※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 1 अगस्त 2012

शिक्षाप्रद पत्र १४-२


पिछला शेष आगे--------

    आपने लिखा की जो यह मानते है की प्रेमी अपने लिए कुछ नहीं करता, जो कुछ करता या चाहता है प्रेमास्पद के लिए ही करता है, मैं इसको गलत मानता हूँ !` सो आप चाहे जिस मान्यता को गलत मान सकते हैं, आपको कौन मना  करता है ! परन्तु प्रेमियों का कहना है कि जो अपने सुख के लिए किया जाता है, वह प्रेम नहीं है; वह तो प्रत्यक्ष ही काम है, जिसका  परिणाम दू:ख ही है ! असली प्रेम में अपने सुख भोग की गंध भी नहीं रहती ! उसको जो प्रेमास्पद सुख में सुख होना कहा जाता है वह तो प्रेम का ही स्वरुप बतलाना है, वह सुख भोग या सुख भोग की कामना नहीं है ! प्रेम स्वयम विशुद्ध रसमय है. रस ही प्रेम का स्वरुप है और वह असीम तथा अनंत है !
 
    आपने लिखा की प्रेमास्पद पूर्ण है सो ठीक है ! पर उस पूर्ण में भी प्रेम की भूख सदैव रहती है , क्योंकि प्रेम उसका स्वभाव है और उसकी पूर्ति नहीं है, क्योंकि वह अनन्त है !

    आपने लिखा की `प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों जब तक सम नहीं, तब तक प्रेम में पूर्णता नहीं` सो आप ही विचार करें की यदि प्रेमास्पद स्वयं प्रेमी बन जाय और प्रेमी उसके लिये प्रेमास्पद हो जाय तो दोनों सम गए या नहीं ?
 आपका यह कहना की `प्रेमी प्रेमास्पद और प्रेमास्पद प्रेमी बन जाय, यह केवल कथन है` सो ऐसी बात नहीं है ! प्रेम ऐसा ही विचित्र तत्व है ! उसमें आपकी युक्ति काम नहीं देती, क्योंकि वहाँ तक बुद्धि की पहुँच नहीं है !

     भक्त लोगों का क्या कहना है और वह किस उद्देश्य से है. यह तो भक्त लोग ही जानें, पर मैंने तो यह सूना है की प्रेमका द्वैत द्वैत नहीं है और अद्वैत अद्वैत नहीं है; क्योंकि साधारण दृष्टि से जैसा द्वैत और अद्वैत समझा जाता है, प्रेम-तत्व उस समझ और कल्पना से अतीत है ! उसे कोई भी तब तक नहीं समझ सकता,  जब तक वह स्वयं प्रेमको प्राप्त नहीं कर लेता !

      आपने लिखा की भगवान के भक्त भगवान के हाथ के यंत्र बनकर उनके आदेशानुसार समस्त कर्म होना मानते हैं तथा आगे पैरा पूरा होने तक इसकी व्याख्या भी लिखी सो इसमे कोई मत भेद नहीं है ! यह मान्यता भी परम श्रेयस्कर है ! 

         श्रीप्रह्लादजी क्या चाहते थे, क्या नहीं चाहते थे, यह समझना कठिन है ! उनके चरित्र को सुन कर सुनने वाला अपनी समझ के अनुसार कल्पना कर लेता है ! भक्त में स्वार्थ की गन्ध तक नहीं रहती, उसकी दृष्टि में एकमात्र प्रेम-ही-प्रेम रहता है; वहाँ कल्पना कैसी ? भक्त का चरित्र तो लोक शिक्षा के लिये एक लीला है ! उसमें जो कुछ खेल खेला जाता है, वह भगवान की दी हुयी शक्ति से, उन्हीकी प्रेरणा से और उन्ही की प्रसन्नता के लिये होता है ! अत: भक्त की क्रियाको न तो स्वार्थ कहना चाहिए और न कल्पना ही !

       साधन की पराकाष्ठा क्या है---यह निश्चित रूप से तो इसलिए नहीं कहा जा सकता की सब साधकों के लिये उसका स्वरुप एक-सा नहीं है ! पर गीतामें भगवान ने अपने प्रिय भक्तों के लक्षण बारहवें अध्याय के १३ वेंसे १९ श्लोक तक बतलाये हैं; उनमें पराकाष्ठा की बातें आ जाती है !

        शरणागत की पूर्णता अपनापन खोनें में है या यंत्रवत कार्य करने में---यह तो शरणागत भक्त ही जानें ! पर पहले यह समझाने की जरुरत है की यंत्र का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व रहता है क्या ? इस पर विचार करने पर सम्भव है, आपके प्रश्नं का उत्तर हो जाय !

        श्रीमान राष्ट्रपतिजी ने हिंदू कोड पर हस्ताक्षर किस भाव से किये इसका निर्णय देने का मैं अपना अधिकार नहीं मानता !

       `सनातन हिंदू-धर्म कठोरता से कुचला जा रहा है, इसें नष्ट करने के लिये विभिन्न कानून बनाये जा रहे हैं` यह ठीक है ! पर ऐसा क्यों हो रहा है ----इस पर यदि गंभीरता से विचार किया जाय तो मानना पड़ेगा की अपने को हिंदू कहने वाले भाई धर्म  और ईश्वर की ओट में कम अन्याय नहीं कर रहे हैं ! अपने को साधू, महात्मा, प्रचारक, साधक, भक्त, महंत, संत, उपदेशक, तथा सदाचारी मानने और मनवाने वाले गृहत्यागी और गृहस्थ पुरुषों की क्या दशा है ? क्या इनमे ऐसे लोग नहीं है, जो धर्म की ओट में अधर्म कर रहे हैं ? क्या लोग ईश्वर की जगह स्वयं अपनी पूजा-प्रतिष्ठा नहीं करवा रहे है ? क्या कोई व्यापारी धर्मादे के नाम पर अर्थ संग्रह नहीं कर रहे हैं ? कोई भी सरल ह्रदय व्यक्ति उपर्युक्त बातोंको अस्वीकार नहीं कर सकता ! अत: यह तो नहीं कहा जा सकता की धर्म का विरोध ईश्वर-इच्छा के बिना ही हो रहा है, पर इसका अभिप्राय यह नहीं है कि हमें इसका विरोध नहीं करना चाहीये, हमें इसका विरोध पूरी शक्ति लगाकर करना चाहीये ! वह यदि कर्तव्य मानकर किया जाय तो भी अच्छा है और भगवान् का आदेश मानकर किया जाय तो भी अच्छा है ! उसमें सफलता मिले या या विफलता, परिणाम में हर्ष-शोक न होना और करते समय राग-द्वेष रहित होकर करना---यही निष्कामता कि कसौटी है !

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक शिक्षाप्रद पत्र ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड २८१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]