|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आश्विन कृष्ण,
चतुर्थी श्राद्ध, सोमवार, वि० स० २०७०
वैराग्य-प्राप्ति
के उपाय
गत
ब्लॉग से आगे.......गुण-वृतियों के विरोधजन्य दुःख-एक मनुष्य को कुछ झूठ बोलने या
छल-कपट, विश्वासघात करने से दस हज़ार रूपये मिलने की सम्भावना प्रतीत होती है | उस
समय उसकी सात्विक वृति कहती है-‘पाप करके रूपये नहीं चाहिये, भीख माँगना या मर
जाना अच्छा है, परन्तु पाप करना उचित नहीं |’ उधर लोभमूलक राजसी वृति कहती है
‘क्या हर्ज है ? एक बार तनिक सी झूठ बोलने में आपति ही कौन सी है ? जरा-से छल-कपट
या विश्वासघात से क्या होगा ? एक बार ऐसा करके रूपये कमाकर दरिद्र मिटा ले, भविष्य
में ऐसा नहीं करेंगे |’
यों
सात्विकी और राजसी वृति में महान युद्ध मच जाता है, इस झगडे में चित अत्यन्त
व्याकुल और किकर्तव्यविमूढ़ हो उठता है | विषाद और उदिग्नता का पार नहीं रहता |
इसी
तरह राजसी, तामसी वृतियों का झगड़ा होता है | एक मनुष्य शतरंज या ताश खेल रहा है |
उधर उसके समय पर न पहुचने से घर का आवश्यक काम बिगडता है | कर्म में प्रवृति कराने
वाली राजसी वृति कहती है-‘उठो, चलो हर्ज हो रहा है, घर का काम करों |’ इधर
प्रमादरूपा तामसी वृति पुन:-पुन: उसे खेल की और खीचती है, वह बेचारा इस दुविधा में
पडकर महान दुखी हो जाता है |
उधाहरण
के लिए दो द्रष्टान्त ही पर्याप्त है |
इस प्रकार विचार करने पर यह स्पष्ट विदित होता
है की संसार के सभी सुख दुखरूप है | अतएव इनसे मन हटाने की भरपूर चेष्टा करनी
चाहिये | शेष अगले ब्लॉग में ......
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!