मन संसार के पदार्थों में जा रहा है, क्योकि उनमे आसक्ति है | मन को रोकने वाली चीज है वैराग्य | भगवान् ने गीता में यही बतलाया है - परन्तु हे कुंती पुत्र अर्जुन ! यह मन अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है | महर्षि पतंजली भी कहते है - अभ्यास और वैराग्य से मन वश में होता है | मन से बुधि बलवान है, बुधि से बलवान तथा परे आत्मा है, भगवान् उपदेश देते है की आत्मा सबसे परे है, ऐसा समझ कर मन को वश में करे | अभ्यास और वैराग्य यह दो ऐसे चीज है जो मन को रोक सकती है |
बुधि के विवेक विचार से मन वश में आ सकता है | विवेकपूर्वक अभ्यास से मन वश में आ सकता है | जैसे एक मतवाला हाथी एक अंकुश से वश में होता है, उसी प्रकार विवेकपूर्वक अभ्यास वैराग्य हो तो मन वश में हो जाता है |
बुधि के विवेक विचार से मन वश में आ सकता है | विवेकपूर्वक अभ्यास से मन वश में आ सकता है | जैसे एक मतवाला हाथी एक अंकुश से वश में होता है, उसी प्रकार विवेकपूर्वक अभ्यास वैराग्य हो तो मन वश में हो जाता है |
प्रश्न :- कुबुद्धि होने में क्या कारण है ?
उत्तर :- कुसंग से कुबुद्धि हो जाती है | जैसा करे संग वैसा चढ़े रंग, अत एव संग प्रधान है | अभ्यास का स्वरुप भगवान् ने इस प्रकार बतलाया है | (गीता ६/२६) यह स्थिर न रहने वाला चंचल मन जिस जिस शब्दादि विषय के निमित्त संसार में विचरता है, उस उस विषय से रोक कर यानि हटा कर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे |
ऐसा अभ्यास करते करते मन को वह चीज अच्छी लगने लगती है | बच्चा पढने जाता है तो पहले उसकी श्रद्धा रूचि नहीं होती | माता पिता जबरदस्ती समझा-बुझा कर पढ़ाते है तो कुछ काल में उसकी रूचि होने लगती है , फिर पढने वालो का संग करने लगता है | जब उसकी रूचि हो जाती है तो उसको रोकने पर भी नहीं रुकता |
इसी प्रकार भगवान् गुरु है, उनके पास बुद्धि माँ है, जीवात्मा पिता है, ह्रदय पाठशाला है और मन बालक है | जब अभ्यास हो जाता है तो कोशिश करने पर भी वह संसार में जाना नहीं चाहता | यह समझना चाहिए के विषयभोग में जो सुख है उससे ज्यादा सुख वैराग्य में है | वैराग्य से बढ़ कर परमात्मा के ध्यान में सुख है | परमात्मा के ध्यान से बढ़कर परमात्मा के प्राप्ति में सुख है | इस प्रकार आत्मा और बुद्धि रुपी माता पिता अपने मन रुपी बालक को समझाये | मन को कोई अभ्यास कराये तो करते करते उसको वह अच्छा लगने लगता है | अभी संसार में प्रीती है, संसार अच्छा लग रहा है, संसार अच्छा लगे यह कोशिश कर रखी है | जब यह ज्ञान हो जायेगा के संसार के प्रीती में खतरा है तो उसकी तरफ नहीं जायेगा | अत एव अभ्यास प्रधान है , इसमें संग भी प्रधान है | एकांतवास , भगवान् के नामका जप, भगवान् के स्वरुप का धयान सबसे बढ़ कर है |
उत्तर :- कुसंग से कुबुद्धि हो जाती है | जैसा करे संग वैसा चढ़े रंग, अत एव संग प्रधान है | अभ्यास का स्वरुप भगवान् ने इस प्रकार बतलाया है | (गीता ६/२६) यह स्थिर न रहने वाला चंचल मन जिस जिस शब्दादि विषय के निमित्त संसार में विचरता है, उस उस विषय से रोक कर यानि हटा कर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे |
ऐसा अभ्यास करते करते मन को वह चीज अच्छी लगने लगती है | बच्चा पढने जाता है तो पहले उसकी श्रद्धा रूचि नहीं होती | माता पिता जबरदस्ती समझा-बुझा कर पढ़ाते है तो कुछ काल में उसकी रूचि होने लगती है , फिर पढने वालो का संग करने लगता है | जब उसकी रूचि हो जाती है तो उसको रोकने पर भी नहीं रुकता |
इसी प्रकार भगवान् गुरु है, उनके पास बुद्धि माँ है, जीवात्मा पिता है, ह्रदय पाठशाला है और मन बालक है | जब अभ्यास हो जाता है तो कोशिश करने पर भी वह संसार में जाना नहीं चाहता | यह समझना चाहिए के विषयभोग में जो सुख है उससे ज्यादा सुख वैराग्य में है | वैराग्य से बढ़ कर परमात्मा के ध्यान में सुख है | परमात्मा के ध्यान से बढ़कर परमात्मा के प्राप्ति में सुख है | इस प्रकार आत्मा और बुद्धि रुपी माता पिता अपने मन रुपी बालक को समझाये | मन को कोई अभ्यास कराये तो करते करते उसको वह अच्छा लगने लगता है | अभी संसार में प्रीती है, संसार अच्छा लग रहा है, संसार अच्छा लगे यह कोशिश कर रखी है | जब यह ज्ञान हो जायेगा के संसार के प्रीती में खतरा है तो उसकी तरफ नहीं जायेगा | अत एव अभ्यास प्रधान है , इसमें संग भी प्रधान है | एकांतवास , भगवान् के नामका जप, भगवान् के स्वरुप का धयान सबसे बढ़ कर है |
सत्संग अच्छी चीज है | हमारे ऋषि मुनियों ने एकांत में रह कर ध्यान तथा समाधी लगायी तो लग गयी | शास्त्रों में, इतिहास में यही बात मिलती है | संसार के पुरुषो का संग हे संसार में आसक्ति को बढाने वाला है | विचार करके देखे के स्त्री का संग करना ख़राब है, पर जब संग प्राप्त हो तो वृति उधर चली जाती है | विषयचिन्तन से उधर प्रीती हो जाती है |
(गीता २| ६२-६३) विषयो का चिंतन करने वाले पुरुष के उन विषयो में आसक्ति हो जाती है , आसक्ति से उन विषयो के कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पडने से क्रोध उत्पन होता है |
क्रोध से अत्यंत मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है , मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है , स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि नाश होने जाने से यह पुरुष अपनी स्तिथि से गिर जाता है |
नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
प्रवचन दिनांक २6\४\१९४७ , सायकाल ६ बजे , वट वृक्ष , ऋषिकेश
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जयदयाल जी गोयन्दका, साधन की आवश्यकता , पुस्तक कोड ११५० , गीता प्रेस गोरख पुर ,
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