|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आश्विन कृष्ण, सप्तमी
श्राद्ध, बुधवार, वि० स० २०७०
वैराग्य
का फल
गत
ब्लॉग से आगे.......बस इस प्रकार एक परमात्मा का ज्ञान रह जाना ही अटल समाधी या
जीवन्मुक्त-अवस्था है, उसी के यह लक्षण है | तदन्तर ऐसे जीवनमुक्त पुरुष भगवान् के
भक्त संसार में किस प्रकार विचरते है, उनकी कैसी स्थिती होती हैं, इसका विवेचन
गीता के अध्याय १२के श्लोक १३ से १९ तक निम्नलिखित रूप में है, भगवान् उनके लक्षण
बतलाते हुए कहते है:-
‘इस
प्रकार शान्ति को प्राप्त हुआ जो पुरुष सब भूतों में द्वेषभाव से रहित एवं
स्वार्थरहित सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममता से रहित एवं अहंकार से रहित,
सुख-दुखोंकी प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात् अपना अपराध करने वाले को भी
अभय देने वाला है | जो ध्यानयोग में युक्त हुआ, निरन्तर हानि-लाभ में संतुष्ट है,
मन और इन्द्रियोंसहित शरीर को वश में किये हुए, मुझमे दृढ निश्चयवाला है,वह मुझमे
अर्पण किए हुए मन-बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझे प्रिय है | जिससे कोई भी जीव उद्वेग
को प्राप्त नहीं होता एवं जो हर्ष, अमर्ष, भय और
उद्वेगादी से रहित है, वह मुझे प्रिय है | जो पुरुष आकाक्षा से रहित, बाहर-भीतरशुद्ध,
चतुर है अर्थात जिस काम के लिए आया था उसको पूरा कर चूका है एवं पक्षपात से रहित
और दुक्खों से छुटा हुआ है, वह सब आरम्भों का त्यागी अर्थात मन, वाणी, शरीरद्वारा
प्रारब्धसे होने वाले सम्पूर्ण स्वाभाविक कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्यागी
मेरा भक्त मुझे प्रिय है | जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न सोच करता
है, न कामना करता है तथा जो शुभ-अशुभ सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्यागी है , वह
भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है | जो पुरुष शत्रु-मित्र, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी
और सुख-दुखादी द्वंदों में सम है और सब संसार में आसक्ति से रहित है तथा जो
निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला और मननशील है अर्थात ईश्वर के स्वरूप का निरन्तर
मनन करने वाला है एवं जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही
संतुष्ट और रहने के स्थान में ममता से रहित है,वह स्थिर बुद्धि वाला भक्तिमान
पुरुष मुझे प्रिय है |’
अतएव
इस असार-संसार से मन हटाकर इस लोक और परलोक के समस्त भोगों में वैराग्यवान होकर
सबको परमात्मा की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिये |
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!