※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 16 जुलाई 2012

गीताजीकी महिमा


प्रवचन तिथि ज्येष्ठ शुक्ल १३, संवत २००२, प्रात: काल वट वृक्ष, स्वर्गाश्रम  पिछला शेष आगे------

        हमारा समय गया सो गया ! श्रद्धा-प्रेमकी कमी के कारण कमी रह गयी ! श्रद्धा-प्रेमकी पुर्तिके लिये एकान्तमें भगवान् के सम्मुख रुदन करना चाहीये ! रोना नहीं आये तो व्याकुल होना चाहीये, वह भी नहीं हो स्तुति-प्रार्थना करनी चाहीये ! यह अपने अधिकार की बातहै ! स्तुति-प्रार्थना क्रियासाध्य है ! इसके करनेसे भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं ! भगवान् के यहाँ सुनवायी हो जाती है ! और कुछ भी नहीं हो सके तो भगवान् केशवका नाम लेकर रोना चाहीये, जैसे द्रौपदी रोती  है, ऐसे ही हमें रोना चाहीये
     केशव केशव कुकिये न कुकिये असार !

संसार के लिये नहीं रोना चाहीये ! लोग रोते हैं, संसार के लिये ! हमें तो भगवान् के लिये ही रोना चाहीये ! यदि रोना नहीं आये तो रटन लगाओ ! इसमें तो कह ही नहीं सकते कि यह हम नहीं कर सकते ! राम राम रटते रहो जब लग घटमें प्रान ! कबहुँ तो दीनदयालके  भनक पड़ेगी कान !!

  उनके नाम कि रटन करो ! करते करते भगवान्के कानों में आवाज पड़ेगी ही ! यह सार कि बात है !

    यहाँ जो बात सुनी है, उसके अनुसार घरपर कसकर साधन करना चाहीये ! शरीरको आराम नहीं देना चाहीये ! मन, इन्द्रियों को भी भगवान् में लगा देना चाहीये ! मनसे भगवान् का ध्यान, बुद्धि से निश्चय, कानोंसे भगवान् के प्रेम-प्रभावकी बातों श्रवण, श्वास से जप करतेरहना चाहीये !

   इतना तीव्र साधन वैराग्य से होता है ! आप कहें कि यह वैराग्य कहाँ से लायें ? यहाँ का दृश्य याद  कर लो !  यहाँ का दृश्य याद करनेसे ही वैराग्य होता है ! यह ऐसा ही स्थान है ! गंगा, वटवृक्ष, एकान्त देश, वन, गुफा, यहाँ वर्षों तक महात्माओंने तपस्या कि है !वर्षों से सत्संग होता है ! परम पवित्र भूमि है ! ऐसा स्थान कोसोंमे कहीं शायद मिले !   वैराग्य कि उत्पादक धुलमें बैठना है ! राजा-महाराजा भी यहाँ आकार धूलि में बैठते हैं ! वनमें पत्थरों पर बैठना-इस दृश्य को याद करना चाहीये !  वैराग्य कि वृत्ति बार-बार बनानी चाहीये !   उससे साधन स्वत: ही होगा, करना नहीं पड़ेगा ! आपलोगों ने किसीने दो महीना, किसी ने तीन महीना यहाँ वास किया, हमारे ऊपर बड़ी कृपा कि ! मूल में भगवान् कि कृपा है ही !
 जापर कृपा राम कि होई ! तापर कृपा करइ सब कोई !!

   आप लो इतने आदमी नहीं जुटते तो मैं क्या जंगल को सुनाता ! आपलोगों को जो शान्ति मिली है उससे अधिक वक्ताको मिलनी चाहीये ! कारण वक्ता के मन में वह सब का सब कैसे कहा जा सकता है ! भगवद्विषयक यत्किंचित जो भाव बुद्धि में आता है, उतना मन कल्पना नहीं कर पाता ! पंगु हो जाता है ! मनमें जो भाव आता है, वाणी के द्वारा कहा ही नहीं जा सकता ! वाणी के द्वारा जो कुछ कहा जाता है, सुनने वाले उतना सुन नहीं पाते, जितना सुना जाता है उतना याद नहीं रहता ! इसलिये श्रोताकी बुद्धि द्वारा उतना निश्चय नहीं किया जा सकता जितना वक्ताकी बुद्धि के निश्चय में आया है ! इतने मात्र से भी श्रोताको प्रसन्नता. आनन्द मिलता है. फिर वक्ताको तो अधिक प्रसन्नता, आन्नद मिलता ही है ! इस ऋण से मैं मुक्त नहीं हो सकता, इससे उऋण होने का उपाय है आपको भगवान्की प्राप्ति ! वह मैं नहीं करा सकता, वह तो भगवान् के हाथ की बात है ! वे स्वतंत्र ठहरे, वे चाहे सो कर सकते हैं ! नहीं तो सच्ची बात तो यह है कि हम सब भगवान्के ऋणी तो हैं ही ! जो सुनने के लिए आते हैं उनकी हमारे ऊपर कृपा है किन्तु उऋण होना प्रभु के हाथ कि बात है, हमारे हाथ कि बात नहीं है ! 

    हनुमानजी भगवान् के मात्र दास हैं ! उन्होंने आकार सन्देश दिया कि सीता-लक्षम्ण के साथ भगवान् आ रहे हैं ! भरतजी चौंक पड़े, कहा यह आपने जो सन्देश दिया है उसके  लिये मैं आपका ऋणी रहूँगा !
 एही संदेस सरिस जग माहीं ! करी बिचार देखेउँ कछु नाहीं !!
 नाहिन तात उरिन मैं तोही ! अब प्रभु चरित सुनावहु मोहि !!


   हे हनुमान ! मैंने देखा संसार में कोई पदार्थ है ही नहीं. जिसको देकर मैं आपसे उऋण हो सकूँ !

     हे तात ! हे प्यारे ! मैं तुम्हारे ऋण से नहीं छूट सकता, अब प्रभु के चरित्र सुनाओ ! एक बात सुनायी उतने मात्र से ही भरतजी ऋणी हो गए !
       थोड़ी सी परमात्मा कि बात आपको सुनायी, उससे, मैं आपका ऋणी हो गया ! अधिक आपको सुनायी जायेगी, उससे और ज्यादा ऋण मेरे ऊपर हो जायेगा ! जब तक आप और मैं जीवित रहें, आप इस प्रकार मुझे ऋणी बनाते ही रहें ! जिस प्रकार इस बार दया की,बार-बार इस प्रकार करते ही रहें !
 
  आपका जितना मुझ पर प्रेम है, इसके लिये भी यही प्रार्थना है और प्रेम बढे ! प्रेम और दया आपके ह्रदय में बढाती रहेगी तो एक दिन उस अवस्था को आप प्राप्त हो सकते हैं, जो भक्तों के लक्षण भगवान् ने बताये हैं-
  अद्वेष्टा सर्वभूतानां  मैत्र: करुण  एव च !
  निर्ममो  निरहंकार: समदुःखसुखः क्षमी !!
                  ( गीता १२ / १३ )
  जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित, स्वार्थ रहित, सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दु:खो की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है !

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक भगवत्प्राप्ति कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १७४७,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में ...