※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 21 जुलाई 2012

अभ्यास और वैराग्य

अभ्यास और वैराग्य

मन संसार के पदार्थों में जा रहा है, क्योकि   उनमे आसक्ति है | मन को रोकने वाली चीज है वैराग्य  | भगवान् ने गीता में यही बतलाया है - परन्तु हे कुंती पुत्र अर्जुन ! यह मन अभ्यास और वैराग्य  से वश    में होता है | महर्षि  पतंजली भी कहते है - अभ्यास और वैराग्य से मन वश में होता है | मन से बुधि  बलवान है, बुधि से बलवान तथा परे आत्मा है, भगवान् उपदेश देते है की आत्मा सबसे परे है, ऐसा समझ कर मन को वश में करे | अभ्यास और वैराग्य यह दो ऐसे चीज है जो मन को रोक सकती है |
बुधि के विवेक विचार से मन वश में आ सकता है | विवेकपूर्वक अभ्यास से मन वश में आ सकता है | जैसे एक मतवाला हाथी एक अंकुश से वश में होता है, उसी प्रकार विवेकपूर्वक अभ्यास वैराग्य हो तो मन वश में हो जाता है |

 प्रश्न :- कुबुद्धि होने में क्या कारण है ?
उत्तर :- कुसंग से कुबुद्धि   हो जाती है | जैसा करे संग वैसा चढ़े रंग, अत एव संग प्रधान है | अभ्यास का स्वरुप भगवान् ने इस प्रकार बतलाया है | (गीता ६/२६) यह स्थिर न रहने वाला चंचल मन जिस जिस शब्दादि विषय के निमित्त संसार में विचरता है, उस उस विषय से रोक कर यानि हटा कर इसे बार-बार परमात्मा में  ही निरुद्ध करे |
ऐसा अभ्यास करते करते मन को वह चीज अच्छी लगने लगती है | बच्चा पढने जाता है तो पहले उसकी श्रद्धा    रूचि नहीं होती | माता पिता जबरदस्ती समझा-बुझा कर पढ़ाते  है तो कुछ काल में उसकी रूचि होने लगती है , फिर पढने वालो का संग करने लगता है | जब उसकी रूचि हो जाती है तो उसको रोकने पर भी नहीं  रुकता |
इसी प्रकार भगवान् गुरु है, उनके पास बुद्धि माँ है, जीवात्मा पिता है, ह्रदय पाठशाला है और मन बालक है | जब अभ्यास हो जाता है तो कोशिश करने पर भी वह संसार में जाना नहीं चाहता | यह समझना चाहिए के विषयभोग में जो सुख है उससे ज्यादा सुख वैराग्य में है | वैराग्य से बढ़ कर परमात्मा के ध्यान  में सुख है | परमात्मा के ध्यान से बढ़कर परमात्मा के प्राप्ति में सुख है | इस प्रकार आत्मा और बुद्धि रुपी माता पिता अपने मन रुपी बालक को समझाये | मन को कोई अभ्यास कराये तो करते करते उसको वह अच्छा लगने लगता है | अभी संसार में प्रीती है, संसार अच्छा लग रहा है, संसार अच्छा लगे यह कोशिश कर रखी  है | जब यह ज्ञान हो जायेगा के संसार के प्रीती में खतरा है तो उसकी तरफ नहीं जायेगा | अत एव अभ्यास प्रधान है , इसमें संग भी प्रधान है | एकांतवास , भगवान् के नामका जप, भगवान् के स्वरुप का धयान सबसे बढ़ कर है |

सत्संग अच्छी चीज है | हमारे ऋषि मुनियों ने एकांत में रह कर ध्यान तथा समाधी लगायी तो लग गयी | शास्त्रों में, इतिहास में यही बात मिलती है | संसार के पुरुषो का संग हे संसार में आसक्ति को बढाने  वाला है | विचार करके देखे के स्त्री का संग करना ख़राब है, पर जब संग प्राप्त हो तो वृति उधर चली जाती है | विषयचिन्तन से उधर प्रीती हो जाती है |

(गीता २| ६२-६३) विषयो का चिंतन करने वाले पुरुष के उन विषयो में आसक्ति हो जाती है , आसक्ति से उन विषयो के कामना उत्पन्न होती है और कामना में  विघ्न पडने से क्रोध उत्पन होता है |
क्रोध से अत्यंत मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है , मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है , स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि नाश होने जाने से यह पुरुष अपनी स्तिथि से गिर जाता है |

नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
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प्रवचन दिनांक २6\४\१९४७ , सायकाल ६ बजे , वट वृक्ष , ऋषिकेश
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जयदयाल जी गोयन्दका, साधन की आवश्यकता , पुस्तक कोड ११५० , गीता प्रेस गोरख पुर ,
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