंने और परमात्मा के
स्वरुप में है निरंतर स्थिति तथा अच्छी तरह नष्ट हो गयी है कामना जिनकी, ऐसे वे
सुख-दुःख नामक द्वंदों से विमुक्त हुए ज्ञानीजन, उस अविनाशी परमपद को प्राप्त होते
है |’ शेष अगले ब्लॉग में ......
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!