※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

शिक्षाप्रद पत्र १८


 प्रेमपूर्वक हरिस्मरण ! आपका पत्र मिला ! समाचार मालूम हुए ! जप के विषय में आपने जो-जो बातें लिखी सब पढ़ ली है; उनका उत्तर इस प्रकार है---------
 १-- सर्दी की ऋतू में यदि सांयकाल स्नान करना असह्य हो तो हाथ-पैर और मुँह धोकर भी गायत्रीका जप और संध्या कर सकते हैं !
 २-- जप करते समय कण्ठ और जिह्वा शुष्क होने लगे तो आचमन कर लेना चाहीये !
 ३-- आप लिखते हैं कि मैं जप मानसिक करता हूँ और यह भी लिखते है कि जिह्वा कण्ठ थक जाते हैं ! यह दोनों बातें परस्पर मेल नहीं खाती क्योंकि मानसिक जप में कण्ठ और जिह्वा से कोई काम ही नहीं लिया जाता तब वे दोनों थकेंगे क्यों ? आगे चलकर आप यह भी लिखते हैं कि जिह्वा अपने-आप हिलाने लगाती है, इससे भी यही समझ में आता है कि आपका जप मानसिक नहीं होता; आप कण्ठ और जिह्वा से होने वाले जपको ही मानसिक मानते हैं !
 ४-- आपने लिखा कि `ॐ नमो नारायणाय` इस मंत्र का जप करूँ तो कष्ट कम होता है, पर विचार तो यह करना है कि साधन में कष्ट होना ही क्यूँ चाहीये ! यह तो तभी होता है जब साधक अपने साधन साधन को ठीक समझ नहीं पाता है और सुनी-सुनायी बातोंपर मनमाने तरीके से साधन करता रहता है ! वास्तव में जो साधन अपनी योग्यता, विश्वास, और रूचि के अनुरूप हो, वही साधन है ! वह साधक को कभी भर रूप मालूम नहीं होगा ! उसमें थकावट कभी नहीं आएगी और उत्तरोतर रूचि बढ़ेगी ! साधन अपने-आप होगा ! उसका न होना असह्य हो जायेगा! जगाने से लेकर शयन करने तक एवं साधन के आरम्भ से मृत्युपर्यन्त हर समय साधन-ही साधन होगा ! उसकी कोई भी क्रिया ऐसी नहीं होगी, जो साधन से रहित हो !
       आप जप करना अपना स्वभाव बना लें, उस पर जोर डालने की कोई आवश्यकता नहीं; प्रेमपूर्वक करते रहें! संख्या शीघ्र पूर्ण करने का या अधिक करने का आग्रह छोड़ दें ! शांति पूर्वक मन्त्र के अर्थ को समझते हुए और उसके भाव से भावित होकर जप करें, ऐसा करने पर थकावट का सवाल नहीं आ सकता ! जब तक जप या अन्य कोई भी साधन बोझ मालूम होता है, तभी  तक उसमें थकावट की प्रतीति होती है !
 ५--आपने लिखा कि पहले मेरा मन थोड़ा मन्त्र के अर्थ और भगवान के चिंतन में लगाने लगा था, परन्तु अब सारा जोर उच्चारण कि और ही लग जाता है ! अत: आपको विचार करना चाहीये कि ऐसा क्यों होता है ! विचार करने पर मालूम हो सकता है कि इसका जल्दीबाजी अर्थात थोड़े समय में अधिक संख्या पूर्ण करने का आग्रह है; जो कि भगवान् के चिन्तनका महत्व न जानने के कारण होता है ! इसलिये भाव और ध्यान सहित ही जप करना चाहीये, चाहे वह संख्या में कम ही हो !
 ६--आपका आहार सदा से ही सादा है, यह अच्छी बात है ! चाय भी कोई लाभप्रद नहीं है ! इसके स्थान पर गायका दूध पीना अच्छा है !
 ७--मंत्र का उच्चारण आप अपनी जानकारी के अनुसार शुद्ध करने कि चेष्टा रखते ही है; यह बहुत ही ठीक है ! जप करते समय आप पवित्र होकर बैठते हैं, यह भी ठीक है ! साथ ही मन को भी पवित्र रखने का ख्याल रखना चाहीये ! मनमें बुरे और व्यर्थ संकल्पों का न आना ही मन कि पवित्रता है !
 ८--जप और भगवत्-चिन्तन  करते समय साधक को चाहीये कि सब प्रकार कि कामना से रहित होकर बैठे ! किसी भी व्यक्ति और वस्तु में आसक्त न हो ! ऐसा करने से शान्ति और सामर्थ्य बढ़ सकती है ! फिर थकावट होना सम्भव नहीं है !
 ९--यदि स्त्रियाँ मासिकधर्म होने पर छूआछूत का विचार नहीं रखती, अपवित्रता फैलाती हैं तो उन पर किसी प्रकार का दबाव न डालकर अपना भोजन शुद्धतापूर्वक अलग अपने हाथ से बना लेना चाहीये ! इसका कारण कोई पूछे तो बड़ी शान्ति के साथ कह देना चाहीये कि मेरी रूचि ही ऐसी है, क्या करूँ ? इसके अतिरिक्त न हो तो उनके व्यवहार से दू:खी हों, न किसी को बुरा-भला कहें और न किसी पर क्रोध ही करें ! ऐसा करने में उनका भी हित है और आपका तो हित है ही ! ऐसा व्यवहार करने पर स्त्रियोंको भी अशुद्धि फ़ैलाने से सुविधा हो सकती है !
 १०--स्त्रियों में लज्जा का भाव जाता रहा है, इसके लिये आपको दू:ख नहीं करना चाहीये ! संसार में सब प्रकार के परिवर्तन समय-समय पर हुआ करते है ! साधक को तो अपने कर्तव्य में सावधान रहना चाहीये ! बिना पूछे दूसरे का कर्तव्य बताना उसका काम नहीं है ! इसी प्रकार दूसरे कि त्रुटियों को देखना भी साधक का काम नहीं है ! उसे तो चाहीये कि अपने कर्तव्य का पालन करते हुए नि:स्वार्थभावपूर्वक दूसरों के मन कि धर्मानुकूल इच्छा को पूरी करता रहे !
 ११-- कन्या का विवाह समय आने पर संयोग से ही होता है, यह बात ही अधिक ठीक है, तो भी कन्या के माता-पिता आदि अभिभावक को अपनी ओरसे चेष्टा करते रहना चाहीये ! भाग्य का विश्र्वास चिन्ता मिटने के लिये है, किसी को कर्तव्यच्युत या कर्महीन आलसी बनाने
के लिये नहीं !
 १२-- श्रद्धाके योग्य ब्राह्मण उपलब्ध न हो तो जो मिले उनमेंसे अच्छा देखकर सदाचारी विद्वान ब्राह्मण को श्रद्धापूर्वक भोजन करा देना चाहीये ! वह यदि प्याज वगैरह खाता हो तो उसका उपाय करना आपके हाथ कि बात नहीं है ! आप अपने घर में उसेन वे वस्तुएं न खिलावें, इतना ही कर सकते है ! आप तर्पण प्रतिदिन करते है, यह बहुत अच्छा है !

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक शिक्षाप्रद पत्र ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड २८१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]