※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 28 जनवरी 2014

सत्संग और कुसंग -४-


 ।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, द्वादशी, मंगलवार, वि० स० २०७०

 सत्संग और कुसंग  -४-

 
 गत ब्लॉग से आगे…..  महात्मा पुरुषों के भी शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि मायिक होते है परन्तु परमात्मा की प्राप्ति के प्रभाव से वे साधारण मनुष्य की अपेक्षा पवित्र, विलक्षण और दिव्य हो जाते है । अतएव उनके दर्शन, भाषण, स्पर्श, वार्तालाप से तो लाभ होता ही है, मन के द्वारा उनका स्मरण हो जाने से बड़ा लाभ होता है । जब एक कामिनी के दर्शन, भाषण, स्पर्श, वार्तालाप और चिन्तन से कामी पुरुष के ह्रदय में काम का प्रादुर्भाव हो जाता है तब भगवतप्राप्त महापुरुष के दर्शन, भाषण, स्पर्श, वार्तालाप और चिन्तन से साधक के ह्रदय में तो भगवद्भाव और ज्ञान का प्रदुर्भाव अवश्य होना ही चाहिये ।                 

  ऐसे महापुरुषों के ह्रदय में दिव्य गुणों का अपार शक्तिसम्पन्न समूह भरा रहता है, जिसके दिव्य बलशाली परमाणु नेत्रमार्ग से निरन्तर बाहर निकलते रहते है और दूर दूर तक जाकर जड-चेतन सभी पर अपना प्रभाव डालते रहते है । मनुष्यों पर तो उनके अपने-अपने भावानुसार न्यूनाधिकरूप में प्रभाव पड़ता ही है, विविध पशु-पक्षियों तथा जड आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वृक्ष, पाषण, काष्ठ, घास आदि पदार्थों तक पर भी असर पड़ता है । उनमे भी भगवतभाव के पवित्र परमाणु प्रवेश कर जाते है ।
 
ऐसे महात्मा जिस पशु-पक्षी को देख लेते है, जिस वायुमण्डल में रहते है, जो वायु उनके शरीर को स्पर्श करके जाता है, जिस अग्नि से वे अग्निहोत्र करते है, रसोई बनाते या तापते है, जिस सरोवर या नदी में स्नान-पान करते है, जिस भूमि पर निवास करते है, जिस वृक्ष का किसी प्रकार उपयोग करते है, जिस पाषाणखण्ड का स्पर्श कर लेते है, जिस चोकी पर बैठ जाते है और जिन तृणअंकुरों पर अपने पैर रखदेते है, उन सभी में भगवदभाव के परमाणु न्यूनाधिकरूप से स्थित हो जाते है और उन वस्तुओं को जो काम में लेते है या जिन-जिनको उनका संसर्ग प्राप्त होता है-उन लोगों को भी बिना जाने-पहचाने भी सद्भाव की प्राप्ति में लाभ होता है । जिनमे श्रद्धा, ज्ञान तथा प्रेम होता है, उनको यथापात्र विशेष लाभ होता है ।......शेष अगले ब्लॉग में  

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!