शिक्षाप्रद पत्र १५
सादर हरिस्मरण ! आपका पत्र मिला ! समाचार मालूम हुए ! संसार-सागर थपेडो से व्याकुल होकर एवं संसार से निराश होकर भगवान् की शरण में जाना बड़े सौभाग्य की बात है ! साधक को समझना चाहीये कि भगवान् कि मुझ पर परम कृपा है जो मेरे मन में उनके आश्रित होने का भाव प्रकट हुआ !
संसार में ऐसा व्यक्ति दृष्टिगोचर न हो जो उचित परमार्श दे सके, यह कोई आश्चर्य कि बात नहीं है; क्योंकि संसार में रचे-पचे व्यक्ति प्राय: स्वार्थ परायण हुआ करते है, पर साधक को चाहीये कि उनके दोषों पर दृष्टिपात न करे, अपने विवेक का उपयोग अपने दोषों को देखने और मिटाने में करे ! मन से किसी का बुरा न चाहे, अपने साथियों के हित और प्रसन्नता तथा उनके प्रति अपने कर्तव्यपालन का विशेष ध्यान रखे !
आपका हृदय भगवान् श्रीकृष्ण के प्रेम से रंजित है, यह भगवान् कि विशेष कृपा है ! उनके दर्शनों कि तीव्र लालसा होना, यही तो मनुष्य का सर्वोत्तम लक्ष्य है ! इस लालसा को पूर्ण करना सर्वशक्तिमान परम प्रेमी प्रभु के हाथ में है ! अत: उनके आश्रित भक्त को कभी निराश नहीं होना चाहीये, निराशा तो साधन में विघ्न है, भगवान् पर दृढ भरोसा रखना चाहीये !
भगवान् का दिव्य वृन्दावन धाम और सेवाकुञ्ज सर्वत्र है, उनके प्रेमी भक्त का उसी में नित्य वास रहता है, उसकी दृष्टि में इस पञ्च भौतिक जगत का अस्तित्व ही नहीं रहता ! अत: आपको इसके लिये निराश नहीं होना चाहीये !
आप पान्च्भौतिक शरीर को अपना स्वरुप मान रही हैं, यह आपकी भूल है ! परन्तु वास्तव में यह आपका स्वरुप नहीं है, यह तो हाड़-मांस और मल मूत्र का थैला है ! आपका स्वरुप तो उस परम प्रेमके समुद्र भगवान् श्रीकृष्ण का ही चिन्मय अंश है ! अत: उचित है कि आप जिस शरीर को और उसके सम्बन्धी माता, पिता, भाई, नाना, मामा आदि को अपना मान रही है, उन सबसे ममता तोड़कर एकमात्र प्रभुको ही अपना सब कुछ समझें !
वे प्रभु जब आपको अपने दिव्य वृन्दावन धाम के सेवाकुंज में निवास कराना चाहेंगे, तब कोई भी नहीं रोक
सकेगा ! वे बड़े नटखट हैं ! वे देखते हैं साधक के भाव को ! जब साधक सब प्रकार के सांसारिक भोगों कि इच्छा का त्याग करके एकमात्र उन्हीके प्रेम में निमग्न हो जाता है, उनसे मिलने के लिये सर्वभाव से व्याकुल हो उठता है, तब वे तत्काल ही उसे अपने वृन्दावन धाम में प्रवेश कर लेते हैं ! अत: निराशा के लिये कोई स्थान नहीं है !
आपके.................जो आपकी भगवद्भक्तिका विरोध करते हैं, वृन्दावन धाम को नरक और भगवान् के भक्तों को ढोंगी बताते है एवं सेवाकुंज में दर्शन होने आदि बातों को झूठा प्रचार बताते है, इसे सुनकर आपको न तो आश्चर्य करना चाहीये, न दू:ख करना चाहीये और न उन कहनेवालों को बुरा ही समझना चाहीये ! जो मनुष्य जिसके महत्व से अनभिज्ञ होता है, वह उसकी निन्दा किया ही करता है, यह कोई अस्वाभाविक नहीं है ! वे तो भगवान् कि विशेष कृपा के पात्र हैं; क्योंकि हमारे प्रभु का नाम पतितपावन और दीनबन्धु है ! जब वे हमारे-जैसे अधमों को अपनाने के लिये अपना प्रेम प्रदान करते हैं, तब दूसरों को क्यों नहीं करेंगे ! ऐसा भाव करके सबके साथ प्रेम का व्यवहार करते रहना चाहीये और उनके कहने का किचिन्मात्र भी दू;ख नहीं मानना चाहीये !
आपने लिखा कि एक क्षण के लिये भी सत्संग नहीं मिलता, सो भगवान् कि स्मृति से बढ़कर दूसरा कौनसा सत्संग है ! भगवान् में प्रेम होना ही सत्संग का परम सार है ! अत: श्रेष्ठ पुरुषों का संग न मिले तो भी उसके लिये चिन्ता नहीं करनी चाहीये ! भगवान् आवश्यक समझेंगे तो वैसे सत्संगकी व्यवस्था करेंगे ! साधक को तो सर्वथा उन पर निर्भर होकर निश्चिन्त हो जाना चाहीये !
मैं तो एक साधारण मनुष्य हूँ, किसी पर कृपा करने कि मुझमें सामर्थ्य ही कहाँ है, कृपा तो उस सर्शक्तिमान कृपानिधान प्रभु कि सब पर है ही, उसी कृपा का हरेक घटना में दर्शन करना चाहीये !
आपने घरपर ही भगवान् का दर्शन होने का उपाय पूछा, सो उनके दर्शन कि उत्कट इच्छा ही सर्वोत्तम और अमोघ उपाय है ! अत: उसी उत्कट इच्छा को इतना तिव्रातितिव्र बढ़ाना चाहीये कि फिर बिना क्षण भर भी चैन न पड़े !
जो यह कहते हैं कि कलियुग में भगवान् का दर्शन नहीं होता, वे भोले भाई हैं ! उनको भगवान् कि महिमा का अनुभव नहीं हुआ है ! अत: उनकी बात पर ध्यान नहीं देना चाहीये ! सच तो यह है कि भगवान् जितनी सुगमता से कलियुग में दर्शन देते हैं उतनी सुगमता से किसी युग में नहीं देता, क्योंकि वे पतितपावन है !
आपके लिये मूर्तिकी प्राणप्रतिष्ठा कराना कोई विशेष आवश्यक नहीं है ! मीराने कब प्राणप्रतिष्ठा कराई थी ? पर उनकी तो प्रभु से बराबर बातचीत चलती थी ! अब आप विचार करें कि शास्त्रीय प्राणप्रतिष्ठा आवश्यक है या भावमयी प्राणप्रतिष्ठा आवश्यक है ! भावमयी प्राणप्रतिष्ठा को कोई रोक नहीं सकता !
आपने जप कि संख्या के विषय में पूछा, सो जिन प्रेमियोंका जीवन ही भजन-स्मरण है, उनके मन में यह सवाल ही क्यों उठना चाहीये कि कितनी संख्या पूरी होने पर मुक्ति होती है; क्योंकि संसार से तो उनकी एक प्रकार कि मुक्ति उसी समय हो जाती है जब वे सबसे नाता तोड़कर एकमात्र प्रभु को ही अपना सर्वस्व मान लेते है और भगवान् के प्रेम-बन्धन से उनको मुक्त होना नहीं है ! अत: प्रेमी भक्त के मन में यह सवाल ही नहीं उठना चाहीये !
`ॐ नमो भगवते वासुदेवाय` यह मन्त्र बहुत अच्छा है, ध्रुवजी ने इसी मंत्रका जप किया था !
जप कि संख्या का हिसाब तो उस साधक के लिये आवश्यक है, जिसको निश्चित संख्यातक जप करना है बाकी बचे हुए समय में दूसरा काम करना है ! जिस साधक को निरंतर जप ही करना हो और जिसका भजन-स्मरण ही जीवन बन गया हो उसके लिये संख्या का हिसाब रखने कि आवश्यकता नहीं है ! जप चाहे जैसे भी किया जाय वह निष्फल नहीं हो सकता !
जप करते समय माला उसी समय हाथ से छूटती है, जब मन दूसरी और चला जाता है या तन्द्रा(आलस्य) आ जाती है ! माला छूट जाये तो जप फिर से आरम्भ से ही करना चाहीये !
भगवद्गीता के माहात्म्यमें जो एक श्लोक से मुक्ति बतायी है, उसका सम्बन्ध श्रद्धा से है ! यदि मनुष्य एक श्लोक पर श्रद्धा करके उसके अनुसार अपना जीवन बना ले तो केवल मुक्ति ही नहीं, भगवान् स्वयं भी मिल जाते हैं ! भगवान् ने स्वयं कहा है------
अनन्यचेताः सततं यो मान स्मरति नित्यशः ! तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः !! (गीता ८ / १४)
`हे अर्जुन ! जो पुरुष मुझमे अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तम को स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगी के लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ !`
अत: यही समझना चाहीये कि जिनको गीताकी महिमा पर श्रद्धा नहीं है, जो उसकी महिमा को सुनकर भी मानते नहीं, उनको वह लाभ नहीं मिलता जो मिलना चाहीये !
जप करते समय उदासी या आलस्य का आना श्रद्धा-प्रेम कि कमी का द्योतक है ! सिद्ध सखी-स्वरुप कि प्राप्ति प्रेमकी धातु से बने हुए प्रेममय दिव्य शरीर को प्राप्त होने को कहते हैं ! उसीसे भगवान् के लीला धाम दिव्य वृन्दावन में प्रवेश होता है ! अत: कल्याण में जो बात लिखी है, वह ठीक ही होगी ! सिद्ध-स्वरुप को प्राप्त करने का साधन एकमात्र भगवान् कि कृपा का आश्रय और उनका अनन्य प्रेम ही है ! उसे प्राप्त करने का अधिकार हरेक मनुष्य का है फिर आपका क्यों नहीं है ?
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक शिक्षाप्रद पत्र ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड २८१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष