※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

गीताजीकी महिमा


 प्रवचन तिथि ज्येष्ठ शुक्ल १३, संवत २००२, प्रात: काल वट वृक्ष, स्वर्गाश्रम  पिछला शेष आगे------

 सुहृदं  सर्वभूतानां  ज्ञात्वा  मां  शान्तिमृच्छति !!
                (गीता ५/ २९  )

   मुझे सम्पूर्ण भुत-प्राणियों जा सुह्रद अर्थात स्वार्थ रहित दयालु और प्रेमी ऐसा तत्व से जानकर को शान्तिको प्राप्त होता है !
   जो भगवान्के भक्त होते है वे सुह्रद ही होते हैं ! जब आपमें सुह्र्द्ता आ जायगी तो यह स्वत: ही सिद्ध हो जायगा !
   आप इस कामके लिये घरसे निकल पड़े तो किसी भी अंशमें  भक्त हो ही गये ! आपमें दया और प्रेम की कमी है उसे बढाओ ! मैं तो यही कहूँगा प्रथम मेरेसे प्रारम्भ करो, यध्यपि मेरे ऊपर दया और प्रेम आपका है किन्तु और बढ़ाये !

 दया और प्रेम कैसा होना चाहीये ? ममता रहित ! ममता करे भगवान् में, अहंकार भी भगवान् में, संसार से ममता, अंहकार हटाकर भगवान् से ममता, अहंकार करो !
 अस अभिमान जाइ जनि भोरे ! मैं सेवक रघुपति पति मोरे !!
  यह शुद्ध अभिमान है ! संसार में हमारा जो अहंकार है, यह हटाकर प्रभुमें करना चाहीये ! जब आपमें ममता, अहंकार नहीं रहेगा तो सुख-दू:ख में स्वत:हो ही जायगी ! यह नारायणी हर समय हँसती रहती है, यह चीज हमें इससे सीखनी चाहीये ! हर समय प्रसन्न रहना चाहीये ! दूसरी बात यह है कि यह रोती हो तो गीता पूछो, रोना बंद कर देती है !
  गीता का अभ्यास ऐसा ही नहीं इससे भी बढ़कर करना चाहीये ! जैसा इसने अभ्यास किया है, ऐसा अभ्यास होनेके बाद उसका अनुभव हो जाय, तो फिर उसका कल्याण हो, यह तो बात ही क्या है, उसके द्वारा बहुतों का कल्याण हो सकता है ! वह गँगा से भी बढ़कर है !गँगा स्नान करनेवाला स्वयं का कल्याण कर सकता है, दूसरे का नहीं, किन्तु गीता-रूपी गँगा में स्नान करने वाला दूसरों का भी कल्याण कर सकता है!
  गीता के एक-एक श्लोक ऐसें हैं जिनके एक-एक के पालन सेन कल्याण हो जाये ! भक्तिका----
मच्चिता मद्गतप्राणा  बोधयन्तः परस्परम !
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च !!
                               (गीता १० / ९ )
   निरन्तर मुझमे मन लगानेवाले और मुझमे ही प्राणों को अर्पण करनेवाले भक्तजन मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपसमे मेरे प्रभाव को जनाते हुये तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुये ही निरन्तर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरन्तर रमण
करते हैं !
  कर्मका-----
  कर्मजं  बुद्धियुक्ता  हि  फलं  त्यक्त्वा  मनीषिणः !    
  जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः  पदं गच्छ्न्त्यानामयम् !!
                                 ( गीता २ / ५१ ) 
   क्योंकि समबुद्धिसे युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्मरूप बन्धन सेन मुक्त हो निर्विकार परमपद को प्राप्त हो जातें हैं !
 भक्ति एवम कर्म एक साथ------
  सर्वकर्माण्यपि  सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः !
  मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्य्यम् !!
                          (गीता १८ / ५६ )
  मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मों को सदा करता हुवा भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जाता है !
  ज्ञान का -----------
    योऽन्त: सुखोऽन्तरारामस्तथान्तज्योर्तिरेव  य: !
    स  योगी  ब्रह्मनिर्वाणं   ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति !!
                          (गीता ५ / २४ )
 जो पुरुष अन्तरात्मा में हि सुख वाला है, आत्मा में हि रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में हि ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानन्द घन परमब्रह्मा परमात्मा के साथ एक हि भाव को प्राप्त सांख्य योगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है !
  तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः      ! 
  गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं         ज्ञाननिर्धुतकल्म्षा: !!

                   (गीता ५ / १७ )
 जिनका मन तद्रूप हो रहा है, जिनकी बुद्धि तद्रूप हो रही है और सच्चिदानन्द घन परमात्मा में ही जिनकी निरन्तर एक ही भाव से स्तिथि है, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान के द्वारा पाप रहित होकर अपुनरावृतिको अर्थात परमगति को प्राप्त होते हैं !
  सर्वत्र समबुद्धय: कहाँ है ?
  संनियम्येन्द्रियग्रामं  सर्वत्र समबुद्धयः !
  ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता: !!
                        (गीता १२ / ४ )
   परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वशमे करके मन-बुद्धिसे परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरुप और सदा एकांत रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चीदानंदघन ब्रह्मको निरन्तर एकीभावसे ध्यान करते हए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतोंके हितमें रत सबमे समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं !
  तत्मात् योगी भवार्जुन कहाँ है ?
  तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः !
  कर्मिभ्यश्चाधिको   योगी   तस्माद्योगी   भवार्जुन !!
                            (गीता ६ / ४६ )
  योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियोंसे भी श्रेष्ठ माना गया है और सकामकर्म करानेवालोसे भी योगी श्रेष्ठ माना गया है और सकामकर्म करनेवालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिये हे अर्जुन तुम योगी हो !
  सात्विक ज्ञान-------
    सर्वभूतेषु        येनैकं            भावमव्ययमिक्षते ! 
    अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम् !!
                             (गीता १८ / २० )
 जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक पृथक सब भुतोंसे एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित समभावसे स्थित देखता है,उस ज्ञानको तो तू सात्विक जान !

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक भगवत्प्राप्ति कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १७४७,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में