※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 26 जनवरी 2014

सत्संग और कुसंग -२-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, दशमी, रविवार, वि० स० २०७०

 सत्संग और कुसंग  -२-

 
 गत ब्लॉग से आगे…..  श्रीनारदजी ने भक्तिसूत्र में कहाँ है-‘महात्माओं का सँग दुर्लभ, अगम्य और अमोघ है ।’ (नारद० सू० ३९)

अपने-अपने भाव के अनुसार लाभ कैसे होता है ? इस पर एक कल्पित दृष्टान्त है । दो ब्राह्मण किसी जंगल के मार्ग से जा रहे थे । दोनों अग्निहोत्री थे । एक सकाम भाव से अग्नि की उपासना करने वाला था, दूसरा निष्काम भाव से । रास्ते में बड़े, जोर की आंधी और वर्षा आ गयी । थोड़ी ही दूर पर एक धर्मशाला थी । वे दोनों किसी तरह धर्मशाला में पहुचे । अँधेरी रात्री थी और जाड़े के दिन थे । धर्मशाला में दूसरे लोग भी ठहरे हुए थे और वे सभी प्राय: सर्दी से ठिठुर रहे थे । धर्मशाला में और सब चीजे थी, पर अग्नि का कहीं पता नहीं लगता था । न किसी के पास दियासलाई ही थी
 
उन दोनो ब्राह्मणों ने जाकर आग्नि की खोज आरम्भ की । उन्हें एक जगह कमरे के आस-पास बैठे हुए लोगों ने बतलाया की हमे तो जाड़ा नहीं लग रहा है, पता नहीं कहाँ से किस चीज की गरमी आ रही है । उन लोगों ने उस कमरे को खोल कर देखा तो तो पता लगा उसमे राख से ढकी आग है । इसी आगकी गरमी से कमरा गरम था, शेष सारी धर्मशाला में सर्दी छायी थीं ।  जब आग का पता लग गया, तब सब लोग प्रसन्न हो गए । पहले से ठहरे हुए जिन लोगों को अग्नि में श्रद्धा नहीं थी और जो केवल अग्नि से रौशनी और रसोई की अपेक्षा रखते थे, उनोने उससे रोशनी की और रसोई बनाई ।
 
दोनों अग्निहोत्री ब्राह्मणों ने, जिनकी अग्नि के ज्ञान  के साथ ही उनमे श्रद्धा थी, रोशनी तथा रसोई का लाभ तो उठाया ही, पर साथ ही अग्निहोत्र भी किया । इनमे जो सकाम भाव वाला था, उसने सकामभाव से अग्निहोत्र करके लौकिक कामना-सिद्धरुप सिद्धि प्राप्त की और जो निष्कामभाव वाला था, उसने अपने निष्कामभाव से अग्निहोत्र करके अन्त:करण की शुद्धि के द्वारा परमात्मप्राप्ति विषयक परम लाभ उठाया । ......शेष अगले ब्लॉग में  

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!