प्रवचन दिनांक २३\४\७४, प्रात काल ७ बजे , वट वृक्ष , स्वर्गाश्रम
सात्विक दान
मनुष्य मन और शरीर के अनुकूल जो बात पड़ती है , उसको करना चाहता है | तीर्थ करने में शरीर का परिश्रम ज्यादा है | सत्संग का प्रकरण भी तीर्थो में कम मिलता है यहाँ ज्यादा मिल जाये, यही सब बात सोचकर मैं यही रहता हु | दुसरे भाइयों को यदि तीर्थ में भजन, भाव महात्म्य का लक्ष्य दिखे तो उन्हें वहाँ जाना चाहिए | कोई तीर्थो में जाने के लिए पूछे तो उत्तम बता देते है | मैं नहीं जा सकूँ तो तुम्हे यह क्यों कहूँ की तुम मत जाओ | ज्यादातर मेरा ध्यान यही आने का रहता है | तीर्थ बड़े अच्छे स्थान है , पुजारी, पण्डों ने गडबड़ी कर रखी है | उनको देने में मेरी इच्छा कम रहती है | मैं समझ लूँ की यह पण्डा अच्छा है तो सत्कार करता हूँ | जिन पंडो का धन बर्बाद होता हो वह मैं नहीं देता | जिस मंदिर का धन बर्बाद होता हो वहाँ मैं नहीं देता | कही कही महन्त को देना पड़े तो वह अपनी गरज से है |
तीर्थो की , मंदिरों की प्रणाली चलायी, वह अच्छी है, परन्तु पण्डो ने, महंतो गडबड़ी मचाई है | आज कल के समय में ऐसे बहुत कम मंदिर है जहा चढ़ावा उचित काम में आता है | मैं तो मंदिर में फूल लेकर जाता हु | भगवान् तो पात्र पुष्प से प्रसन्न होते है | ठाकुर जी को चढाओ तो पुष्प चढा दो | कोई कोई जगह पात्र और गरज हो तो धन भी दे सकते है | वह देना भक्ति और श्रद्धा से नहीं है |
भूखे को अन्न , आवश्यकता वाले को कपड़ा, पुस्तकों के आभाव वाले को पुस्तके देनी चाहिए | दान देना ही कर्तव्य है-ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल और पात्र के प्राप्त होने पर उपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है , वह दान सात्विक कहा गया है | (गीता १७|२०)
निष्काम भाव से देना सात्विक भाव है | प्रत्युपकार न चाहकर देना सात्विक है | जिससे बदला चाहे उसको देना मजबूरी है, दान नहीं | अनुपकारी के प्रति दिया हुआ दान , उपकारी को देना अपने ऋण से मुक्त होना है | दान देकर काम लेना यह भी दान नहीं है | देश, काल और पात्र दो प्रकार के होते है | उत्तम देश वह है जहा अभाव हो | देश में समय देखे की आपति किस काल में है | काल का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए |पात्र का भी ज्ञान प्राप्त करना चैये | अपने शरीर के लिए तो कम खर्च लगाना चाहिए | बचत में रूपये रहे , उनको धर्मार्थ में लगाये | बेटी को देते है तो समझना चाहिये के बेटी का हक है | ब्रह्मण भूदेव है , क्षत्रिये वैश्य जन उनके गुमास्ते है | भक्ति के मार्ग से देखे की सब चीज भगवान् की है , उनकी चीज उनको दे दो तो लोक सेवा है |
सो अनन्य जाके असी मति न ता रा इए हनुमंत |
में सेवक सचराचर रूप रासी हनुमंत ||
सब नारायण का है | हम भी नारायण के है | हम तो निमित मात्र बने है येः भाव रखे तो जल्दी से जल्दी परमात्मा की प्राप्ति होगी |वह देना अमृत है | जो न्याय के पैसे है , उनके द्वारा उपकार करे तोह बहुत ज्यादा लाभ है | पैसे न्याय से उपार्जन करना और उनको अच्छे काम में लगाना दुगुना अमृत है | इससे लेने वाले की बुद्धि सुधर जाती है |
नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
[जयदयाल जी गोयन्दका, साधन की आवश्यकता , पुस्तक कोड ११५० ], गीता प्रेस गोरख पुर ,