परमात्मा 'स्व' है | उसमे जिसकी स्थिती है, वह स्वस्थ्य है | परमात्मा के प्राप्ति असली स्वराज्य है | जितने विकार है, वे सब शरीर में है , उसमे नहीं है |क्युकी वह परमात्मा में स्थित है, शरीर के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है |
ज्ञान के चौथी भूमिका में अन्तकरण में अन्तकरण के सहित संसार और शारीर स्वपन्वत है | पाँचवी भूमिका में स्वपन्वत भी प्रतीत नहीं होता सुसुप्तिवत प्रतीत होता है | परम उपरति होती है | किसी किसी समय देह में होश रहे, तब व्युथान अवस्था है, होश नहीं हो तो समाधी अवस्था है |व्युथान अवस्था में संसार स्वप्नवत रहता है | छटी भूमिका में गाढ़ सुसुप्तिवत रहता हाउ | संसार रहता है, कोई आदमी उसे होश कराये तो वह जग जाता है | उसकी स्थिती ब्रह्म में तन्मय है | निद्रा और समाधी अवस्था की बाहरी स्थिती एक सी है; परन्तु अंतर है | गाढ़ निंद्रा वाले की स्थिती तमोगुण में है और इस्म्की परमात्मा में है |
सातवी भूमिका सन्निपात रोग के सामान है उसे किसी प्रकार का ज्ञान नहीं होता | उसको चाहे काट डालो उसको पता नहीं | इतना अंतर है के सनिपात रोग में तमोगुण है इसमें तमोगुण नहीं है, परमात्मा में स्तिथी है | मन अहंकार में, अहंकार बुद्धि में , बुद्धि प्रकृति में विलीन हो जाती है और आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाता है |
पहली, दूसरी और तीसरी भूमिका की अवस्था साधक की कही जाती है | उसका अंत कारन के साथ सम्बन्ध है | चौथी भूमिका से सातवी भूमिका तक अन्तकरण के अवस्था के कोई कीमत नहीं है | मेरी मान्यता में चौथी भूमिका में स्तिथ हो जाने के बाद सातवी भूमिका का कोई विसेस मूल्य नहीं रहता है | चाहे चौथी भूमिका में जाओ या पांचवी भूमिका में | मुर्दा होने पर उसे चाहो उसे गाडो ,काटो,चाहे पड़ा रखो, मुर्दे को तो कोई आपति नहीं | जीवन्मुक्त का सरीर मुर्दे के तुल्य है | इन्द्रिय मन भी मुर्दे के तुल्य है | उसका इनके साथ सम्बन्ध नहीं रहता |
शारीर रहते हुए सायुज्य मुक्ति भी प्राप्त हो सकती है | अपनी धारणा के अनुसार सगुन भगवान् में विलीन होना परमात्मा के प्राप्ति है |जो निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त होता है , वह भी अपनी मान्यता के अनुसार होता है , उसके बाद असली की प्राप्ति होती है | परमात्मा के प्राप्ति होने के बाद कर्म हो, नहीं भी हो | कर्म हो तो भी कर्ता नहीं कर्म के संज्ञा मात्र है | जो सालोक्य मुक्ति को प्राप्त कर गया है और जो सायुज्य मुक्ति को प्राप्त हो गया है- इनमे कोई अंतर नहीं | अन्तकरण का अंतर रहता है | उनमे अंतर नहीं |
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प्रवचन दिनांक २४\४\१९४७ , सायकाल ६ बजे , वट वृक्ष , ऋषिकेश
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जयदयाल जी गोयन्दका, साधन की आवश्यकता , पुस्तक कोड ११५० , गीता प्रेस गोरख पुर ,
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