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अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङगशस्त्रेण दृढेन छित्वा !!
तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूय: !
तमेव चाध्यं पुरुषं प्रपध्ये यत: प्रवृति: प्रसूता पुराणी !!
(गीता १५ ३-४ )
डेढ़ श्लोक पर्याप्त है ! क्या कहते हैं ? संसार रूपी वृक्ष को दृढ वैराग्य रूप शस्त्र से कट डालो ! यह वृक्ष बड़ा दृढ है, इसकी जड़े भी जम गयी है इसको काट डालो ! काटना क्या ? भुला दो संकल्प रहित हो जाओ ! तीव्र वैराग्य का फल उपरति है ! तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूय: !
तमेव चाध्यं पुरुषं प्रपध्ये यत: प्रवृति: प्रसूता पुराणी !!
(गीता १५ ३-४ )
संकल्प रहित होने के बाद उप पद की खोज करनी चाहीये जिसको पाकर फिर लौट कर नहीं आयें ! वह पद कैसे मिले ? उस आदि पुरुष की मैं शरण हूँ ! जिस परमात्मासे चिरकाल से यह संसार विस्तार को प्राप्त हुआ है, इस भाव से उसका अन्वेषण करना चाहीये !
संसार को हटा देना, परमात्मा की शरण होना यह भक्ति का मार्ग है ! ऐसे ही ज्ञान का मार्ग है-----------
शनै: शनैरुपरमेदबुद्धया धृतिगृहीतया ! आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत !!
(गीता ६ / २५ )
क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा मनको परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे ! (गीता ६ / २५ )
धैर्य धारण की हुई बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा में लगा दो, फिर किसी का चिन्तन करो ही मत ! ऐसा नहीं हो सके तो जो प्रतीत हो वह परमात्मा का स्वरुप है !
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च !
सुक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् !!
(गीता १३ / १५ )
वह चराचर सब भूतोंके बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चार-अचररूप भी वही है ! वह सूक्ष्म होनेसे अविज्ञेय तथा अति समीप में और दूर में भी स्थित वही है ! (गीता १३ / १५ )
वह जो परमात्मा का स्वरुप है जिनके श्रद्धा प्रेम नहीं है उनके समझ में नहीं आता, जिनके श्रद्धा प्रेम है उनके निकट है ऐसा समझकर सर्वत्र परमात्मा को देखो !
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपध्य्ते !
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः !!
(गीता ७ / १९ )
यह ज्ञान के मार्ग में भी चलता है भक्ति के मार्ग में भी ! भक्ति मार्ग में सब चराचर परमात्मा का स्वरुप है ! मैं उसका सेवक हूँ ! (गीता ७ / १९ )
यह चराचर जो नाना रूपसे आपको दिख रहा है यह तत्व समझ में आने से परमात्मा के रूप में दिखने लगेगा !
यह घट-पट आदि क्या है ? सब मिट्टी है ! आग लगाओ सब मिट्टी सब मिट्टी जायगी ! मूल देखो मिट्टी, अंत देखो मिट्टी !
इसी प्रकार जो संसार है उसमें मूलमें परमात्मा, अन्तमें भी परमात्मा तो बीचमें भी परमात्मा ही है !
गहनों का नाम अलग अलग है किन्तु वास्तव में सोना ही है !
जब आपको यह ज्ञान हो जायेगा तो परमात्मा ही परमात्मा दिखेगा ! जो जल का तत्व समझता है उसे बूंद, बर्फ, बादल सब जल-ही-जल दिखता है ! सोने का तत्व जो समझ जाता है उसे सब गहनों में स्वर्ण-ही-स्वर्ण दीखता है ! इसी प्रकार जो परमात्मा के तत्व को समझ जाता है उसे परमात्मा-ही-परमात्मा दीखते हैं ! आनन्दमय ! आनन्दमय ! आनन्दमय !
प्रत्यक्ष देखो कैसा आनन्द है, कैसी शान्ति है ! नेत्रों को बंद करनेपर भी प्रकाश दीखता है हमारे बाहर-भीतर जो चेतनता है यह परमात्माका निराकार स्वरुप है ! वे विज्ञानानन्दघन परमात्मा बहार-भीतर सब जगह परिपूर्ण हो रहे हैं ! मनुष्य हरे रंग का चश्मा चढ़ा लेता है तो सारा संसार हरा दिखने लग जाता है ! आप इसी प्रकार बुद्धि पर हरिके रंगका चश्मा चढ़ा लें तो सारा संसार हरिमय दीखने लगेगा !
यह तो मान्यता की बात है और जब वास्तव में अनुभव हो जाता है तब तो प्रत्यक्ष परमात्मा दीखने लग जाते हैं, फिर कण-कण में परमात्मा का दर्शन होता है ! कोई भी जगह खाली नहीं जहाँ वह न दिखें !
गम्भीरतासे विचारने पर सारे आभूषण स्वर्ण है ! इसी प्रकार गंभीरतापूर्वक विचारने से सब जगह परमात्मा दीखने लग जाते हैं ! वे परमात्मा ही नाना रूपोंमें लीला कर रहे हैं !
नारायण नारायण नारायण
आनन्दमय पूर्ण आनन्द नित्य आनन्द ही आनन्द
शान्ति शान्ति शान्ति