※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

शिक्षाप्रद पत्र [ १४ ]---१


   प्रेमपूर्वक हरिस्मरण ! आपका पत्र मिला ! समाचार मालूम हुए ! उत्तर इस प्रकार है-------
 गोपियाँ सभी एक श्रेणीकी नहीं थी ! उनमें बहुत-सी गोपियाँ ऐसी थी, जिनमें पूर्णतया निष्कामता आ गयी थी ! निष्काम साधक होता है इसलिये उनके साधन को निष्काम कहा जाता है !
   आपका यह कहना ठीक है कि जबतक मनुष्यका तीनों शरीरोंमें से किसी भी शरीर में अहंभाव रहता है या ममता रहती है, तबतक वह पूर्ण निष्काम नहीं हो सकता ! पर इसका अर्थ यह नहीं कि शरीरमें प्राण रहते कोई साधक कामनारहित जीवन प्राप्त नहीं कर सकता !
    आपकी यह मान्यता कि `कर्ता जो कुछ भी जिस रूप में करता है वह अपने सुख के लियेही करता है`----आपके लिये ठीक हो सकती है, पर सबकी मान्यता एक सी नहीं हो सकती; क्योंकि रूचि; विश्वास और योग्यता के भेदसे मान्यता भिन्न-भिन्न होती है ! सिद्धांत का वर्णन कोई कर नहीं सकता; क्योंकि यह वाणी का विषय नहीं है !
      आपने लिखा कि ` स्वेच्छासे जो कुछ किया जाता है वह अपने सुख के लिये ही किया जाता है !` इसपर यह विचार करना चाहिये कि  स्वेच्छा और कामना में भेद क्या है ! यदि कोई भेद नहीं है तो आपका यह कहाँ इस अंश में ठीक ही है ! पर यदि भेद माना  जाय तो सुखकी कामनाके बिना भी कर्म किया जा सकता है !
      महाराजा रन्तिदेवके विषयमें आपने जो अपनी समझ व्यक्तकी, उस विषय में मैं क्या लिखूँ ! उनका क्या भाव था, वास्तवमें दूसरा नहीं बता सकता ! उपरके व्यवहार से भाव का पूर्णतया पता नहीं चलता ! पर यह अवश्य माना जाता है कि जिसका सब प्राणियों में आत्मभाव हो गया है, जो सब प्राणियोंके हितमें रत है, वह साधारण व्यक्ति नहीं है !
       आपने जो इस विषय की व्याख्या की है वह भौतिक विज्ञानकी दृष्टिसे ठीक है, पर आध्यात्मिक दृष्टि से दूसरी  बात है !

      आपने जो यह लिखा कि `जीव अपनेको जबतक पृथक मानता है इत्यादि` इनपर विचार करना चाहीये ! जीव कौन है ? उसका पृथक मानना क्या है और न मानना क्या है, वह कब तक पृथक मानता रहता है ? शरीर में प्राण रहते हुए यह मान्यता नष्ट हो सकती है या नहीं ? इसपर अपना विचार व्यक्त करें, तब उत्तर दिया जा सकता है !
      आपने पूछा----`प्रेम किससे किया जाता है, अपनेसे छोटेसे या बड़े से ?` इसका उत्तर तो यह है कि प्रेम अपनेसे छोटके साथ भी किया जाता है और बड़े के साथ भी !

      आपने अपनी मान्यता व्यक्त जो यह लिखा कि `कोई भी प्रेमी बिना किसी गुणके या महानता के किसीसे भी प्रेम नहीं करता` सो यह आप मान सकते हैं ! पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह मानना ठीक है, दूसरी सब मान्यताएँ गलत हैं; क्योंकि प्रेमतत्व गहन है !

      आपने लिखा कि `भगवान तो ऐसा कर सकते हैं, किन्तु जीव नहीं कर सकता, जब तक जीव कोटि है तबतक ऐसा नहीं हो सकता` सो जीव कोटि से आपकी क्या परिभाषा है ? यह तो आप ही जानें ! पर प्रेमी लोग तो सबसें प्रेम करते हैं; यह प्रत्यक्ष देखा जाता है !ऐसा न होता तो संत लोग संसारी मनुष्योंके साथ क्यों प्रेम करते ?

        आपने लिखा कि ` गोपियोंने जो भगवान् श्रीकृष्ण के साथ प्रेम किया, वह प्रेम कि परकाष्ठा कही जाती है; किन्तु मानी नहीं जा सकती !` इसका उत्तर तो यही हो सकता है कि आप चाहे न मानें, जिन्होंने कहा है उन्होंने तो मानकर ही कहा है !

    आपने पूछा कि `उनका प्रेम भगवान् श्रीकृष्ण के साथ था या उस परम-तत्व के साथ, जिससे भिन्न कोई दूसरा तत्व नहीं है ?` इसका उत्तर तो यही हो सकता है कि भगवान् श्रीकृष्णसे भिन्न कोई परम तत्व भी है, यह उनकी मान्यता नहीं थी !

     आपने लिखा कि परम तत्व में भेद नहीं है सो परम तत्व क्या है, उसमें किस प्रकार भेद है, किस प्रकार भेद नहीं है, यह अपनी-अपनी मान्यताके अनुसार आचार्यलोग कहते हैं ! पर फिर सभी यह कहते हैं कि वह वाणी, मन और बुद्धि का विषय नहीं है !

    आपने पूछा कि `अभेद में कर्ता नहीं, फिर प्रेम कि कोटि क्या ?` इसका उत्तर बतलाने कि जिम्मेदारी तो आप पर ही आ जाती है; क्योंकि आप पहले स्वीकार कर चुके हैं कि `अपने से छोटके साथ प्रेम भगवान् तो कर सकते हैं, तो क्या भगवान् अपनेको परमतत्व से भिन्न मानते हैं, जिसकी दृष्टि में छोटे बड़े का भेद आपकी मान्यता के अनुसार सिद्ध होता है !

    आपने लिखा कि `यदि भेद है तो कितना ही उच्च प्रेम या प्रेमी क्यों न हो, प्रेमास्पद से अपने को हेय मानकर कुछ कामना अवश्य करेगा !` आपका यह लिखना प्रेमके तत्वको बिना समझे ही हो सकता है !
 शेष भाग अगले ब्लॉग में

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक शिक्षाप्रद पत्र ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड २८१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में