※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 23 सितंबर 2013

वैराग्य -१३-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, चतुर्थी श्राद्ध, सोमवार, वि० स० २०७०

वैराग्य-प्राप्ति के उपाय



गत ब्लॉग से आगे.......गुण-वृतियों के विरोधजन्य दुःख-एक मनुष्य को कुछ झूठ बोलने या छल-कपट, विश्वासघात करने से दस हज़ार रूपये मिलने की सम्भावना प्रतीत होती है | उस समय उसकी सात्विक वृति कहती है-‘पाप करके रूपये नहीं चाहिये, भीख माँगना या मर जाना अच्छा है, परन्तु पाप करना उचित नहीं |’ उधर लोभमूलक राजसी वृति कहती है ‘क्या हर्ज है ? एक बार तनिक सी झूठ बोलने में आपति ही कौन सी है ? जरा-से छल-कपट या विश्वासघात से क्या होगा ? एक बार ऐसा करके रूपये कमाकर दरिद्र मिटा ले, भविष्य में ऐसा नहीं करेंगे |’

यों सात्विकी और राजसी वृति में महान युद्ध मच जाता है, इस झगडे में चित अत्यन्त व्याकुल और किकर्तव्यविमूढ़ हो उठता है | विषाद और उदिग्नता का पार नहीं रहता |

इसी तरह राजसी, तामसी वृतियों का झगड़ा होता है | एक मनुष्य शतरंज या ताश खेल रहा है | उधर उसके समय पर न पहुचने से घर का आवश्यक काम बिगडता है | कर्म में प्रवृति कराने वाली राजसी वृति कहती है-‘उठो, चलो हर्ज हो रहा है, घर का काम करों |’ इधर प्रमादरूपा तामसी वृति पुन:-पुन: उसे खेल की और खीचती है, वह बेचारा इस दुविधा में पडकर महान दुखी हो जाता है |

उधाहरण के लिए दो द्रष्टान्त ही पर्याप्त है |

इस प्रकार विचार करने पर यह स्पष्ट विदित होता है की संसार के सभी सुख दुखरूप है | अतएव इनसे मन हटाने की भरपूर चेष्टा करनी चाहिये | शेष अगले ब्लॉग में ......       

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!